प्राणशक्ति के ऊर्ध्वगमन की चमत्कारी परिणतियाँ

February 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्राण जीवन का आधार है। उसका एक रूप तो वह है जिससे दैनन्दिन जीवन के यांत्रिक कार्य सम्पन्न होते हैं। शरीर को, इन्द्रियों को वह ही गति देता है। मन भी सूक्ष्म प्राण की प्रेरणा से चंचल रहता तथा शरीरगत हलचलों पर नियन्त्रण रखता है। श्रम से लेकर प्रजनन जैसे स्थूल कार्यों में प्राण की ही भूमिका होती है अधिकाँश व्यक्तियों के जीवन में इस अमूल्य प्राण शक्ति का उपयोग मात्र शारीरिक चेष्टाओं तथा मन की निकृष्ट आकाँक्षाओं की पूर्ति तक ही हो पाता है जबकि उससे असम्भव स्तर के कार्य भी सम्पन्न किये जा सकते हैं। प्राण विद्या के माध्यम से अन्तर्निहित सूक्ष्म शक्ति संस्थानों का जागरण भी सम्भव है जो प्रायः प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। प्राण की गति को ऊर्ध्वगामी बनाकर असीम शक्ति तथा दिव्य आनन्द की महान उपलब्धियाँ करतलगत की जा सकती है।

साँसारिक मनुष्य की तुलना शास्त्रों में सनातन अश्वत्थ से की गयी है। कठोपनिषद् में वर्णन है- ऊर्ध्वमूलोऽवाक् शावएषोऽश्वत्थः सनातनः देहयुक्त संसारी जीव मनुष्य सनातन अश्वत्थ वृक्ष है जिसका मूल ऊपर और शाखाएँ नीचे हैं। अलंकारिक रूप में अश्वत्थ का अर्थ है- अस्थायी। ‘छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्’ (गीता) महर्षि व्यास के अनुसार उस वृक्ष के पत्ते छन्द हैं। जीव का मूल ब्रह्म है। जिसके ऊर्ध्व स्थान लक्ष्य को इंगित करने के लिए ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर सिर में शिखा रखते हैं। जिन शाखाओं के माध्यम से ब्रह्म जीव बनकर इस संसार में अवतरित होता है, वे हैं रीढ़ में नीचे उतर कर शरीर में फैलने वाली सम्वेदन नाड़ियाँ। इनमें इन्द्रियों को गति देने वाले प्राणों के जो स्पन्द हैं, वे ही अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते हैं। सामान्य से लेकर असामान्य हर पुरुष को पूर्णता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के लिए शरीरगत प्राण की निम्नतम गतियों से अपनी यात्रा आरम्भ करनी पड़ती है तथा अपनी समस्त चेष्टाओं को सुषुम्ना के माध्यम से ही उर्ध्वमूल की ओर आरोहण करना पड़ता है।

सामान्यतः नाड़ियों में दैनन्दिन जीवन की इन्द्रियों की सम्वेदनाओं एवं निर्देशों का लक्ष्य है- समस्त शाखा प्रशाखाओं सहित प्रमुख प्राण का केन्द्रीय नाड़ी-सुषुम्ना में ऊर्ध्वगमन। प्रायः जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की वृत्तियाँ प्राण के प्रचण्ड प्रवाह को अपनी मनमर्जी से घुमाती तथा निम्न दिशा में बहने के लिए प्रेरित करती हैं। उसके अनुरूप जीवन शकट को घूमते रहने से कुछ विशेष करते नहीं बनता। प्राण प्रवाह का उल्टी दिशा में उर्ध्व की ओर गमन कराना एक कठिन कार्य है पर असम्भव नहीं। इसके लिए सतत् अभ्यास, दृढ़ निष्ठा तथा धैर्य की आवश्यकता होती है। विषयों के निम्नगामी प्रलोभनों से इन्द्रियों को विरत करके उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाना ही योग का प्रमुख लक्ष्य है। यह एक प्रचण्ड आध्यात्मिक पुरुषार्थ है जिसके बिना योग का प्रयोजन पूरा नहीं होता।

‘नायत्मा बलहीनेन लभ्यः’, अर्थात्- बलहीन को आत्मोपलब्धि- सत्य की प्राप्ति नहीं होती। मुण्डकोपनिषद, की यह उक्ति साधन को शक्ति संचय की प्रेरणा देती है और यह पुरुषार्थ आत्म प्रवृत्तियों के उन्नयन के बिना सम्भव नहीं हो पाता। स्नायुतंत्र की सूक्ष्म परतों में प्राण का अधोप्रेरित तीव्र संवेग जिसे बोलचाल की भाषा में काम शक्ति कहा गया है, की गति को उलटकर उर्ध्व दिशा में प्रवाहित कर देने के चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं। सुषुम्ना में मुख्य प्राण इस तीव्र पूर्ण प्रवाह को ही हठयोग में कुण्डलिनी शक्ति कहा गया है। कठोपनिषद् में वर्णन है- त देव शुक्रं तद ब्रह्म तदेवामृत मुच्यते, अर्थात्- कुण्डलिनी का ही अधोमुख प्रवाह का कामशक्ति और ऊर्ध्वमुख प्रवाह आत्मशक्ति है। मात्र दिशा बदल देने से शक्ति का स्वरूप बदल जाता है और तदनुरूप मनुष्य का स्तर भी है।

