कस्मै देवाय हविषा विधेम्

May 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

किस देवता के लिए हम भजन करें? किसे हविष्य प्रदान करें? यह आत्मा के सम्मुख एक जटिल प्रश्न है। देव कर्मों में भी अनेक हैं। जिनसे प्राणियों का हित साधन होता है वे सभी दिव्य कर्म हैं। ऐसे कर्मों में प्राणियों की शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति तथा सुविधा संवर्धन भी आता है। यह कृत्य ऐसे हैं जिनमें साधारण स्तर के स्वार्थ परमार्थ का समन्वय है। किसान कृषि करता है। अन्न उगाता है। वह उत्पादन दूसरों के भी आता है। उत्पादित चारे से कई पशुओं का पेट भरता है इस तरह उसे स्वार्थ परमार्थ का समन्वय भी कह सकते हैं। लुहार, बढ़ई, कारीगर शिल्पी, इस दृष्टि से सभी उपयोगी काम करके आजीविका कमाने वाले परमार्थी कहे जा सकते हैं। साथ ही स्वार्थ भी साधते हैं। इस प्रक्रिया को मनुष्यों का अधिकाँश समुदाय अपनाता है। अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनाकर दूसरों को हानि पहुँचाने वाले और अपना पतन करने वाले तो कम ही लोग होते हैं।

इतनी जानकारी तो सामान्य बुद्धि के उदर पोषण में लगे हुए लोगों की भी होती है। फिर वह कोई विशेष प्रयोजन होना चाहिए जिसके लिए आत्मा ने परमात्मा से पूछा है कि ‘किसके लिए भजन करें?” किस निमित्त अपने श्रम, समय और चिन्तन को नियोजित करें? यह जिज्ञासा उठना ही श्रेय मार्ग का अवलम्बन है। अन्यथा ढर्रे का जीवन सभी जीते हैं। पेट और प्रजनन की आकाँक्षाऐं ऐसी हैं कि काम करने की प्रेरणा देती हैं। इन्द्रियों के साथ जुड़ी हुई लिप्साएं अपने विनोद के लिए काया को जहाँ-तहाँ घसीटे घसीटे फिरती हैं। मन को वैसा ही ताना-बाना बुनने के लिए बाधित करती हैं। निद्रा के कुछ घण्टों को छोड़कर ऐसे ही प्रपंच में कार्यरत रहता है। और कोई चाहे तो अपनी तर्क बुद्धि को स्वार्थ के साथ परमार्थ जुड़ा होने की बात भी सिद्ध करने के लिए कुतर्कों के ढेर लगा सकता है। व्यभिचारी यह कहे कि वह वेश्या के उदर पोषण की व्यवस्था करता है तो उसका मुँह कैसे बन्द किया जा सकता है।

प्रश्न यह नहीं कि काम किसके लिए करें। इसका सीधा-सा उत्तर है जिससे सरलतापूर्वक अधिक उत्पादन किया जा सके और मन भी प्रसन्न रहे, ऐसे काम करना चाहिए। पर बात इतनी सरल और सीधी नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण कारण जुड़ा होने से ही जिज्ञासा उभरी ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम्” हवि को किस देवता के निमित्त अर्पण करें!

कठिन प्रश्न का उत्तर गीता के एक श्लोक में भगवान ने प्रकट कर दिया है।

“ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नों ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव व तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना॥”

अर्थात्- अपनी छवि को ब्रह्म के निमित्त अर्पण करें। यही यजन करने योग्य हविष्य है। जो ब्रह्म के मार्ग पर चलता है। वह अपने ब्रह्म कर्मों द्वारा ब्रह्म में ही समाधिस्थ हो जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि हम ब्रह्म के निमित्त अपने श्रेष्ठ कर्मों को नियोजित करें।

यह ब्रह्म क्या है- उत्तर में कहा गया है - सर्वव्यापी महेश्वर। उसे किस प्रकार के कर्मों की आवश्यकता है- उत्तर में कहा गया है- मोक्तारं यज्ञः तपसा’। अर्थात्- वह यज्ञ और तप का भोग करता है।

तप का अर्थ है- आत्म संयम, सत्प्रयोजनों के लिए कष्ट सहन, अपने कुसंस्कारों का दमन। यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ को कहा गया है। सद्ज्ञान का विवेक का संवर्धन। महाप्रज्ञा का परिपोषण। सदाशयता का अभिवर्धन।

इतने में प्रश्न का उत्तर पूर्ण हो जाता है। हम अपने आपको श्रेष्ठ, शालीन, सज्जन उदात्त बनाने के लिए अन्तः संघर्ष करें और दुष्प्रवृत्तियों की जो कुसंस्कारिता भीतर बाहर चिपटी पड़ी हो उसे दूर करने के लिए अपने आप से संघर्ष करे। पिछले अभ्यासों के कारण वासना, तृष्णा अहंता के परिपोषण का जो क्रम चलता है उसे उलटकर सीधा करने से परम पुरुषार्थ का परिचय दें। अपूर्णता को निरस्त करके पूर्णता की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नरत रहें।

