विवाह और प्रजनन की नई समीक्षा

February 1984

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गृहस्थ व्यवस्था में विवाह, यौनाचार और प्रजनन को प्रमुखता मिलती रही है। यों दाम्पत्य-जीवन का वास्तविक उद्देश्य गंगा-यमुना जैसी थोड़ी अन्तर वाली धाराओं को एक में मिलाकर एक आत्म सम्पदा सम्पन्न संगम बनाना था। पर वह आदर्श व्यवहार में कम ही उतर सका।

इन दिनों विवाह की अभ्यस्त एवं पुरातन परिपाटी पर नये सिरे से विश्लेषण आरम्भ हुआ है। उसकी परिणतियों पर नये दृष्टिकोण से सोचा जा रहा है। इस सन्दर्भ में सबसे अधिक प्रमुखता प्रजनन सम्बन्धी विवाह को मिली है। कभी सन्तानोत्पादन ही दाम्पत्ति जीवन की सफलता का चिन्ह माना जाता था। पर अब बात वैसी नहीं रही। सोचा जा रहा है कि प्रजननजन्य असुविधाओं और समस्याओं के रहते विवाह की उपयोगिता भी है कि नहीं।

प्रजनन की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह पिछले दिनों अर्थ शास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने लगाया है। इस सम्बन्ध में शुरुआत हुए थोड़ा ही समय हुआ है, पर बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची।

माल्थस का ग्रन्थ “ऐसे आन दि प्रिंसिपल आफ पापुलेशन” सन् 1789 में प्रकाशित हुआ। उससे संसार भर के विचारशील वर्ग को झकझोर कर रख दिया। ग्रन्थ का प्रतिपादन विषय था बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण गरीबी समेत अनेकानेक समस्याओं का उद्भव। उनने तथ्य, प्रमाण और आँकड़े प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि नियन्त्रण न करने पर जनसंख्या इतनी तेजी से बढ़ेगी कि उसके लिए खाद्य, शिक्षा, वाहन, चिकित्सा जैसे आरम्भिक साधन तक न जुटाये जा सकेंगे। इसलिए जैसे भी हो समय रहते जनसंख्या वृद्धि की रोकथाम की जानी चाहिए।

आरम्भ में इस प्रतिपादन का धार्मिक क्षेत्रों में विशेष रूप से विरोध हुआ। लेखक को धर्मद्रोही ठहराया गया किन्तु विचारशीलों ने उस पर गम्भीरता से ध्यान दिया और समस्या को वास्तविक बताया।

प्रतिपादन ने जोर पकड़ा तो उसके कार्यान्वयन के लिए भी कदम बढ़ा। डा. चार्ल्स ड्राईस डेल तथा चार्ल्स बाडलाफ ने मिलकर सं. 1861 में सन्तति निग्रह का प्रचार करने एवं उसके उपाय बताने के लिए एक संस्था स्थापित की और मन्तव्य को व्यावहारिक रूप देने के लिए ‘एप्रीवोमित्स बुक’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसके लेखक थे रिचर्ड कारलाइल। उनने ने केवल आर्थिक समस्याओं की अभिवृद्धि का कारण अनियन्त्रित प्रजनन को बताया वरन् नारी की दुर्दशा, अस्वस्थता, पराधीनता के लिए भी इस दबाव को दोषी ठहराया। उनका कथन है कि यह अनावश्यक भार लादकर नारी का नर द्वारा उत्पीड़न किया जा रहा है। इस पुस्तक को देखते-देखते लाखों प्रतियाँ बिक गईं। उसका प्रभाव शिक्षित नारियों पर गहरा पड़ा। उनने प्रजनन भार से अपने को बचाने के लिए असहयोग और आना-कानी का रुख अपनाना आरम्भ कर दिया।

