हठ योग लाभदायक भी हानिकारक भी

February 1984

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हठ ऐसे आग्रह को कहते हैं जिसमें अपनी बात मनवाने के लिए जिद ठानी गई हो। समझौते या परिवर्तन की गुंजाइश न रहने दी गई हो। हठयोग शब्द से तात्पर्य ऐसे ही साधनों से है जिस में प्रवाह, प्रचलन, अभ्यास की परवाह न करते हुए, जो चाहा है वही कर गुजरने का निश्चय किया गया है। यह दबाव अपने ही शरीर पर, मन पर डालने का हठयोगी प्रयत्न करते हैं।

सामान्यतया यही प्रतीत होता है कि प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करने से विग्रह एवं संकट खड़ा होगा। ऐसा होता भी है। पर जब इसे वैज्ञानिक विधि के साथ-साथ सम्पन्न किया जाता है तो हानि से बचते हुए अतिरिक्त लाभ उठाने का अवसर भी मिलता है।

कई हठयोगी दिन-रात खड़े रहकर लम्बी आयु गुजार देते हैं। वे एक झूले के सहारे अपनी छाती टिकाकर झपकियाँ लेते और नींद की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं। बाबा मौजी साईं का स्वर्गवास 85 वर्ष की आयु में हुआ। कहा जाता है कि उनने 18 वर्ष की आयु में खड़े रहने का व्रत लिया था और उसे आजीवन निभाया।

एक हाथ ऊँचा उठाकर रहने वाले हठयोगी पिछले दिनों तक बहुत जगह पाये जाते थे। उनका जो हाथ ऊँचा उठा रहता था वह एक प्रकार से सूख ही जाता था। यों उसमें रक्त संचार किसी प्रकार थोड़ी मात्रा में चलता रहता था। इस विधा में उन्हें क्या आध्यात्मिक लाभ मिलता था, यह तो विवादास्पद है लेकिन अकारण की गयी ऐसी तितिक्षा के पीछे यदि वास्तव में उद्देश्य छिपा हो तो उसके सिद्धि रूपी परिणाम देखे जा सकते हैं।

सर्दी ओर गर्मी के महीने के सम्बन्ध में यही बात है। ठंड के दिनों में ठण्डे पानी में नहाने की कई लोग साधना करते हैं। मार्ग शीर्ष स्नान, माघ स्नान के व्रतधारी गंगा में प्रभातकाल की तेज हवा और ठण्डक में महीने भर तक स्नान करते हैं। इसी प्रकार गर्मी के दिनों में चारों ओर आग जलाकर धूनी तापने वाले लोगों के सम्बन्ध में भी यही बात है। तेज गर्मी और कड़ाके की सर्दी में भी बिना वस्त्र गुजारा करने वाले साधु सन्त अभी भी देखे जाते हैं। कुछ दिन पहले तक गंगोत्री क्षेत्र में कई महात्मा बर्फ जमने की सर्दी के दिनों में वहाँ निर्वस्त्र निवास करते थे। उत्तरकाशी के विष्णु स्वामी का कुछ दिन पूर्व ही देहावसान हुआ है जो गंगा के ठण्डे जल में प्रातःकाल से लेकर तीसरे प्रहर तक खड़े-खड़े जप ध्यान करते थे।

ब्रह्मचर्य को भी हठयोग का एक अंग माना गया है। यौवन का उभार आने पर हर नर मादा में प्रजनन की उमंग उठती है और यौनाचार के लिए मन चलता है। उस उभार को हठपूर्वक रोक देना, शरीर को उससे वंचित रखना और मन को वैसा न सोचने के लिए बाधित करना, मनोनिग्रह की ही एक प्रक्रिया है।

व्रत उपवासों के सम्बन्ध में भी यही बात है। जब पेट में भूख लगती है और खाने की इच्छा बेचैन करती है तो भी संकल्पपूर्वक उसका दमन करना, निराहार रहना ऐसा कृत्य है जिसे प्रकृति प्रेरणा का प्रतिरोध कहा जा सकता है।

इन उभारों को रोक सकना प्रबल मनोबल के सहारे ही सम्पन्न हो सकता है। अन्यथा अभावग्रस्त स्थिति में भी कुछ न कुछ उपाय खोजा और साधन जुटाने का प्रयास किया जा सकता है।