यह एक पक्ष हुआ। अब सोचना यह है कि इस प्रकार तप साधना द्वारा उपलब्ध ब्रह्म परायणता के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करे। उस उपलब्धि को किस निमित्त लगायें? इसका उत्तर है- ‘ब्रह्म यज्ञ’ ब्रह्मयज्ञ अर्थात्- ज्ञानयज्ञ।

संसार में समस्त विपत्तियाँ अज्ञानजन्य हैं। उसी अन्धकार में भटककर मनुष्य पग-पग पर ठोकरें खाता है। और इस सृष्टा के विश्व उद्यान में भयंकर स्तर के घटना क्रम घटित करता एवं कराता है। यह सब अन्तःप्रकाश के अभाव में ही बन पड़ता है। अन्यथा रस्सी को साँप और झाड़ी को भूत समझकर क्यों भयभीत होना पड़े। गलत मार्ग पर चल पड़ने का विभ्रम अन्धकार की सघनता में ही बन पड़ता है। निशाचरों की घात अन्धेरे में ही लगती है।

कर्मफल में विलंब होते देखकर मनुष्य कुकर्मों के प्रति दुस्साहसी होते और सत्कर्मों के प्रति निराशा व्यक्त करते देखा क्या है। यदि दूरदर्शी विवेकशीलता साथ दे तो यह समझने में देर न लगे कि सृष्टी की इस सुव्यवस्थित संरचना में देर है अन्धेर नहीं। यही सद्ज्ञान है। यह मिले तो बड़भागी बनने में देर न लगे और उसका अभाव बना रहे तो मनुष्य कुकर्म करने और दूसरों को अनाचार के निमित्त प्रोत्साहित करने की भूल न करे। अतएव सबसे बड़ा पुण्य परमार्थ ज्ञान चेतना से मानव अंतस् को ज्ञानवान बनाना ही सबसे बड़ा सत्कर्म है। उसी के निमित्त अपनी शक्तियों को नियोजित करनी चाहिए।

यजन करने के लिए हमारे पास बहुत कुछ बचता है। मनुष्य की निर्वाह आवश्यकताऐं बहुत स्वल्प हैं। पशुओं को ढेरों आहार चाहिए। जबकि मनुष्य का पेट दो मुट्ठी अन्न से भर जाता है। दस गज कपड़े की और चार हाथ की चारपाई से निर्वाह हो जाता है। इतना उपार्जन करने के लिए उसके बीस उँगलियों वाले हाथ एवं कल्पनाशील मस्तिष्क हर प्रकार समर्थ है। कुछ घण्टे के परिश्रम से ही उसकी शारीरिक आवश्यकता पूरी हो जाती है और जीवनक्रम का ढर्रा आसानी से लुढ़कने लगता है।

इसके उपरान्त उसकी जो प्रतिभा क्षमता शेष रह जाती है वह इतनी महत्वपूर्ण और इतनी अधिक है कि उसके सहारे अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। गुण,कर्म, स्वभाव, की श्रेष्ठता अर्जित कर इसी काया में देवत्व का उद्भव किया जा सकता है। अपने को पुण्यात्मा, देवात्मा, महात्मा बनाने की इसी जीवन अवधि में पूरी-पूरी गुँजाइश है। प्रसुप्त क्षमताओं को विकसित करके पुरुष पुरुषोत्तम बन सकता है और उसके पास दिव्य क्षमताओं का भण्डार सिद्ध पुरुषों जितना जमा हो सकता है। इस संचय का कहाँ किस निमित्त उपयोग किया जाय यही समझने योग्य प्रश्न है।

लोभ मोह की श्रृंखलाओं में बँधे हुए मायाग्रस्त लोग इसे वासना, तृष्णा, और अहंता की पूर्ति में खर्च करते रहते हैं। परिवार के कुछेक लोगों को ही ‘अपना’ मानकर उन्हीं के निमित्त उपार्जन को निछावर करते रहते हैं, या उत्तराधिकार में छोड़ मरते हैं। सम्पदा के उपयोग का प्रतिफल जैसा भी कुछ होता है उसी के अनुपात से उपार्जन कर्ता एवं हस्तान्तरण कर्ता को मिलता है। मुफ्त में मिला हुआ धन वैभव किसी को पचता नहीं, यह अजीर्ण पैदा करता है और दुर्गुणों के परिपोषण में व्यय होता है। कुपात्रों के हाथ में गया हुआ अनुदान दुष्प्रवृत्तियों को ही बढ़ाता है। और उसका प्रतिफल उस दानी को भी भोगना पड़ता है जिसने अनुपयुक्त व्यक्तियों के हाथों अपने बचत वैभव को हस्तान्तरित किया।

इसलिए प्रश्न कमाने का ही नहीं खर्चने का भी है। बढ़ाई हुई स्वास्थ्य सम्पदा, बुद्धि और प्रतिभा का नियोजन कहाँ किया जाय? इस प्रश्न के उचित समाधान पर भी मनुष्य की बुद्धिमत्ता निर्भर है। यहाँ उसी का समाधान है कि ब्रह्म कर्म में हविष्य बनाकर अपने उपार्जन एवं संचय का यजन करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118