नेतृत्व वेत्ता राबर्ट रिएज और जान होल्डेन की संयुक्त खोजों और निष्कर्षों के अनुसार प्रागैतिहासिक काल में आस्ट्रेलिया-दक्षिण एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के इन दिनों अलग-अलग दीखने वाले महाद्वीप कभी एक थे। उस विशाल भूखण्ड की यात्रा बिना किसी समुद्र के बीच में बाधा उत्पन्न किये पैदल भी हो सकती थी। पृथ्वी एक विशाल महाद्वीप थी। कटाव और बिखराव तो बहुत बाद में पैदा हुआ।
एक समुद्र एक धरातल की स्थिति पृथ्वी के जन्म के बाद 50 लाख वर्ष तक यथावत बनी रही। बिखराव का सिलसिला चला तो वे कटकर दो हो गये। एशिया को उत्तरी और अमेरिका को दक्षिणी खण्ड माना गया है। यह स्थिति भी अधिक दिन न रही। विभाजन चलता रहा और स्थिति यहाँ तक आ पहुँचती जैसी कि इन दिनों अनेक खण्ड उपखण्डों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। समुद्रों का विभाजन भी इसी प्रकार चलता रहा। वे भी इतने टुकड़ों में बँट गये जितने कि इन दिनों दीख पड़ते हैं।
ऐसा क्यों होता है? इसका कारण समझने के लिए पृथ्वी की संरचना पर ध्यान देना होगा। आरम्भ में वह आग के गोले की तरह गरम थी। धीरे-धीरे ठण्डी होने लगी। ऊपर की परत पर मिट्टी जमी, पानी बरसा समुद्र बने और वनस्पतियों तथा प्राणियों का उद्भव आरम्भ हुआ। किन्तु भीतरी गर्भ में अभी भी वह पिघले हुए गरम लोहे जैसी स्थिति बनी हुई है। उसके ऊपर यह ठण्डी परत तैरती रहती है जिससे हम उपयोगी पदार्थ खोद निकालते हैं। जिसकी उर्वरता पर निर्वाह चलाते हैं।
स्थिति को और भी अच्छी तरह समझने के लिए ऊँचे पहाड़ों की उपमा दी जा सकती है। उन पर चिर पुरातन काल से बर्फ की एक ठोस परत जमी है। इसके बाद हर वर्ष सर्दी के मौसम में नई बर्फ जमती है। वह मुलायम होती है। गर्मी आने पर पिघलने लगती है और उपकरण उसकी चट्टानें कटने और फिसलने लगती हैं। ठीक ऐसा ही धरती के मध्य में प्रायः 80 किलोमीटर मोटी गरम परत के बारे में समझा जा सकता है। उसके ऊपर ठण्डी मिट्टी की परत तैरती रहती है। क्रमशः गरम भाग ठण्डा होता और सिकुड़ जाता है। इस सिकुड़न के फलस्वरूप ठंडी परत फटने और बिखरने लगती है। जिधर भी उसे ढलान मिलती है उसी ओर खिसक जाती है। वजन का भारीपन भी हल्की दिशा में धकेलता रहता है।
इस ठेलम पेल में कई बार ऊपरी परत के टुकड़े आपस में टकराने भी लगते हैं। दबाव जिधर का अधिक होता है उधर का मलबा दूसरे कोमल कमजोर पक्ष को दबोच लेता है। दबाव अधिक और पोल गुंजाइश कम रहने ही स्थिति में कूबड़ उभर आता है। इन्हीं को पर्वत शृंखलाएँ कहते हैं। हिमालय जैसे पर्वतों को ऐसे ही कूबड़ समझा जा सकता है जो एक भूखण्ड के दूसरे पर चढ़ बैठने के कारण उभरे हैं।
भूखण्डों की भगदड़ और फिसलने अभी भी समाप्त नहीं हुई है। ऐसे आधार बन रहे हैं जिनसे प्रतीत होता है कि यह विभाजन अभी और होगा और जितना महाद्वीप भूखण्ड इन दिनों दृष्टिगोचर होते हैं। उसकी तुलना में अधिक बनेंगे। वैज्ञानिकों के एक वर्ग का कथन है कि अगले दिनों न केवल बिखराव की वरन् एकीकरण की भी सम्भावना है। उत्तर अफ्रीका का भूखण्ड भूमध्य सागर को दौड़ता हुआ योरोप से जा मिलेगा। तब भूमध्य सागर एक छोटी झील जैसा रह जायेगा। इसी प्रकार यह भी सम्भावना है कि आस्ट्रेलिया, इन्डोनेशिया आदि चीन के साथ जुड़कर एक नया विशाल महाद्वीप विनिर्मित करें। तब अमेरिका उतना लम्बा न रहेगा जैसा कि अब नक्शे में दीखता है। उस परिवर्तन के प्रभाव से उसका भू-भाग गोला या आयताकार बन जायेगा।
बढ़ने और सिकुड़ने की प्रकृति प्रक्रिया ने अपनी धरती को भी टूटने और सिमटने के लिए बाधित कर दिया है।