अपना स्वरूप और दायित्व समझें

May 1985

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गीताकार ने एक ऐसा रहस्योद्घाटन किया है जिस पर गम्भीरतापूर्वक ध्यान देने से मनुष्य सारी विपत्तियों से छुटकारा पा सकता है और सारी सम्पत्तियों से अपना अंचल भर सकता है। सभी जानते हैं कि शत्रुओं के द्वारा मुसीबतें धकेली जाती हैं और सन्मित्र अपनी सहायता देकर सुखों का संवर्धन करते हैं। इसलिए शत्रुओं से पीछा छुड़ाने और मित्रों का सहयोग बढ़ाने के लिए हर बुद्धिमानी को प्रयत्नरत रहना चाहिए।

यह मित्र और शत्रु कौन हैं जो निरन्तर साथ रहते हैं और बिना विश्राम लिए अपना काम करते रहते हैं। निश्चित रूप से यह बाहर वाले नहीं हो सकते। बाहर वालों के अपने भी तो कुछ निजी काम रहते हैं उन्हें छोड़कर सदा सर्वदा साथ कैसे रहें? फिर उनका निवास भी तो हमारे घर में नहीं होता। कहीं दूर रहते होंगे। ऐसी दिशा में इतनी दूरियाँ रहते हुये अपना समय बर्बाद करते हुये हमारे साथ-साथ कैसे रहें? फिर हमें लाभ हानि पहुँचाने में उन लोगों को कुछ कमीशन भी तो नहीं मिलता। ऐसी दशा में उनका निरन्तर साथ रहना और हमारे लिए ही मरते खपते रहना एक प्रकार से असम्भव ही है। ऐसी दशा में वे मित्र शत्रु कौन हैं? जो निरन्तर साथ रहते हुए हमारे वर्तमान और भविष्य को बनाने बिगाड़ने में निरन्तर लगे रहें।

गीताकार का कथन है कि “आत्मैवह्नात्मनो मित्र आत्मैव रिपुरात्मन” अर्थात्- अपना आपा ही अपना मित्र और वही शत्रु है। जिसने अपने आपन को कुसंस्कारी बना लिया वह पहले सिरे का शत्रु है और जिसने उसे सुसंस्कारी बनाया यह सच्चा सुहृदय है। अपने ही दोष दुर्गुण कषाय-कल्मष हमें कुमार्ग के गर्त में धकेलते हैं और नाना प्रकार के त्रास सहने के लिए विवश करते हैं। साथ ही यह भी निश्चित है कि अपना आपा यदि सुसंस्कारी है, सद्गुणों से अभ्यस्त है तो उसी के बलबूते उस मार्ग पर चला जायेगा जिसमें पग-पग पर सुख शांति के शोभायमान सुगन्धित फूल खिले हुये हैं।

मनुष्य क्या है? काया की दृष्टि से हाड़-मास का पुतला ही आत्मा की दृष्टि से चेतना का पुँज। यह चेतना ही काया को जिधर-तिधर घसीटी फिरती है। उसकी मान्यता, भावना, आकाँक्षा और विचारणा जैसी भी होती है शरीर को उसके अनुरूप अपनी गतिविधियों का निर्माण करना पड़ता है। चोर और सन्त की काया में कोई विशेष अन्तर नहीं होता, दोनों के मिलने से एक समग्र व्यक्तित्व बनता है। गुण, कर्म, स्वभाव दिखते तो शरीर पर आच्छादित हैं पर वस्तुतः वे मन के अनुरूप अपनी प्रेरणाऐं फेंकते हैं और उसी स्तर की जीवनचर्या का उपक्रम बना लेते हैं। कहना न होगा कि जिस स्तर का चिन्तन और चरित्र होता है उसी के अनुरूप परिस्थितियाँ घिर आती हैं। वैसे ही लोगों से संपर्क सधता है वैसी ही मण्डली बनती है। वैसे ही साधन जुटते हैं। वैसे ही काम बन पड़ते हैं। यही है मनुष्य का समग्र स्वरूप जो अनुरूप प्रतिफल खींच बुलाता है। मनःस्थिति से परिस्थितियाँ बनती हैं और फिर उनका प्रतिफल प्रकृति की सुनिश्चित व्यवस्था के अनुरूप मिलना आरम्भ हो जाता है। कर्म और फल का गुँथा हुआ चक्र है। कुकृत्यों के करने लगने पर जीवन का स्वरूप हेय बन जाता है। हर ओर से घृणा भर्त्सना बरसती है। परिचित जनों का सहयोग हटता और घटता जाता है। प्रतिकूलतायें बनती हैं और समस्याओं का जंजाल एवं विपत्तियों को घटाटोप घिरना आरम्भ हो जाता है। इसके लिए किसी दूसरे को दोष देना व्यर्थ है। दूसरे अपने ही कामों में व्यस्त हैं उन्हें इतनी फुर्सत कहाँ है जो अपना काम हर्ज करके दूसरों के मामलों में टाँग अड़ाने चलें।

