जीवन और उसकी सार्थकता

May 1985

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हम में से प्रत्येक के अन्दर एक शक्ति है। काम करने की ही नहीं सोचने की भी भाव तरंगों में आन्दोलित होने की भी। यह चेतना हमारी अपनी नहीं है वरन् किसी अदृश्य से अवतरित होकर जीव सत्ता में प्रवेश हुई है। शरीर संरचना में जन्मदाताओं का पोषक पदार्थों का योगदान हो सकता है पर स्वतन्त्र चेतन इकाई का निर्माण कर सकना इनमें से किसी का भी काम नहीं है।

यह चेतना, अणु परमाणुओं की तरह अनगढ़ रीति से जहाँ-तहाँ बिखरी नहीं पड़ी है वरन् परम चेतना की एक छोटी किन्तु सुनियोजित इकाई है। परब्रह्म का एक महत्वपूर्ण अंश पंचतत्वों के काय-कलेवर में आबद्ध होने के लिए क्यों तैयार हुआ? उसे किस कारण इसके लिए बाधित किया गया? ये महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिन्हें समझा और समझाया जाना चाहिए।

जीवन खेल-खिलवाड़ नहीं है। वह न तो अकारण अनायास मिला है और न ज्यों-त्यों करके गँवा देने के लिए यह बहुमूल्य सम्पदा सौंपी गई है। निरुद्देश्य यहाँ कुछ भी नहीं है। अस्त-व्यस्त भी नहीं। फिर आत्म-सत्ता का संयोग मानव जीवन के साथ होना तो किसी भी प्रकार निष्प्रयोजन नहीं हो सकता। यह दूसरी बात है कि उसे हम खोजें नहीं। जानकर भी अनजान बने रहें।

आत्मा की उत्कृष्टता असंदिग्ध है। वह अपने सृजेता की तरह पवित्र, प्रखर और विभूतिवान है। निश्चय ही उसका लक्ष्य और कर्तृत्व भी महान है। महानता की गरिमा उसके कण-कण में समाविष्ट है। जो उसे अनुभव करते हैं, वे यह भी समझ लेते हैं कि जीवन के उच्चस्तरीय प्रयोजनों के साथ नियोजित करने में ही उसकी सार्थकता है।

निकृष्टता जीवन की स्वाभाविक स्थिति नहीं है। वह अशुभ के द्वारा थोपी अथवा भ्रमवश बटोरी भर गई है। मनुष्य निकृष्ट नहीं हो सकता। ऐसी उसकी प्रकृति भी नहीं है। हृदय की धड़कन की तरह जो आत्मा की पुलकन का भी अनुभव कर सकते हैं उन्हें यह विदित होता रहा है कि उपलब्धियों का सदुपयोग ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में है। इससे कम में चैन पाने और प्रसन्न रहने का अवसर मिलता नहीं। अन्धेरे में भटकने वाले नहीं, प्रकाश का अवलम्बन करने वाले रास्ता पाते ओर लक्ष्य तक पहुँचते हैं।

अध्यात्म तत्वज्ञान में ‘हम’ शब्द सीमित व्यक्तिवाद के निमित्त नहीं होता। उसका तात्पर्य होता है- हम सब। यह इसलिए कि आत्मसत्ता की उत्पत्ति, प्रगति और पूर्णता समस्त परिकर के साथ संयुक्त रहकर ही सम्भव हो सकती है। जीवन समग्र ही नहीं संयुक्त भी है। यह विराट ही परमात्मा है। परमात्मा अर्थात् आत्माओं का समूह समुच्चय। समुद्र छोटी बूंदों का समन्वय है। परमाणुओं की समवेत व्यवस्था ही सृष्टिगत हलचलों के रूप में दिखाई देती है। परमात्म सत्ता में आत्माओं के घटक अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट हो रहे हैं। अतएव वे सजातीय ही नहीं संयुक्त भी है। संयुक्त ही नहीं अविच्छिन्न और एकात्म भी। व्यक्ति और समष्टि का तारतम्य ही जीवन सत्ता और विश्व व्यवस्था है। अस्तु अहं सीमित नहीं हो सकता। स्व को छोटी परिधि में आबद्ध नहीं किया जा सकता। हम है, यदि यह अनुभूति सच्चे रूप में हो सके तो फिर साथ ही यह विश्वास भी जगेगा कि हम सब एक हैं। एक परिवार के सदस्य बनकर रह रहे हैं।

शरीर के अवयवों का पृथक-पृथक नाम रूप तो है पर तथ्यतः वे सभी एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। कटकर अलग से उनमें से कोई घटक अपनी अहंता या सत्ता का परिचय देना चाहेगा तो भूल करेगा। इस उपक्रम से वह अपनी सत्ता ही गँवा बैठेगा। यदि अलग से कुछ रहा भी तो उसमें निकृष्टता और निरर्थकता के अतिरिक्त बचा नहीं रहेगा। एकता की अनुभूति और विशालता की उपलब्धि- इसी में जीवन की सार्थकता है।


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