पुरातन भारत ज्ञान और विज्ञान का घनी था

May 1985

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यह मान्यता सही नहीं है कि विज्ञान का अनुसन्धान पिछले कुछ ही शताब्दियों में हुआ है। इससे पूर्व मनुष्य भी अन्य वन जन्तुओं की तरह फिरता रहता था और जैसे-तैसे पेट भरने और तन ढकने के साधन जुटा पाता था। भाषा और शिक्षा का विकास भी कुछ ही समय पूर्व हुआ था। इस प्रतिपादन से आधुनिक शताब्दियाँ ही अपनी बुद्धिमत्ता पर गर्व कर सकती हैं और इससे पिछले लोगों को अधिक से अधिक इतना श्रेय देती हैं कि वे कृषि करना और पशु पालना, आग जलाना तथा कुछ धातुओं के उपकरण बनाना भर जानते थे।

किंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। मनुष्य का भूतकाल इतना दरिद्र नहीं है और न हमारा वर्तमान ही इतना बुद्धिमान और साधन संपन्न है, जिस पर उसे असाधारण गर्व करने का श्रेय दिया जा सके।

हिमयुग आने, समुद्र उफनने जैसे घटनाक्रम कई बार घटित हुए हैं जिनके कारण धरातल की स्थिति बदल गई। महाद्वीपों का स्वरूप कुछ से कुछ हो गया और बुद्धिमान-जनों का अनुपात घट गया। विपन्न प्राकृतिक परिस्थितियाँ जब जब आती रही हैं। उन्हीं में से किसी की विपन्नता को सृष्टि का आरम्भ मान लिया जाना यथार्थता नहीं है।

उदाहरणों में कुछ शताब्दियों और सहस्राब्दियों पूर्व के उदाहरण अभी भी ऐसे विद्यमान हैं जो आधुनिक वैज्ञानिकों को चुनौती देते हैं कि वे अधिक नहीं तो इन निर्माणों का आधार और सिद्धान्त ही बतायें कि यह किस प्रकार सम्भव हो सका।

हमारे देश की ऐतिहासिक कुतुबमीनार के बारे में पता लगाया गया है कि यह पुरातन काल में वेधशाला हेतु बनाई गई थी। यहाँ के एक पुरातत्व वेत्ता के अनुसार यह ग्रह, तारों के अवलोकनार्थ और भूमि सर्वेक्षण में अधिवेशन बिन्दु के कार्य हेतु बनाई गई थी।

भारत के पुरातत्वीय विभाग के श्री जे. बी. श्रीवास्तव जो कि कुतुब के परिरक्षक भी हैं ने जानकारी देते हुए बताया कि गोलाकार मीनार के विभिन्न तलों पर बहुत से रेखा छिद्र हैं जो वास्तव में प्रकाश छिद्र हैं जिनका उपयोग विभिन्न प्रकार की खपिण्डों से प्रकाश ग्रहण करने के लिए होता है।

कुतुब मीनार में (5) पाँच तल हैं जिनमें से प्रत्येक तलों में बहुत से छेद बने हुए हैं उदाहरणार्थ प्रथम तल में (36) छत्तीस, द्वितीय तल में (48) अड़तालीस, इनका उपयोग खपिंडों के विभिन्न प्रकार के प्रचलनों के अध्ययन तथा अवलोकनार्थ किया जाता था, जैसे उनके गति या चाल और कोण का वितरण करेगा।

जब प्रकाश किरणें किसी तारे या गृह से अभिलंब किसी छिद्र पर गिरती हैं तभी विपरीत दीवार पर रेखा छिद्र का सटीक चित्र देखा जा सकता है यह इसी सिद्धान्त का कार्य करता है। उदाहरण के लिए सूर्य के बिन्दु पथ का अध्ययन किया जा सकता है जो इस प्रकार है- पृथ्वी तल पर चार छेद, पांचवें तल पर चार छेद और मुख्य रेखा छिद्र मीनार के शीर्ष पर करते हुए।