अपने ही कृत्य हैं जो अपने स्तर का प्रतिफल स्वयं ही विनिर्मित करते रहते हैं। गृह दशा, देवी देवता, भाग्य विधाता, सभी निर्दोष हैं। वे किसी से राग, किसी से द्वेष क्यों करेंगे? किसी को दुःख देने, किसी पर सुख उड़ेलने के व्यर्थ कार्य का बोझा कोई क्यों ढोयेगा और अकारण क्यों किसी से निन्दा किसी से प्रशंसा सुनता फिरेगा। सम्बद्ध जनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे किसी के अनुकूल किसी के प्रतिकूल होते हैं तो उसका भी कुछ कारण होता है। वातावरण दौड़कर हमारे पास नहीं आता वरन् अपनी रुचि के अनुरूप हमीं उसे तलाश करते और उसके साथ गुँथते हैं। उद्यानों में भौंरे भी रहते हैं और गुबरीले भी। भौंरे फूलों पर बैठते और मकरंद पान करते हैं। इसके विपरीत उसी क्षेत्र में पड़ी हुई गन्दगी तलाश करने गुबरीले निकलते हैं तो उन्हें सड़े गोबर के ढेर भी जहाँ-तहाँ मिल जाते हैं। एक अपने सौभाग्य को सराहता है दूसरा सिर धुनता और दुर्भाग्य को कोसता है। इसमें निमित्त कारण यह स्वयं ही है कोई और नहीं।

एक जैसी परिस्थिति में जन्मे, पले और बढ़े लोगों में से एक महापुरुषों का श्रेय सम्मान पाता है। दूसरा गयी गुजरी स्थिति में दिन गुजारता है या ऐसा बन जाता है जिसकी हर कोई निन्दा करे। विरोध करे और त्रास दे। इस अन्तर की वास्तविकता तलाश की जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि उन दोनों ने भिन्न-भिन्न दिशायें चुनीं और तद्नुरूप अवगति और प्रगति के भाजन बने।

चाहने को हर व्यक्ति अच्छी परिस्थितियाँ चाहता है और प्रगतिशील बनना चाहता है। पर उस कार्य में सफल सहयोग किससे मिल सकता है। यह भूल जाता है। गीताकार ने इस संदर्भ में कहा है- ‘उद्धरेत् आत्मनात्मानं नात्मानं अवसादयेत्’ -अर्थात् अपना उद्धार आप करें। अपने आप को गिरायें नहीं। दिशा का चयन और निर्धारण स्वयं करना पड़ता है। उस राह पर अपने पैरों आप चलना पड़ता है। इसके उपरान्त तद्नुरूप साथी सहयोगी मिलते चले जाते हैं। इस संसार में किसी बात की कमी नहीं। हम जिधर भी चलेंगे उधर ही सहयोगी मिलते चले जायेंगे। चोर-उचक्कों को वैसे ही मित्र और अवसर मिलते जाते हैं जो कमी रह जाती है वह जेलखाने पहुँचने पर अनेकानेक प्रवीण पारंगतों द्वारा पूर्ति हो जाती है। यदि सन्त सज्जन, कलाकार विद्वान बनना है तो उसकी राह बताने वाले और खोजने पर सहायता देने वाले अपने उसी क्षेत्र में मिल जाते हैं। संसार का इतिहास इन्हीं उदाहरणों से भरा पड़ा है।

