महर्षि उद्यालक ने उस गुरुकुल प्रवीण छात्रों को बुलाया और परीक्षा लेने के लिए उनके आहारों को एक-एक मास के लिए बदल दिया। अवधि पूरी होने पर सभी को बुलाया गया और उनकी स्थिति जाँची गई।
जिसे एक महीने सूखा रहा गया था। वह सब कुछ भूल गया। आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगा था। स्मृति जवाब दे रही थी। जिसने तामसिक वस्तुएँ खाईं उसकी चंचलता बड़ गई और पढ़ने से मन उचट गया। जिसके आहार में मादक द्रव्यों का समावेश था उसने अध्ययन में अरुचि दिखाई और घर लौटने की आज्ञा माँगने लगा। इसी प्रकार किसी को झगड़ालू, किसी को शान्त, किसी को सौम्य, किसी को उद्धत पाया गया। अध्ययन पर भी इस बदली मनः स्थिति का वैसा ही प्रभाव पड़ रहा था।
प्रस्तुत परिवर्तन का रहस्य बताते हुए उद्यालक ने छात्रों से कहा- “अन्न से ही प्रकारान्तर से बुद्धि और चित्त बनता है। जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन बनता है। विद्या को जितना महत्व दिया जाता है उतना ही अनुकूल आहार पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।”