संकल्प बल का शरीर पर कितना अधिक आधिपत्य हो सकता है, इसके कितने ही विलक्षण उदाहरण कई अभ्यासियों द्वारा प्रस्तुत किये जाते रहते हैं। माँस-पेशियों को अकड़ाकर इतनी कड़ी कर दिया जाता है कि उन्हें धातु पात्र की तरह बजाया जा सके। नाक, कान जैसे कोमल अवयवों को इतना कठोर कर देना, जिससे उन्हें किसी प्रकार भी झुकाया न जा सके, ऐसा ही अभ्यास है जिसे आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। सीने से सटाकर लोहे की छड़ मोड़ देने का करतब प्रोफेसर राममूर्ति दिखाया करते थे। ताराबाई अपने बालों के जूड़े से अपने शरीर जितने वजन का पत्थर उठा लिया करती थीं। मैसूर के हठयोगी रामानन्द अपनी उँगलियों से कैंची का काम लेते थे। कपड़े और टीन की चद्दरें इस प्रकार काट देते थे मानों उनकी उँगलियाँ इसी प्रयोजन के लिए बनी हों।

शरीर के किसी अंग का तापमान असाधारण रूप से गिरा देना, हृदय की धड़कन बन्द या न्यूनतम कर देना ऐसे ही चमत्कार हैं जिनके प्रदर्शनों की चर्चा आये दिन होती रहती है। उनमें कोई जादू भी नहीं होता। प्रयोक्ता इसमें विशुद्ध रूप से बढ़े हुए मनोबल का प्रयोग परिचय देते रहते हैं। जमीन में गड्ढा खोदकर उसमें हफ्तों तक बन्द बैठे रहने वाले, समाधि लगाने वाले इसे अपनी इच्छा शक्ति का चमत्कार कहते हैं, जिसके आधार पर अवयवों को उनकी स्वाभाविक एवं सामान्य क्षमता से भिन्न स्थिति तक जा पहुँचने के लिए सधाया जाता है।

नेति, धोति, वस्ति, वज्रौली, कपाल भाति आदि क्रियाओं में अवयवों से उनके सामान्य क्रियाकलाप से भिन्न प्रकार के कार्य कराये जाते हैं। उनके प्रथम प्रयासों में अड़चन प्रतीत होना, कष्ट अनुभव होना स्वाभाविक है, पर जब मनोबल पूर्वक उन्हें अभ्यास के लिए धीरे-धीरे सधाया जाता है तो वे भी सरकस के जानवरों की तरह ऐसे कृत्य करने लगते हैं जो उनकी प्रकृति या परम्परा में सम्मिलित नहीं है।

मानवी काया का ढर्रा एक क्रम के अनुसार घूमता है। अवयवों की सामर्थ्य भी एक सीमा तक है। पर यह सब अभ्यास क्रम पर निर्भर है। इसे पत्थर की लकीर नहीं समझा जाना चाहिए। बदलने का निश्चय कर लिया जाय और उसके लिए क्रम व्यवस्था का सुनियोजित मार्ग अपनाया जाय तो वैसा परिवर्तन कठिन होते हुए भी असम्भव नहीं है।

उत्तरी ध्रुव क्षेत्र की कड़ाके की ठण्ड में हिरन, कुत्ते, भालू रहते हैं। ऐस्किमो जाति के मनुष्यों ने भी उसी वातावरण में रहने के लिए अपने को अभ्यस्त कर लिया है। कितने ही वनवासी कबीले सघन क्षेत्रों में इस प्रकार निर्वाह करते हैं मानों अभी भी आदिम युग बना हुआ हो।

स्वभाव को नाजुक बना लेने पर वह छुईमुई जैसी भी बन सकती है कि ठण्डा पानी पीते ही छींके आने लगे। इसके विपरीत गड़रिया लुहारों की तरह एक गाड़ी में समूची गृहस्थी लेकर खानाबदोशों की तरह भी जिन्दगी बिताई जा सकती है। सभी मौसमों में खुले में रहकर ऋतु प्रभावों को सहन करते रहने योग्य शरीर एवं स्वभाव ढल सकता है।

भूमिगत समाधि प्रदर्शन में धड़कन बन्द कर लेना शरीर को निःचेष्ट होना या गहन तन्द्रागस्त होना आवश्यक नहीं। यह कार्य अमुक वातावरण में रहने का अभ्यास कर लेने पर भी हो सकता है। जिस गड्ढे में समाधि लगाई जाती है उसमें इतनी खाली जगह रह जाती है। जिसमें साँस लेते रहने पर निर्धारित अवधि तक जिया जा सके। फिर जमीन भी सर्वथा ठोस नहीं होती उसमें हवा रहती है और पोल में आक्सीजन देते रहने का क्रम किसी न किसी रूप में बना रहता है। यदि ऐसा न होता तो छोटे बिलों में दर्जनों चूहे किस प्रकार घुसे रहते हैं। साँप कैसे जीवित रहते हैं?

