सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री- गायत्री

May 1985

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गायत्री महामन्त्र का सार संक्षेप समझना हो तो उसके तृतीय चरण पर ध्यान देना होगा। जिसमें सविता देव से प्रार्थना की गई कि वे हम सब की बुद्धियों को शुद्ध करें। अथवा सही दिशाधारा अपनाने की प्रेरणा भरें। यह न केवल प्रार्थना है वरन् उसमें क्षमता भी है जिससे उपासक का मनोबल, आत्मबल और बुद्धिबल बढ़ता है। जिसे इस विभूति से लाभान्वित होने का अवसर मिले। समझना चाहिए कि उसके भविष्य का हर दृष्टि से उज्ज्वल होने का सुयोग बन गया।

बुद्धि भ्रष्ट होने पर मनुष्य का सब कुछ नष्ट हो जाता है। दुर्मति ही दुर्गति का प्रधान कारण है। दूरदर्शी विवेकवान व्यक्ति इस प्रकार सोचता है। जिसमें उत्कृष्टता का समन्वय है। जिसका चिन्तन सही है उसका चरित्र भी आदर्शवादी होगा। व्यवहार सज्जनोचित का पड़ेगा। मनःस्थिति के सज्जनोचित होने पर परिस्थितियाँ भी ऐसी बनती हैं जिनमें सुख-शांति की कमी नहीं रहती। गायत्री मंत्र में यही विशेषता भरी पड़ी है।

गायत्री की महिमा बताते हुए महाभारत में कहा गया है-

य एषां वेद गायत्री पुण्यां सर्वगुणान्विताम्। तत्वेन भरत श्रेष्ठ स लोके न प्रणाश्यति॥ महा. भीष्म 4।15

अर्थात्- सर्वगुणों से भरी हुई वेदमाता गायत्री को जो जानता है उसका इस संसार में कभी कोई अनिष्ट नहीं होता।

चाणक्य को लोगों ने सूचना दी कि आपके समर्थकों में से अधिकाँश विपक्ष में जा मिले हैं और आपका अनिष्ट करना चाहते हैं। इस पर चाणक्य ने हँसते हुए कहा- “मा गातु बुद्धिर्भम” अर्थात् और सब कुछ चला जाय। एक मेरी सद्बुद्धि न जाय।

गीतों में भगवान ने अपना स्वरूप गायत्री अर्थात् सद्बुद्धि को बताया है।

“बुद्धिर्बुद्धिमाता ह्यस्मि।” अर्थात् बुद्धिमानों में बुद्धि मैं हूँ। “गायत्री छन्दसामहम्” अर्थात् श्रुतियों में गायत्री मैं हूँ।

सद्बुद्धि मनुष्य की पग-पग पर सहायता करती है। उसके सहारे वह कुछ से कुछ बन जाता है।

एक वृद्धा कुमारी ने तप किया। देवता प्रसन्न होकर प्रकट हुए और बोले वर माँग।

उसने एक ही वर माँगा- ‘‘मैं अपने पुत्र को सोने के पालने में झूलता और दूध भात खाते देखना चाहती हूँ।” वर तो एक ही था पर उसमें स्वयं का युवती बन जाना, विवाह हो जाना। पुत्र होना और इतनी लक्ष्मी मिलने की याचना है कि पुत्र को सोने के पालने में झूलता हुआ देखे अर्थात् साथ में प्रचुर लक्ष्मी भी उसे मिल जाय।

इसी प्रकार एक जन्मान्ध निर्धन वृद्ध की कथा है। उसने भी तप किया। देवता ने एक वर माँगने के लिए कहा- उसने माँगा- मैं अपने क्षेत्र के राज्य सिंहासन पर अपने पौत्र को बैठते हुए देखना चाहता हूँ। इस एक ही वरदान से उसकी आँखें खुल जाना, युवा हो जाना, पुत्र पौत्र हो जाना और राज्याधिकारी बन जाना। इतने सारे लाभ मिलने की बात है।

गायत्री को बुद्धि की देवी कहा गया है। शास्त्र कहता है कि जिसमें बुद्धि है उसी में बल है। बुद्धिहीन में बल कहाँ से आया?

नीति वचन हैं कि काल ने दण्ड लेकर किसी को नहीं मारा, उसकी विवेक बुद्धि और विवेक शक्ति का अपहरण कर लिया है। इतने से ही उसका सर्वनाश हो जाता है। “विनाश काले विपरीत बुद्धि” -अर्थात् जब मनुष्य का विनाश काल आता है तब बुद्धि विपरीत हो जाती है।

हमें गायत्री मन्त्र की उपासना भी करनी चाहिए और साथ ही अपनी विवेक बुद्धि को अधिकाधिक पवित्र एवं प्रखर बनाने में संलग्न रहना चाहिए। यह दोनों अवलम्बन अपनाने पर मनुष्य का सब प्रकार कल्याण ही कल्याण है।


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