एक ही शक्ति अधोगामी बनकर मनुष्य को पशु चेष्टाओं में निरत करती है, भव-बन्धनों के पाश में बाँधती है, जबकि ऊपर उठकर जीवन मुक्ति प्रदान करने वाली बन जाती है। इन दोनों में से हर किसी के तीव्र प्रवाह के समक्ष शरीर से लेकर बुद्धि तक की सभी वृत्तियाँ गौण पड़ जाती है। इस प्रवाह के चरम संवेग का नाम ही यौवन है। जब तक वह संवेग शरीर में विद्यमान है, तभी तक कुछ विशेष करने की आशा की जा सकती है। योग मार्ग पर चलना भी ऐसी ही स्थिति में सम्भव है।

भूमध्य से लेकर रीढ़ के आधार बिन्दु-मूलाधार तक सुषुम्ना में छह चक्र अथवा कुण्डल हैं। भूमध्य के पीछे कपाल में आज्ञाचक्र, कण्ठ में विशुद्धाख्य चक्र, हृदय में अनाहत चक्र, नाभि में मणिपूर चक्र, उपस्थ में स्वाधिष्ठान तथा रीढ़ के आधार में मूलाधार चक्र हैं। सुषुम्ना के ऊपर मस्तक की मूर्धा में अवस्थित चेतना के सर्वोच्च केन्द्र का नाम सहस्रार है। ऊपर से नीचे की ओर अवतरित होते हुए प्राण की दिव्यता प्रत्येक चक्र या कुण्डल को पार करने में घटती चली जाती है। कुण्डलों में होकर प्रवाहित होने के कारण ही प्राण के संवेग का नाम कुण्डलिनी शक्ति है। शरीर शास्त्रियों का मत है कि सुषुम्ना में अवस्थित ये चक्र महत्वपूर्ण स्नायु केन्द्र हैं जहाँ से सूक्ष्म स्नायु प्रवाह निकल कर फैलते हैं। स्नायु तंत्र की सम्वेदनाएँ भी इन्हीं केन्द्रों से नियन्त्रित होती है।

मुख्य प्राण ही सुषुम्ना से निकलने वाली नाड़ियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में वितरित होकर शरीर की गतिविधियों का संचालन करता है। उसका प्रवेग जब अधोगामी दिशा में तीव्र होता है तो मन, बुद्धि तथा अन्य इन्द्रियों की वृत्तियाँ गौण हो जाती हैं पर काम का उभार अधिक हो जाता है। मनुष्य काम के वशीभूत हो जाता है। वृहद उपनिषद् में वर्णन है- ’सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्’ अर्थात् उस स्थिति में मुख्य प्राण के प्रवाह में सभी स्नायविक संवेदनों के सुख एकत्रित हो जाते हैं। तब कामोपभोग में ही मनुष्य को सबसे बड़ा आनन्द मानने लगता है। यह एक ऐसी भ्रान्ति है जिससे सामान्य व्यक्तियों को प्रायः निकलते नहीं बनता।

सुषुम्ना के माध्यम से प्राण की गति को ऊर्ध्वगामी बना देने पर जैसे-जैसे वह ऊपर उठता है, प्रत्येक चक्र के बाद उसका तेज बढ़ता जाता है। फलस्वरूप शरीर की निम्नतम वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। चक्रबेधन के साथ शक्ति की धारा फूट पड़ती है। ब्रह्मरन्ध्र में प्राण के प्रवेश तथास्थित हो जाने से समाधि की दिव्य स्थिति प्राप्त होती है। सहस्रार से आनन्द की निर्झरिणी ऐसी ही स्थिति में प्रवाहित होने लगती हैं जिसकी मस्ती में साधक डूबा रहता रहता तथा अनुभव करता है कि उस दिव्य आनन्द के समक्ष संसार के सभी सुख तुच्छ हैं।

प्राण के ऊर्ध्वगमन की स्थिति में उसकी दिव्यता बढ़ने का अभिप्राय भौतिकी की भाषा में यह है कि प्रत्येक चक्र के बाद प्राण की तरंग दीर्घता घटती तथा ऊर्जा बढ़ती है। सहस्रार में पहुँचकर वह प्रचण्ड सामर्थ्यवान दिव्य-ज्योति के रूप में परिणित हो जाती है अर्थात् वहाँ प्राण की ऊर्जा अनन्त हो जाती है। समाधि की स्थिति में पहुँचे साधकों की नाड़ी एवं हृदय की धड़कन इसी कारण निम्नतम हो जाती है। सुषुम्ना में ऊपर की ओर उठती कुण्डलिनी शक्ति चित्त के कुसंस्कारों को भी परिशोधित करती जाती है। जैसे-जैसे चित्त निर्मल होता जाता है, वैसे-वैसे उसमें सत्य का प्रकाश स्वयं ही प्रदीप्त होने लगता है। साधकों को अदृश्य के गर्भ में निहित परोक्ष अनुभूतियाँ ऐसी ही स्थिति में होने लगती हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118