अपनी आंखें सही हैं तो संसार के सभी दृश्य दीखेंगे। यदि वे न रहें तो अन्धे के लिए सूर्य और चन्द्रमा तक बुझ जाते हैं और सारी दुनिया सदा सर्वदा के लिए काली चादर से ढक जाती है। अपने कान यही हैं तो एक से एक मधुर और ज्ञानवर्धक शब्द सुने जा सकते हैं पर यदि वे खराब हो जांय तो सारी दुनिया मौन हो जायगी। केवल साँय-साँय की ध्वनि ही कान की झिल्ली में टकराती रहेगी। अपना दिमाग सही हो तो दुनिया में समझदारी की कमी नहीं पर यदि दिमाग खराब हो जाय तो यह सारा संसार पागलों से भरा दिखाई पड़ेगा और जो भी गतिविधियाँ हो रही होंगी वे अस्त-व्यस्त एवं खीज उत्पन्न करने वाली प्रतीत होंगी। घर की खिड़कियां बन्द कर ली जांय तो बारह उगा हुआ सूरज प्रकाश की एक किरण भी न भेज सकेगा। चलता हुआ पवन बाहर ही घूमता रहेगा। घर की सीलन तक न सुखा सकेगा। सूर्य उन्हीं के लिए है जिनकी आंखें हैं। गीत उन्हीं के लिए हैं जिनके कान हैं। समझदारी उन्हीं के लिए है जिनकी अपनी समझ सही है।

प्रकृति के संकेतों पर चलने वाले सृष्टि के सभी जीव जन्तु निरोग रहते हैं। समयानुसार जन्मते मरते तरे हैं पर बीमार नहीं पड़ते। संसार में एक ही मूर्ख जानवर है जो बीमारियों को न्योंत-न्योंत कर बुलाता है- वह है मनुष्य। इन्द्रिय असंयम में अति बरतने के कारण उसका पेट खराब हो जाता है। और अपच अनेकानेक बीमारियों का सिलसिला चल पड़ता है। ब्रह्मचर्य की मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर खोखला हुआ दिमाग पग-पग पर आशक्ति का, मनोबल के अभाव का अनुभव करता है। इससे भिन्न प्रकृति के दूसरे लोग हैं जो संयम बरतते हैं और जीवन के हर क्षेत्र में सफल सुखी एवं परिपुष्ट रहते हैं यह सब कुछ अपने ही चयन निर्धारण पर निर्भर है।

बुद्धिमानों का कथन है कि अपने को- अपनी क्षमता एवं गरिमा को जानो और उसका सदुपयोग करो। उपनिषद् का बीज मन्त्र है- “आत्मा वारे ज्ञातव्य” अपने आपको जानो और उसे संभालो। जिनने यह जान लिया समझना चाहिए कि इस संसार में जो कुछ जानने योग था, सब कुछ जान लिया। योग का स्वरूप है- अंतर्मुखी होना, अपने स्वरूप और बल को समझना। समझकर वह मार्ग अपनाना जिससे आत्म-कल्याण का मार्ग खुलता हो और आमन्त्रित विपत्तियों की धमा चौकड़ी वाला द्वार बन्द होता हो।

बुद्ध राजमहल छोड़कर आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए सघन वन में तप करने गये। अन्तर्मुखी होकर अपने भीतर छिपी हुई महान सत्ता और महत्ता के दर्शन किये। इतना होते ही वे राजकुमार से बदलकर भगवान हो गये। जिस वट वृक्ष के नीचे उन्हें बोध हुआ था। उसका नाम बोधि वृक्ष पड़ा। उसकी टहनियाँ काट-काटकर संसार भर के बुद्ध भक्त ले गये और उन टहनियों द्वारा अपने-अपने देशों में बोधि वृक्ष लगाये जिनका सम्मान बुद्ध के प्रतिनिधि जैसा हुआ।