छोड़ी हुई साँस में भी इतनी आक्सीजन बनी रहती है जिसमें फिर भी अनेक बार साँस ली जाती रहे। ऐसा न होता तो मोटे रुई के लिहाफ ओढ़कर चारों ओर से लपेटकर उसी के भीतर रात भर साँस लेते हुए लोग कैसे सोया करते। प्रश्न या आश्चर्य हवा का रहता है। बिना पानी पिये तो ठण्डे वातावरण में बहुत समय तक रहा जा सकता है। शीत ऋतु में अजगर भालू आदि गहरी नींद में सो जाते हैं और जब मौसम अनुकूल होता है तब बाहर निकलते हैं। इस बीच में वे खाते-पीते कुछ भी नहीं। संचित चर्बी के सहारे मजे में वह अवधि कट जाती है। ऊँट एकबार ही इतना चारा पानी पेट में जमाकर लेता है जिसके सहारे हफ्तों चलकर लम्बे रेगिस्तान पार किये जा सकें। प्रयत्न करने पर मनुष्य आसानी से अपनी प्रकृति वैसी ढाल सकता है।

भूमिगत समाधि में सबसे बड़ी बात है मानसिक संतुलन बनाये रहने की। घबरा जाने वाला व्यक्ति मर सकता है। किन्तु चारों ओर बन्द रहने पर भी जो घबराते नहीं ऐसे भी लोग हो सकते हैं। राकेटों में अन्तरिक्षीय यात्रा पर निकलने वालों को ऐसे वातावरण में रहने का अभ्यास करना होता है। वे जिस कैप्सूल में बन्द रहते हैं उससे सिर निकालने की गुंजाइश नहीं रहती। यात्री पूरी तरह मशीनों से और खास किस्म के कपड़ों से जकड़ा होता है। मलमूत्र विसर्जन भी उसी में करना होता है और सो लेने का काम भी बैठे-बैठे ही करना होता है। हर किसी के लिए यह कठिन है पर जो अभ्यास करले उनके लिए यह सरल प्रतीत होता है। पनडुब्बियों में लोग महीनों गुजार लेते हैं। युद्ध टैंकों में चालक को भीतर ही बैठना होता है और वह शत्रु की गोलियों या बमों से प्रभावित न हों ऐसे अभेद्य बक्से में बन्द रहता है। भूमिगत समाधि का प्रदर्शन करने वालों को इससे अधिक कठिन परिस्थितियों में नहीं रहना पड़ता। अन्तरिक्ष राकेट की ऊपरी परत गरम हो जाती है पर गड्ढे में तो वातावरण पूरी तरह ठण्डा रहता है।

गान्धी मेडिकल कालेज हैदराबाद के प्राध्यापक डा. शंकर राव का एक लेख ‘साइन्स टुडे’ पत्रिका में छपा है। उसमें बम्बई के आर. जे. वकील द्वारा इस सन्दर्भ की गई खोजों का उल्लेख है। श्री वकील ने किसी रामदास नामक प्रदर्शन कर्त्ता की स्थिति के सम्बन्ध में परीक्षणात्मक विवरण छपा है। उनने निष्कर्ष निकाला है कि उतने समय के लिए जितनी हवा आवश्यक है उतनी उस गड्ढे के घेरे में मौजूद थी।

उपरोक्त लेख में यह दर्शाया गया है कि कोई व्यक्ति बन्द जगह में रहने का अभ्यास करले तो समाधि जैसे गढ्ढों में रह सकता है। बम्बई के निकट लोनावला स्थित योगाश्रम में डा. पी. करमवेलकर ने यह सिद्ध कर दिया कि समाधि प्रदर्शन एक सामान्य-सा कौतुक है। उनने इसके लिए दो ऐसे व्यक्ति तैयार किये जिनका योगाभ्यास से दूर का भी सम्बन्ध नहीं था। वे गड्ढे में बैठने की कला में अभ्यस्त हो गये। 18 घण्टे गढ़े रहे और नियत अवधि के उपरान्त हँसते हुए बाहर निकल आये। इस प्रक्रिया का प्रदर्शन करने वालों को अभ्यास कौशल भर होता है। उनमें दैवी शक्ति जैसी कोई बात नहीं होती।

राजयोग विचार प्रधान है। उसमें ध्यान धारणा की प्रधानता है। मनन, चिन्तन पर जोर दिया गया है। ज्ञान और भक्ति उसी क्षेत्र में आते हैं। कर्मयोग के लिए जिस बलिष्ठता और सहन क्षमता की आवश्यकता है उसे उपार्जित करने के लिए तप तितीक्षा का अवलम्बन लेना पड़ता है यह हठयोग है। इसे अनुभवी विशेषज्ञों के संरक्षण में अपनी सहन शक्ति के साथ तालमेल बिठाते हुए ही किया जाना चाहिए। मनमर्जी से कुछ भी हठयोग ठान लेना लाभ के स्थान पर हानिकारक सिद्ध हो सकता है।


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