मनुष्य देवता और दैत्य

February 1984

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पौराणिक मिथकों में मनुष्य की ही तरह देवताओं और दैत्यों का भी वर्णन है। मनुष्य भूलोक में, देवता स्वर्ग लोक में और दैत्य पाताल में रहते थे। यह तीनों क्या थे? कहाँ रहते थे? किस आकृति प्रकृति के थे, इस सम्बन्ध में जो वर्णन उपलब्ध है उनमें जितनी कल्पना का मिश्रण और कितना यथार्थता का समावेश है यह कहना कठिन है। फिर भी सामान्यतया यह सोचा जा सकता है कि मनुष्य प्राचीनकाल में भी ऐसी ही आकृति प्रकृति के रहे होंगे जैसे आज हैं। साधन सुविधाओं के अभाव में वन्य क्षेत्र अधिक और जनसंख्या कम होने की परिस्थिति में मनुष्यों को आज की तुलना में अधिक कष्टसाध्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा तो भी वे निर्वाह की स्वाभाविक आवश्यकताएँ पूरी कर लेते थे और प्रकृति से संघर्षरत रहने के कारण बलिष्ठ भी रहते थे।

सुविधाएँ बढ़ने पर छीन झपट चल पड़ती है किन्तु असुविधाग्रस्तों में परस्पर अधिक सहयोग सद्भाव रहता है। इस आधार पर प्राचीनकाल के मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक पुरुषार्थी सन्तोषी और सहयोगी प्रकृति के रहे होंगे यह कहा जा सकता है।

देवताओं की स्थिति का बुद्धि संगत स्वरूप सोचा जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि अधिक सुयोग्य, समर्थ, बुद्धिमान एवं उदार चेतना प्रकृति वाले देव श्रेणी में गिने जाते रहे होंगे। हो सकता है कि प्रकृति की विशिष्ट शक्तियों को और भावना क्षेत्र को सज्जनता को देवत्व का प्रतिनिधि माना गया होगा। उनके साथ जुड़ी हुई विशेषताओं विभूतियों का अलंकारिक रूप में चित्रित किया गया होगा। देवताओं के वाहन, आयुध, ऐसे ही रहस्यों को अपने में छिपाये हुए हैं। उनकी अनेक भुजाओं, मुखों, नेत्रों का अंकन भी सम्भवतः इसी आधार पर हुआ है। देने वालों को देव कहा जाना स्वाभाविक है। जिन शक्तियों द्वारा सर्वसाधारण का हित साधन होता है उन्हें देव रूप में प्रतिष्ठा एवं मान्यता देना युक्ति संगत भी है।

दैत्य का भावार्थ है- विशाल, समर्थ एवं उद्धत। दैत्य, दानव, असुर यों एक ही अर्थ में लिये जाते हैं पर वे सब हैं वस्तुतः अलग-अलग। सुर समुदाय के अतिरिक्त अन्यान्यों को असुर कहा गया है। मध्य एशिया में बसने वाली एक जाति भी थी- अहुर। जिसे असुर शब्द का अपभ्रंश कह सकते हैं। उन क्षेत्रों में जीवनोपयोगी सामग्री का अभाव रहने से वे दूर-दूर तक आक्रामक धावे बोलते थे। क्रूर प्रकृति के कारण उन्हें यह नाम दिया गया होगा अथवा परम्परागत यही नाम उनके हिस्से में आया होगा। दानव शब्द भी क्रूरता का बोधक है।

‘दैत्य’ शब्द आकार एवं वैभव का बोधक है। अंग्रेजी में उसे ‘जॉइन्ट’ कहा जाता है। रावण, कुम्भकरण, सहस्रबाहु आदि के शरीर सामान्यों की अपेक्षा अधिक बड़े माने जाते हैं। उनकी बलिष्ठता भी उसी अनुपात से बड़ी-चढ़ी होनी चाहिए।

प्रागैतिहासिक काल में, महाराज महासरीसृप, महागरुड़ जैसे विशालकाय प्राणियों का इस धरती पर आधिपत्य था। इन्हीं दिनों मनुष्य स्तर के प्राणियों की उत्पत्ति हुई होगी तो वे नर वानर भी विशालकाय ही रहे होंगे। अब भी साधारण वनमानुषों की तुलना में गोरिल्ला चिम्पाजी नस्ल के बन्दर नहीं अधिक बड़े भारी और बलिष्ठ होते हैं। हिम मानवों के देखे जाने, पाये जाने की चर्चा अभी भी होती रहती है। उन्हें मनुष्य की तुलना में दूनी लम्बाई चौड़ाई का कहा जाता है। पैरों के निशान भी उसी अनुपात के पाये गये हैं।

ऐतिहासिक खोजों में विशालकाय मनुष्यों के अस्तित्व का पता चला है। फ्राँसीसी पुरातत्व वेत्ता लुई बरबलिटा ने अपनी खोजों में किसी समय के विशालकाय मनुष्यों के अवशेष प्राप्त किये हैं। उनकी कृतियों के आधार पर ड्यौढ़े से लेकर दूने तक आकार का उन्हें बताया गया है। सीरिया के सासनी क्षेत्र की खुदाई में चुम्बक पत्थर के बचे आठ पौण्ड भारी हथियार मिले हैं। उत्तरी मोरक्को में भी प्रायः इतने ही भारी और बड़े आकार के शस्त्र मिले है। वे ऐसे हैं जिन्हें 12 फुट से कम ऊँचाई वाले मनुष्य प्रयुक्त नहीं कर सकता।