अपना सही स्वरूप न समझ पाने के कारण ही लोग हेय जीते, और निकृष्ट दुष्प्रवृत्तियों में लिपटे हुये नरक भोगते रहते हैं। अपने को ईश्वर का युवराज समझने की मान्यता यदि जग पड़े तो फिर यह निश्चित है कि पिता के सौंपे हुये उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने में मनुष्य प्रमाद न करेगा। अपना व्यक्तित्व देवोपम गढेगा और पशु पक्षियों की तरह पेट प्रजनन तक सीमित न रहकर विश्व उद्यान को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में संलग्न होगा। जिसके भी कदम इस मार्ग पर उठे, उसका निश्चित रूप से काया कल्प हुआ। तुच्छ से महान, लघु से विभु और नर से नारायण बना। नर पशुओं की वासना, तृष्णा और अहंता की मदिरा पीकर उन्मुक्त जैसी स्थिति में उद्धत कर्म करते देखा जाता है। आत्म विस्मृति की स्थिति में उन्हें लज्जा, भय, संकोच भी नहीं होता और कुकर्मों में निरन्तर रहने लगते हैं। यह स्थिति आत्म बोध के अभाव में ही बनती है। जैसे हेय स्तर का जन समाज इन दिनों है उसी को देखते-देखते उसी में घुल जाता है और वैसे ही आचरण करने लगता है।

मनुष्य का यह सर्वोपरि सौभाग्य है कि वह अपने स्वरूप को समझे। सोहम् की ध्वनि उच्चारे और अपने गौरव के अनुरूप जीवन का स्वरूप बदल डाले। कहना न होगा कि यह स्वरूप महामानवों, देवात्माओं, ऋषियों और मार्गदर्शकों जैसा ही हो सकता है उसमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव को अनुकरणीय, अभिनन्दनीय, बनने की ऐसी उमंग उठ रही होगी जो चरितार्थ हुये बिना चैन ही न लेने दे। भगवान ने मनुष्य को छः इंच का पेट और छः फुट के हाथ दिये हैं। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह वह दो घण्टे नित्य के परिश्रम से भी कर सकता है। परिवार का दायित्व ऊपर हो तो उन सदस्यों को स्वावलम्बी स्वाभिमानी बनाकर इस योग्य बनाया जा सकता है कि वे किसी के गले का भार न रहे और परिवार संस्था को सींचते पोसते हुये उसी खेत की शोभा भी बढ़ाते रह सकते हैं और घास से अपना निर्वाह भी करते रह सकते हैं। लालच, तृष्णा, ममता का उन्माद आदि लाद लिया जाय तो दुर्व्यसनी जीवन के लिए तो जो भी कमाया जाय कम पड़ेगा। किन्तु ‘औसत भारतीय’ शब्द यदि याद रहे तो बहुत सरलतापूर्वक कम समय में गुजारे की व्यवस्था चलती रहती है।

इसके बाद जो समय बचता है उसे समय की महती समस्याओं के समाधान में लगाया जाना चाहिए। पतन और पराभव से जूझने में एक वाणधारी योद्धा की तरह जुट जाना चाहिए। कोटि-कोटि मानवों की विपन्नता को दूर करने के लिए यदि अपने आप को बीज की तरह गला देने की उमंगें उठें तो उस महाकाल की पुकार को पूरा करने में छोटी से छोटी स्थिति का आदमी महती भूमिका सम्पन्न कर सकता है। लोक-मानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के दो कार्यों की इतनी शाखा प्रशाखाएं हैं जिन्हें सम्पन्न करने के लिए अपनी क्षमता परिस्थितियों के अनुरूप कार्यक्रम चुनने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। जिसने अपने को जीता, उसने सारा संसार जीत लिया। संसार का सुधार अपने सुधार से ही आरम्भ होगा। हम बदलें तो सम्बद्ध वातावरण का आश्चर्यजनक ढंग से बदल जाना सुनिश्चित है। समय की यह चुनौतियाँ प्रत्येक विचारवान को झकझोरती हैं कि वह अपने स्वरूप एवं उत्तरदायित्व को समझें और उसके अनुरूप गतिविधियों को बदलने में देर न करें।


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