कुतुब भूमि सर्वेक्षण में किस प्रकार से सहायक हो सकता है इसे समझाते हुए उन्होंने कहा कि कुतुब सरलतापूर्वक अपनी अवस्थिति के कारण स्थिति हो सकता है क्योंकि यह चुम्बकीय योम्योत्तर के समानान्तर है जो कि 28 डिग्री विषुवत् रेखा के उत्तर में है और इसकी अपेक्षा इसकी अनन्य सम्पत्ति यह है कि प्रतिवर्ष (बाइस जून) को अपनी छाया का निक्षेपण नहीं करता। सर्वेक्षण में एक अधिदेशन बिंदु जैसे अनुमार्गणीय प्रसंग जुड़ा हुआ है। कुतुब का उपयोग “स्थित प्रकाशीय भवन” या मीनार, अभिलंब बिन्दुओं के पता लगाने में और भूमि सर्वेक्षण में “क्रास स्टाफ” के रूप में किया जा सकता है।

ऐसा लोहा जैसा कुतुब मीनार में लगा है अभी तक किसी भी धातु संस्थान में नहीं बना है। ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियों की ऐसी सही माप कर सकना, कुतुब मीनार जैसे साधनों से किस प्रकार सम्भव है। ऐसा निर्माण करने वाले मात्र गड़रिये रहे होंगे यह कहना कहाँ तक उचित है?

मिश्र के पिरामिडों के सम्बन्ध में भी ऐसे ही रहस्य हैं। उस क्षेत्र से दूर-दूर एक वैसे पत्थरों की कोई पहाड़ी नहीं है। फिर उस निर्माण सामग्री को कहा से लाया गया और इतने भारी पत्थरों को किस प्रकार इतनी ऊँचाई तक उठाया गया। इसका अनुमान करने तक में मानवी बुद्धि असमर्थ है।

बिना ऊर्जा व मशीन के भी प्राचीन काल से जनशक्ति के सहारे ही इन स्मारकों का निर्माण हुआ है। गिजा का विशाल पिरामिड ईसा के 2500 वर्ष पूर्व बना था, जिस समय इजिप्ट लोगों को चक्का अथवा घिरनी आदि की तरह जानकारी नहीं थी। यह पिरामिड लगभग 13 एकड़ 5.3 हेक्टेयर) क्षेत्र में बना है तथा इसमें चूना पत्थर व ग्रेनाइट के 23 लाख विशाल खण्ड लगे हैं। जिनका वजन 5000 पौंड (2000 किलो ग्राम से भी अधिक) होता है। इनको ढूंढ़ने, ढोने तथा निर्मित करने को प्रक्रिया के विषय में अब तक विस्मय ही बना हुआ है। मूलतः उनमें कार्यों व जन-शक्ति को सुसंगठित करने की अद्भुत क्षमता का अनुमान लगाया गया है।

ग्रीक व रोमन लोगों ने भी कई स्मारकों का निर्माण किया है, जिससे कुशल संगठन की झलक मिलती है।

ईसा पूर्व 2650 में ग्रीक का एक राजा खूफू था। उसके हाथ में अकथित शक्ति व धन विद्यमान था। इजिप्ट का समस्त जमीन इस राजा द्वारा ही शासित था।

खूफू ने अपने शासन काल में अपने लिए एक मकबरा निर्मित करवाया था। इस निर्माण में लगभग 1 लाख व्यक्ति 20 वर्ष तक संलग्न थे। इस मकबरे में किसी भी अन्य व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था। यह सदा के लिए राजा के मतलब का बना रहा।

पिरामिड का निर्माण लगभग 13 एकड़ जमीन में हुआ है तथा एक तरफ की नींव 755 फीट का रखा गया है। पिरामिड की ऊँचाई 400 फीट है, जो आधुनिक 48 मंजिल ऊँची गगनचुम्बी भवन के सदृश दृष्टिगोचर होता है। अनुमानतः 23 लाख चुना-पत्थर इस निर्माण में लगाये गये जिसका औसत वजन ढाई टन है।

अहमदाबाद और घीसा की हिलती दीवारों और इमारतों के पीछे क्या रहस्य हो सकता है। इसका भी अभी कारण नहीं ढूंढ़ा जा सका।