लेबनान में एक दो लाख पौण्ड भारी विशेष पत्थर मिला है जिस पर कई ओर से बढ़िया नक्काशी की गई है। यह कार्य दैत्याकार मानवों का ही हो सकता है। इस ऐतिहासिक पत्थर का नाम “हज्रएल गुल्ले” रखा गया है। उसे देखने संसार भर के लोग पहुँचते हैं।

इटली और आस्ट्रेलिया के कई दुर्गम शिखरों पर ऐसी ही कलाकृतियाँ पाई गई हैं। इतने ऊँचे पहुँच कर उतने कठिन काम कर सकना विशालकाय मनुष्यों के लिए ही सम्भव हो सकता है मिश्र के पिरामिडों में लगे पत्थर इतने बजनी हैं और इतनी ऊँचाई पर अवस्थित हैं कि उन्हें इस प्रकार जोड़ना वर्तमान आकृति के मनुष्यों के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। दक्षिण अमेरिका में पाये गये पिरामिड खण्डहर इनसे भी अधिक आश्चर्यजनक हैं।

प्राणि विज्ञान के शोधकर्ताओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो कहता है कि प्राणि विकास की एक मंजिल ऐसी भी रही है जिसमें मनुष्यों और पशुओं के बीच की विभाजन रेखा पूरी तरह नहीं बन पाई थी और उनके मध्य यौनाचार चलता था। उस संयोग से शंकर प्राणि भी उत्पन्न होते थे और उनमें दोनों के गुण समन्वित रहते थे। मनुष्य की बुद्धिमता और पशुओं की बलिष्ठता के संयोग से उत्पन्न प्राणि दैत्याकार थे।

प्लेटो ने अपने ग्रन्थ ‘सिम्पोजियम’ में मनुष्य और पशुओं के संयोग से दैत्याकार प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। “टैटीक्स एनेल्स” में भी ऐसे ही विवरणों का उल्लेख है जिनमें मनुष्यों और पशुओं के बीच चलने वाला यौनाचार का विवरण मिलता है। इतिहासकार “हैरोयोतस” ने अपने विवरणों में ऐसे ही प्रचलनों का विवरण दिया है। बगदाद और लन्दन के संग्रहालयों में ऐसी कई पाषाण प्रतिमाएँ हैं जिनसे उन दिनों ऐसा प्रचलन रहने की साक्षी मिलती है।

सुमेर सभ्यता के पुराण कथानकों में निपुर क्षेत्र के निवासी ऐनेलिल नामक देव समुदाय में निनलिल नामक मानवेतर मादाओं के साथ संयोग करके अर्ध पशु और अर्ध मनुष्य स्तर की प्रजा उत्पन्न करने का वर्णन है। भारतीय पुराणमिथक इससे भी एक कदम आगे है। उनमें हनुमान पुत्र मकरध्वज, मत्स्य कन्धा आदि का वर्णन है। नृसिंह, हयग्रीव जैसे अवतारों की आकृति अर्ध पशु और अर्ध मनुष्य जैसी दर्शाई गई है। गणेश को भी ऐसा ही चित्रित किया गया है। भीम का एक ऐसा ही पुत्र घटोत्कच भी था जो किसी अविकसित वर्ग की नारी से जन्मा था और सामान्यजनों की अपेक्षा कहीं अधिक बलिष्ठ था।

इतिहासकार पाताल अमेरिका को कहते हैं और वहाँ किसी समय मय सभ्यता का चरमोत्कर्ष मानते हैं। महाभारत में ‘मय’ दानव पारकर है, जो सूर्योपासक था। ज्योतिर्विज्ञान का उसे आविष्कर्ता एवं मूर्धन्य भी माना है। अहिरावण पातालपुरी का ही एक शासक था। भौतिक विज्ञान और बलिष्ठता सम्पन्नता की दृष्टि से बढ़े-चढ़े होने के कारण यह लोग दैत्य कहे जाते थे।

पुरातत्व विशेषज्ञ हैविट्ट, मैकेन्जी, थेड आदि का कथन है कि मय सभ्यता के दिनों में भारतीय सभ्यता के अनुरूप ही मान्यताएँ प्रचलित थीं। नाग जाति के लोग रहते थे अतएव उस क्षेत्र को नागलोक भी कहा जाता था। नागलोक पाताल का ही दूसरा नाम है। मय शासकों को दैत्य कहा जाता था। वे भूलोक में भी आते थे। मायावी कहलाते थे। जल से थल और थल से जल का भ्रम उत्पन्न करने वाला भवन उन्होंने द्रौपदी के मनोरंजन हेतु बनाया था। उसी से भ्रमित होकर दुर्योधन को उपहासास्पद बनना पड़ा था।

देवता और दैत्य यों उपाख्यानों में मनुष्य से भिन्न प्रकार के प्राणी माने गये हैं, पर वास्तविकता यह है कि तीनों ही वर्ग प्रकृति से तो भिन्न होते ही हैं पर तीनों की आकृति एक जैसी ही होती है।


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