भरी गृहस्थी उजड़ी

February 1984

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एक व्यक्ति मजूरी करके पेट पालता था। नाम था शेखचिल्ली। अकल कम थी। काम का शऊर भी न था। पर रंगीली उड़ानें-उड़ानें में बेजोड़ था।

एक दिन एक तेली उधर से निकला। बिक्री हुई नहीं। घड़ा ज्यों का त्यों भरा था। सोचता आ रहा था कि कोई मजूर मिले, तो राहत मिले। दिन भर लादे रहने के कारण गरदन दुखने लगी थी।

मजूर खोजने की दृष्टि से एक चबूतरे पर बैठे अध-पगले को अपने काम का समझा और पूछा- मजूरी करेगा क्या? घड़ा दो मील ले चलेगा क्या?

दिन भर से काम न मिलने के कारण, रोटी की चिन्ता थी। सो वह तत्काल तैयार हो गया। चार आने मजूरी तय हो गयी। घड़ा शिर पर रख कर शेखचिल्ली तेली के पीछे-पीछे चलने लगा।

पैरों के साथ-साथ दिवास्वप्नों का सिलसिला चल पड़ा। सोचा अभी एक घण्टे में चार आने मिलेंगे। उनसे लौटते वक्त मुर्गी खरीदता लाऊँगा। मुर्गी हर रोज एक अण्डा देगी तो उससे मजे में गुजारा चलता रहेगा। मजूरी करने की जरूरत न रहेगी।

रंगीले सपनों पर कोई रोकथाम नहीं। वे चलते हैं तो रुकते नहीं। अब नया गणित चल पड़ा। कुछ दिन अण्डे बेचने की अपेक्षा उनसे निकले चूजे पाले जायँ। कुछ ही दिन में तीस मुर्गीयाँ बन जायेंगी। उन सबके अण्डों की आमदनी होने लगी तो मजा आयेगा। मालदार होने का अवसर मिलेगा।

मालदारी का सपना तेजी से दौड़ा। मुर्गियों के बाड़े पर बाड़े बनाने लगेगा। अण्डे टोकरों भर-भर कर बिकने लगे। बिक्री के रुपयों से घड़े भरने लगे। इन रुपयों का अब किया क्या जाय? एक नया प्रश्न सामने आया।

हल निकलते देर न लगी। बढ़िया-सी कोठी खरीदी जायगी। अच्छे कपड़े और बढ़िया सजधज से अमीरों जैसी स्थिति होगी। धनवान को बेटी देने वाले चक्कर काटेंगे। पर शादी तो उसी से करेगा जो सबसे सुन्दर होगी।

शेखचिल्ली अपनी मस्ती में था। शानदार कोठी, अच्छी आमदनी, खूब सूरत बीबी और बच्चों की फौज कमाई करने लायक हो चली थी। वह अब किसी की क्यों सुनता। तेली का पीछा छोड़कर वह गाँव की पगडंडी पर तेजी से चल रहा था। अब उसे बच्चों पर रौब गाँठने और सऊर सिखाने का बड़प्पन जताने की पड़ी थी। लड़के बार-बार घुड़की सहते और गलती की माफी माँगते। बीबी भी उनकी सिफारिश करती। शेख चिल्ली दूनी आड़ दिखाता। आखिर मालदार बाप जो ठहरा।

दिवास्वप्न गहरे होते हैं तो वे बड़े मजेदार होते और वास्तविकता से भी अधिक सच्चे लगते हैं। रौब गाँठने का यही तो अवसर था, वह चूके क्यों? किसी काम पर नाराज होकर उसने बीबी, बच्चों की एक साथ घुड़की दिखाई और डाँट बताई।

डाँट बताने में इतनी तन्मयता थी कि सचमुच गरदन को झटका लगा और तेल से भरा घड़ा जमीन पर जा गिरा। टूटने और तेल के रेत में फैलते देर न लगी।

तेली के क्रोध का बारापार न था। उसने पास में घड़ी लकड़ी उठाई और बेतरह धुनाई शुरू कर दी। तेल के पैसे वसूल करने के लिए मजूर के पास कपड़े, जूते तक तो थे नहीं।

पिटाई से शेखचिल्ली तिलमिला गया। मजूरी के पैसे क्या मिलने थे। रात को खाली पेट सोना पड़ेगा। इसकी चिन्ता तो थी। सड़ासड़ पड़ने वाली सन्टियों से भी अधिक दर्द उसे इस बात का हो रहा था कि उसकी मुर्गीयाँ, कोठी, बीबी और औलाद को कौन सम्भालेगा। क्या उसे फिर अध पगले शेखचिल्ली की पुरानी जिन्दगी में फिर लौटना पड़ेगा?


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