योरोप की औद्योगिक क्रान्ति से इस आन्दोलन को और भी अधिक बल मिला। 17 वीं शताब्दी में तेजी से कल-कारखाने खुले। कितने ही नये उद्योग व्यवसाय आरम्भ हुए। उनमें श्रमिकों की बढ़ी हुई आवश्यकता पूरी करने के लिए पुरुषों से काम न चला तो महिलाओं की भर्ती चल पड़ी। इससे उनमें स्वावलम्बन, स्वाभिमान और साथ ही बराबरी का दावा करने जैसा उत्साह उभरा। इस कारण भी वे प्रजनन से बचने का प्रयत्न करने लगी। कारखाने, दफ्तर जहाँ थे वहाँ निवास की कमी पड़ती थी। बढ़ा हुआ परिवार वहाँ कैसे रहे? बिना आजीविका कमाये खर्चीली निर्वाह व्यवस्था की संगति कैसे बैठे? नित नये बच्चों की बाढ़ को सम्भालने वाली औरत को घर से बाहर निकलने और कुछ कमाने का अवसर कहाँ मिले? यह सभी प्रश्न ऐसे थे जिनने व्यक्तिगत कारणों से भी उस आर्थिक प्रतिपादन का समर्थन किया जिसके अनुसार राष्ट्रीय अर्थ समस्या के समाधान में परिवार नियोजन की अनिवार्य आवश्यकता बताई गई थी।

विवाह में सदा से नर और नारी दोनों की सुविधा मानी जाती रही है। दो की घनिष्ठता एक नई सशक्त इकाई का सृजन करती है। स्थिर सहकारिता लाभदायक परिणाम प्रस्तुत करती है। यह सब सही होने पर भी जब विवाह के उपरान्त उन्मुक्त यौनाचार की छूट मिली और उनके फलस्वरूप बच्चों की भरमार से घनिष्ठता घटी और दरिद्रता असुविधा बड़ी तो नये सिरे से विचार आरम्भ हुआ कि कहीं विवाह अवाँछनीय तो नहीं है। विशेषतया तब जबकि नारी को बहुप्रजनन के भार से लादकर एक प्रकार से जर्जर, बाधित और अपंग बना दिया जाता है। इस विचार से पुरुषों की अपेक्षा नारी को अधिक आन्दोलित किया। फलतः वे स्वतंत्र व्यक्तित्व की रक्षा के लिए बिना विवाह के रहना अधिक पसन्द करने लगी। नारी स्वतंत्रता आन्दोलन का आरम्भ तो उनके घटे हुए दर्जे के विरोध में असम्भव हुआ था। प्रथम चरण में इतना ही कहा गया था कि उन्हें भी मनुष्य समझा जाय और नर की तरह उन्हें भी मानवी अधिकारों से लाभान्वित होने दिया जाय। वह माँग पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गई है। उसमें नारी को अविवाहित जीवन पसन्द पड़ता है। विवाह हो तो वह ऐसा हो जिनमें स्वतंत्रता में बाधा न पड़े और प्रजनन की कष्टसाध्य अग्नि परीक्षा से होकर बार-बार न गुजरना पड़े।

इस सन्दर्भ में कुछ पुस्तकें बहुत ही उत्तेजनात्मक वातावरण उत्पन्न करती हैं। बेटी फ्रिडेन की पुस्तक “फेमिमिनिस्टिक” की योरोप और अमेरिका में बड़ी धूम रही। वह सन् 1963 में छपी थी। उसमें विवाह को वासना तृप्ति का कानूनी रूप बताकर अनावश्यक ही नहीं अनैतिक भी ठहराया गया था। विवाह को कुआँ बताया गया था। और उसमें न गिरने की सलाह दी गई थी।

नारी स्वतंत्रता की माँग ने उन्हें कई क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त करने का आँशिक अवसर प्रदान किया है। अमेरिका के श्रमिकों में 40 प्रतिशत महिलाएँ हैं, पर वे सभी कम महत्व के और कम वेतन के कामों पर नियुक्त हैं। महत्वपूर्ण पदों पर तो उनमें से मात्र 5 प्रतिशत को ही स्थान मिला है। इससे अच्छी स्थिति रूस की है जिसमें श्रमजीवी महिलाओं में से 70 प्रतिशत को डॉक्टर-इंजीनियर जैसे बड़े महत्वपूर्ण पद मिले हुए हैं।

यों सामान्यतया पुरुष ही हर क्षेत्र में समर्थ समझा जाता है पर नारी में भी अपनी कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो पुरुष की तुलना में उसे वरिष्ठ सिद्ध करती हैं। प्रजनन के लिए जिन क्रोमोजोन्स की अनिवार्य आवश्यकता है वह मात्र नारी में ही होती है। नारी का हृदय पुरुष की तुलना में अधिक बलवान होता है। दीर्घ जीवन की दौड़ में भी वे अनेक असुविधाओं के रहते हुए भी आगे रहती हैं। जीवनी शक्ति की वे धनी होती हैं। महिलाएँ अधिक संवेदनशील, सहनशील और कल्पनाशील होती हैं। अध्ययन में वे अग्रिणी रहती और अच्छे नम्बर प्राप्त करती हैं। ये सभी तथ्य बताते हैं कि अपने को श्रेष्ठ समझने वाला पुरुष नारी के सामने कितना बौना है।

नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन आन सोशलाजिकल रिसर्च के फैली डा. जान्स बर्नार्ड के अनुसार विवाह करके पुरुष नारी की अपेक्षा अधिक नफे में रहता है। इस आधार पर उसे जो सुविधाएँ मिलती हैं इसके कारण वह अविवाहितों की तुलना में अधिक दिन जीता और अधिक स्वस्थ रहता है। उसे बच्चे भी पैदा नहीं करने पड़ते हैं। चौकी दारिन, रसोई दारिन, धाय जैसे अनेकों कार्य वह बीबी से रोटी कपड़े की कीमत पर वसूल करता है। उनका कथन यह भी है कि अविवाहित नारी की तुलना में विवाहित नारी शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अधिक दुर्बल और दुःखी रहती है।

जार्ज बर्नार्डशा तक ने प्रचलित विवाहों पर कटु व्यंग करते हुए उन्हें कानून सम्मत व्यभिचार की संज्ञा दी थी। क्योंकि उसके पीछे आदर्शों का बुरी तरह अभाव पाया जाता है।

इस शताब्दी के उपरोक्त विचार मन्थन ने कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की हैं। अमेरिका में नारी मुक्ति आन्दोलन विद्वेष भरा उठ खड़ा हुआ है। उसमें पुरुष से पृथक रहने और अपनी स्वतंत्रता तथा प्रतिभा को अपने बलबूते विकसित करने का परामर्श है। विवाह भी वे समलिंगी करने को सुविधाजनक कहती हैं।

इसके विपरीत चीन से दूसरे ही तरह के दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। वहाँ लिबास पोशाक, काम धन्धे, जिम्मेदारी व्यवस्था आदि में नर और नारी के बीच का भेद समाप्त कर दिया गया है। उत्तेजक वेषभूषा और शृंगारिकता का नाम भी नहीं दीखता। दोनों वर्ग कन्धे से कन्धा मिलाकर निर्धारित कार्यों में जुटे रहते हैं। परिवार नहीं बढ़ाते वरन् हँसते-हँसते दिन गुजारने की सादगी और तत्परता से भरी जिन्दगी गुजारते हैं।

अपने समय की अनेकानेक नव उद्भूत समस्याओं में से एक यह भी है कि नर और नारी के बीच जो खाई चलती आ रही है पारस्परिक निर्भरता का वर्तमान परिपेक्ष में निर्वाह कैसे हो? इस सन्दर्भ में सर्वाधिक विचारणीय है, विवाह को न करा जाय अथवा उसे किन अनुबन्धों के साथ स्वीकारा जाय।

उभरती हुई चेतना ने सुझाया है कि विवाह सहकारिता का एक सुविधाजनक समन्वय रहे। दो मित्र मिल-जुलकर जीवनचर्या के विभाजित उपक्रमों में अपनी-अपनी भूमिका निबाहें पर दोनों में से कोई किसी पर हावी न हो। स्वतन्त्रता के साथ भी आत्मीयता निभ सकती है। अलग व्यक्तित्व बनाये रहकर भी मित्रता बनाये रहने और मिल-जुलकर काम करने में कोई कठिनाई नहीं होती। इसे नये प्रयोग और अनुभवों से सीखा जा सकता है।

इसके साथ ही प्रजनन की समस्या पर फिर भी विचार करना शेष रह जाता है। उससे जितना बचा जाय उतना ही उत्तम है। न्यूनतम सन्तति रखने से ही स्वास्थ्य रक्षा, सुविधा एवं अर्थ व्यवस्था बनी रह सकती है। बालकों के विकास की दृष्टि से भी यह आवश्यकता है कि जितनों को सही रीति से समुन्नत बनाया जा सकता है। जितने को दुलार और संस्कार दिया जा सकता है उससे अधिक एक इंच भी आगे न बड़ा जाय। सुसंस्कारिता सम्वर्धन तथा आत्मबल बढ़ाने की दृष्टि से यही उचित है, इसमें कोई सन्देह नहीं।


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