धर्म का तत्व दर्शन हर दृष्टि से श्रेयस्कर

May 1985

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पिछले दिनों धर्म सम्प्रदायों द्वारा जो भूल होती रही है और सामयिक सुधारों के प्रति अनिच्छा है, उसने विचारशील समुदाय को धर्म विरोधी बना दिया है। उस मान्यता के पक्षधर थोड़े रह गये हैं और जो हैं उनकी संख्या भी निरन्तर घटती जा रही है। औचित्य और विवेक की कसौटी ऐसी है जिस पर खोटे सिद्ध होने वाले प्रचलन इस बुद्धिवादी युग में देर तक टिक न सकेंगे। यह बात धर्म संप्रदायों पर भी लागू होती है।

यदि सांप्रदायिक प्रचलनों में सुधार कर लिया जाय उन्हें समय की आवश्यकता के अनुरूप ढाल लिया जाय तो इन दिनों बढ़ती हुई अवज्ञा और अवमानना देर तक न टिकेंगी और धर्म मानव जीवन का प्राण एवं समाज सुव्यवस्था का मेरुदण्ड माना जाने लगेगा। तथ्य सिर पर चढ़कर बोलते हैं और यथार्थता अपना स्थान स्वयं बना लेती है।

धर्म अर्थात् कर्त्तव्य पालन के लिए की गई मानव चिन्तन की घेराबन्दी। शालीनता अपनाने के लिए विवशता उत्पन्न करने वाली आस्था। मानवी गरिमा का पक्षधर दर्शन ही धर्म है। उसे हटा दें तो फिर मनुष्य के पास ऐसा कोई मजबूत आधार नहीं रह जाता जिससे अचिन्त्य चिन्तन और आकृत्य करने से मजबूत रोकथाम की जा सके।

विशुद्ध धर्म को आध्यात्मिक तत्वज्ञान कहना चाहिए। उसके अंतर्गत कई उपयोगी मान्यताओं का समावेश है। ईश्वर का अस्तित्व इसी के अंतर्गत आता है। सर्वव्यापी और न्यायकारी परमेश्वर को अपने इर्द-गिर्द अनुभव करने वाला यह सोचता है कि छिपकर भी कुकर्म नहीं किये जा सकते। उसकी कर्मफल व्यवस्था के अंतर्गत हर हालत में अनीति का कष्टकारक प्रतिफल भोगना पड़ता है। ईश्वर की प्रसन्नता और अनुकम्पा का एक का ही उपाय है चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता-पुण्य और परमार्थ में संलग्नता। इस आधार पर किये गये सत्कर्मों का वह प्रतिफल प्राप्त होता है जिससे लोक और परलोक दोनों ही सुख-शान्तिमय बन सकें।

धर्म की अवहेलना और ईश्वर को न मानना एक ही बात है। इस मनोभूमि में कर्त्तव्यों का पालन आस्थापूर्वक नहीं बन पड़ता। कोई नियामक ही नहीं है तो कर्त्तव्य पालन इच्छा का विषय रह जाता है। इसकी कोई अनिवार्यता नहीं रहतीं। बहुत जनों का बहुत सुख, समाज कल्याण-वैयक्तिक प्रतिष्ठा यह तीनों ही बातों ऐसी हैं जिनमें असत्य भाषण और अनीति आचरण की पूरी गुंजाइश है। राजनीति के क्षेत्र में कूटनीति बरतते हैं। उसमें देश भक्ति के नाम पर छल छद्म बरतने की पूरी गुंजाइश रहती है। गुप्तचर अपने को निरन्तर छिपाते रहते हैं और दूसरे के भेद लेने के लिए वार्त्तालाप में पर्याप्त लोग लपेट बरतते हैं। सेना के किसी प्रामाणिक सदस्य से अगला कार्यक्रम पूछना चाहें तो वह सदा कुछ का कुछ बताएगा। लोक व्यवहार-व्यापार-आदि में भी असत्य का आश्रय लोग धड़ल्ले से लेते हैं। सरकारी दण्ड विधान से बच निकलने के लिए लोगों ने कानूनी और गैर कानूनी हजार तरकीबें ढूंढ़ निकाली हैं इतनी बहाने बाजियों के रहते, मात्र नागरिक कर्त्तव्य के नाम पर मनुष्य को नीति परायण बनाये रहना अति कठिन है। ईश्वर विश्वास और धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था ही वह अवलम्बन है जिसे अपनाने के बाद बहानेबाजी के सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं और मनुष्य घाटे पर घाटा उठाते हुए भी सत्य निष्ठा पर डटा रह सकता है। यदि आधार को उखाड़ दिया जाय तो बहानेबाजी में प्रवीण व्यक्ति अनुचित को उचित सिद्ध करने और अकर्म को कर गुजरने में हिचकिचायेगा नहीं। यह बाँध टूटा तो पानी किसी भी रास्ते कितना ही बिगाड़ करते हुए कहीं भी बह सकता है।

