भय-जन्य संकट प्रायः काल्पनिक होते हैं।

May 1985

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बन्दर का शिकार करने के लिए चीते को कोई बहुत प्रयास नहीं करना पड़ता। जब वह थका मांदा होता है या शिकार पकड़ने की स्थिति में नहीं होता तो चुपचाप उस पेड़ के नीचे जा बैठता है जिस पर बन्दर बैठे हैं।

जो बन्दर नीचे बैठे चीते को देखते हैं वे नजर मिलते ही भयभीत होकर कांपने लगते हैं। फलतः हाथ से टहनी छूट जाती है और धड़ाम से नीचे आ गिरते हैं। गिरने पर भी वे भागने का प्रयत्न नहीं करते हैं। भय उन्हें किंकर्तव्य विमूढ़ बना देता है। स्थिति को चीता भली-भांति समझता है और उस निरीह प्राणी का निश्चिन्तता पूर्वक धीरे-धीरे भोजन करता रहता है। वे जीवित रहते और कष्ट सहते हुए भी चिल्ला तक नहीं पाते। भय के मारे जो बुरा हाल उनका हो रहा होता है उसकी तुलना में मांस नुचाने और प्राण निकलने मात्र से भी कम पड़ता है।

श्रुत कथा है कि यमराज ने मौत को एक हजार आदमी मार लाने के लिए भेजा। वह अपना काम पूरा करके लौटी थी तो मरे हुए चार हजार गिने गये। इस पर यमराज ने क्रुद्ध होकर पूछा तो मौत का उत्तर था कि उसने तो नियत संख्या में ही मारे हैं। शेष तो डर के मारे बेमौत मरकर उसके पीछे लग लिये हैं।

डर अपने आप में एक संकट है। वह पक्षाघात की तरह आक्रमण करता है और अच्छे-खासे आदमी को देखते-देखते अपंग असमर्थ बनाकर रख देता है। शीत की अधिकता से उँगलियाँ सुन्न हो जाती हैं और वे अपना काम करने में सक्षम नहीं रहती। भय भी एक प्रकार का शीत है जिसमें नसों का खून और चिन्तन का प्रवाह जम जाता है।

झाड़ी का भूत बन जाने की किम्वदंतियां कितनों ने ही सुनी हैं। अंधेरे में एकाकी चलने वाले से पीपल के पत्ते खड़खड़ाने पर भूत का उपद्रव दीखता है और झाड़ी का हिलते-डुलते चुड़ैल की हलचलें प्रतीत होती हैं। यह भीतर की आशंका की कल्पना परक परिणति है। ऐसे डर पेट में घुस पड़ने पर मनुष्य की मृत्यु तक कर सकते हैं। कितने ही लोग काल्पनिक भय से संत्रस्त होकर ऐसा अनुभव करते हैं मानो विपत्ति का पहाड़ उन पर टूटा और वे उसके दबाव से पिसकर चूर हुए। वस्तुतः ऐसा कुछ न होने पर भी लोग भयभीत होकर ऐसी परिस्थिति गढ़ लेते हैं जिसे आत्मघाती कहा जा सके। रस्सी को साँप समझकर उसकी चपेट से घबरा जाने वालों का ‘हार्ट फेल’ होते देखा गया है।

ग्रह नक्षत्रों का अनिष्ट ऊपर चढ़ बैठा। किसी ने जादू मन्त्र करके बीमारी या विपत्ति भेजी है। भूतों, देवी-देवताओं का प्रकोप वास दे रहा है। भाग्य चक्र उलटा चल रहा है। किन्हीं ने कुचक्र रचकर बर्बाद करने की योजना हाथ में ली है। मरण निकट आ गया। घाटा होने वाला है। ऐसी-ऐसी कुकल्पनाएँ करते-करते लोग अपनी मनःस्थिति अत्यधिक दीन-दुर्बल बना लेते हैं और फिर छोटी-मोटी सामान्य घटनाओं को ही बज्रपात जैसी विनाशकारी मानकर संतुलन खो बैठते हैं। यह ऐसी विपत्ति है जिससे रक्षा का काई उपाय नहीं है। बहम की दवा लुकमान के पास भी नहीं थी। भयभीत की शंका शंकित के सामने विपत्तियों के जो घटाटोप घुमड़ते रहते हैं उन्हें हटा सकना अपने अतिरिक्त और किसी के बस की बात नहीं है।

भय के पीछे वास्तविकता कम और कुकल्पना अधिक होती है। शंका डायन मनसा भूतों की उक्ति बहुत हद तक सच है। मन की दुर्बलता ही डराती और अनिष्ट की आशंका का भयानक बवंडर खड़ा करती है। इनके पीछे तथ्य प्रायः कम ही होते हैं। दूसरों द्वारा प्रस्तुत की गई गलत सूचनाएँ अक्सर तिल का ताल बना देती हैं। अपनी डरपोक मनोवृत्ति जान-बूझकर भी अनजाने में दी गई गलत सूचनाओं को न केवल सही मान बैठती है वरन् नमक मिर्च मिलाकर उसे राई से पहाड़ बना देती हैं।

डर अक्सर समय की कसौटी पर बेसिर-पैर के निकलते हैं। जो सच में वे भी ऐसे नहीं थे कि साहसपूर्वक मुकाबला करने पर उनसे निपटा नहीं जा सकता था। भय स्वयं उत्पन्न की गई ऐसी विपत्ति है जिसे सरलता पूर्वक निपटा का सकता है या कम से कम हलका तो किया ही जा सकता है।


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