लोक-लोकान्तरों तक आने-जाने के उपाय क्या हो सकते हैं इस सम्बन्ध में अभी किसी ने सही कल्पना भी नहीं की है। जबकि पुरातन काल के लोग ब्रह्माण्डीय ब्लैक होलों से भली प्रकार परिचित थे और यह जानते थे कि उनमें से कौन-सा छिद्र कब पृथ्वी के निकट किन दिनों आयेगा और कब वापस लौटेगा। गन्तव्य स्थान तक पहुँचने के लिए किन ब्लैक होने का परिवर्तन करना पड़ेगा। यह गणित उन्हें मालूम था और यह भी पता था कि अधिक विकसित छिद्र इस ब्रह्माण्ड में कहां-कहां रहते हैं?

गत कुछ वर्षों में ज्योतिर्विदों ने कई संकेत एकत्रित किये हैं, जिनसे यह पता चलता है कि विस्तृत आकाश में एक नहीं, कई ब्लैक होल हैं। अब यह आभास होने लगा है कि यह तारकीय अनोखापन अपनी आकाश गंगा के क्षेत्र में भी स्थिर हो सकता है।

आकाश गंगा, पृथ्वी से प्रायः 30,000 प्रकाश वर्ष दूर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सेटेलाइट इत्यादि की सहायता से यह पता चला है कि उस स्थल से कई प्रकार के विकिरण निकलते रहते हैं। वैज्ञानिकों के विचार से वहाँ कोई ऐसी वस्तु है जो आकाश गंगा के अन्तरतम क्षेत्र से गैस और धूल खींचती है, जिससे पदार्थ का एक गरम भँवर बन जाता है जो विकिरण छोड़ता है।

‘ब्लैक होलों’ में गुरुत्वाकर्षण इतना तीव्र होता है कि प्रकाश भी उससे बच नहीं सकता है, अतः इस तरह की वस्तु का सीधे निरीक्षण नहीं किया जा सकता। ब्लैक होल गोला भी नहीं होता। ब्लैक होल में हमारे सूर्य की अपेक्षा पाँच गुना द्रव्यमान होता है, जिसका व्यास केवल 20 किलोमीटर होता है।

अमेरिका स्थित वैज्ञानिकों ने खोज की है कि गिरते हुए तारे का भार उसके अणु भागों को तोड़ने के लिये सूर्य की अपेक्षा 1.2 गुना होना चाहिये। जब कोई तारा जिसका भार सौर भार की अपेक्षा तीन गुना होता है, यदि वह उसी के भार के कारण क्षीण होता है तो वह “ब्लैक होल” बन जाता है। अंतर्ग्रही ही यातायात के लिए इन्हीं ब्लैक होलों की सही स्थिति जानने पर उनसे सड़क का काम बिना किसी वाहन के लिया जा सकता है।

अमेरिका के निकट वारमूडा क्षेत्र में मात्र किसी ब्रह्माण्डीय चुम्बकधारा की जानकारी मिली है। किन्तु ब्लैक होलों की शक्ति उससे अनेक गुनी बड़ी है और वह किसी छोटे-मोटे ग्रह के अति निकट कुछ क्षण के लिए भी आ जाय तो वहाँ बहुत कुछ खींच ले जा सकती है या वहां बहुत कुछ उगल सकती हैं। ऐसी दशा में जो लोग इन सड़कों के माध्यम से अन्तर्ग्रही यात्राएँ करते रहे होंगे वे कितने बुद्धिमान रहे होंगे इसका अनुमान लगाया जाय।

उड़न-तश्तरियां का पृथ्वी पर आना और यहाँ को स्थिति जानने तथा संपर्क साधने की बात कपोल कल्पना नहीं है। उनके प्रमाण आये दिन मिलते रहते हैं। प्राचीन काल में ऐसा अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान विज्ञान क्षेत्र में भी चलता रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

एक नहीं ऐसे अगणित प्रमाण हैं जिनसे प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में ज्ञान और विज्ञान की बहुत ऊँची स्थिति थी वे पशुपालक मात्र नहीं थे।


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