स्वर्ग नरक-पुनर्जन्म-देर सवेर में कर्मफल की अनिवार्यता और सुनिश्चितता की भावना अन्तःकरण में जमाते हैं और उन रस्सियों से बँधने के उपरान्त मनुष्य औचित्य से डगमगाता नहीं। अन्यथा अनास्था अपना लेने के उपरान्त न स्वर्ग का प्रलोभन सामने रहता है और न नरक का भय। किये हुए दुष्कर्मों का प्रतिफल यदि हाथों-हाथ नहीं मिला तो यह सोचा जा सकता है कि कभी भी नहीं मिलेगा। इस आधार पर अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने की हिम्मत दिन-दिन बलिष्ठ होती जाती है। तुरन्त दण्ड न भोगना पड़ा इसका अर्थ यही हो सकता है कि कभी भी नहीं भोगना पड़ेगा। समाज को बहकाया जा सकता है। उसे कुछ का कुछ सिद्ध करके विरोधी से प्रशंसक बनाया जा सकता है। सरकार के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या? सौ अपराधियों पीछे कुछ ही पकड़े जाते हैं और एक दो प्रतिशत ही राज-दण्ड पा लेते हैं। जो पा लेते हैं उनकी शर्म उतर जाती है और पूरे ढीठ हो जाते हैं। जेल जाने पर तो अपराधों की कला में प्रवीण पारंगत लोगों की संगति और शिक्षा के अंतर्गत जो कमी कच्चाई थी उसे भी पूरी कर लेते हैं। इन सब तथ्यों को देखते हुए मनुष्य को हर हालत में नीति निष्ठ बनाये रहने के लिए आस्तिकता अपनाने का एक ही मार्ग रह जाता है। आस्तिकता और धार्मिकता प्रकारान्तर से एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं। धर्म और ईश्वर विश्वास पर टिका है और ईश्वर की सच्ची मान्यता हृदयंगम करने के उपरान्त ही धर्म परायण रहने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं बचता।

यह भ्रम जंजाल साम्प्रदायिक लोगों का बुना हुआ है कि अमुक कर्मकाण्ड कर लेने के उपरान्त पाप कर्मों का दण्ड नहीं भुगतना पड़ता। हमारे सम्प्रदाय वाला ईश्वर अपनी बिरादरी वाले सभी को क्षमा कर देता है और मुफ्त में ही उस स्वर्ग में पहुँचा देता है जिसमें आदि से अन्त तक भोग-विलास एवं ऐशो-आराम ही भरा पड़ा है। सच्चे धर्म का सच्चा ईश्वर कर्मफल की अनिवार्यता समझाता है। उसमें कहीं छूट की गुंजाइश है तो उसका प्रायश्चित के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। समाज को पहुँचाई गई क्षति की पूर्ति करना न्यायानुकूल है। खोदी हुई खाई को जो पाट देता है उसकी ईमानदारी कठिन मार्ग को सरल बना सकती है। पुण्य अथवा पाप का परिणाम तुरन्त न मिले तो परलोक में अथवा अगले जन्म में मिलने का विश्वास मनुष्य को कुमार्गगामी होने से बहुत कुछ रोकता है।

धर्म धारणा को वैयक्तिक चरित्र निष्ठा और सामाजिक सुव्यवस्था का राजमार्ग समझा जाना चाहिए। इसमें अन्ध-विश्वास जैसी कोई बात नहीं है। फिर हर बात की अच्छाई-बुराई उसके प्रतिफल को देखकर ही आँकी जाती है। जिस कसौटी पर विकृतियों से भरी हुई वर्तमान साम्प्रदायिकता हेय ठहरती है और उसकी अवज्ञा अवमानना का औचित्य स्वीकार किया है। उसी कसौटी पर ईश्वर, कर्मफल, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म जैसी मान्यताओं वाला धर्म अपनी उपयोगी प्रतिक्रियाओं के कारण श्रेयस्कर माना जायेगा।

एक क्षण के लिए यदि ईश्वरवादी धर्म को प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर शत-प्रतिशत सही सिद्ध न किया जा सके तो भी उसकी उपयोगी प्रतिक्रियाओं के कारण उसे प्रत्यक्ष सत्य ही माना जायेगा और धर्म की उपयोगिता से किसी भी प्रकार इनकार न किया जायेगा। धर्मवादी नीतिवान आदर्शों पर अवलम्बित है तो उसे हर दृष्टि से प्रशंसनीय और अपनाने योग्य ही कहा जायेगा।


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