गायत्री मन्त्र का एक नाम तारक मन्त्र भी है। कई साधना ग्रन्थों में इसका उल्लेख इसी नाम से हुआ है। तारक अर्थात् तार देने वाला, पार करा देने वाला, तैरा कर पार निकाल देने वाला। गहरे जल प्रवाह को पार करके- निकल जाने को डूबते हुए को बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भव सागर ऐसा ही है, जिसमें अधिकाँश जीव डूबते हैं। तरते तो कोई बिरले ही हैं। जिस साधन से तरना सम्भव हो सके, उसे ही तारक कहा जायेगा। गायत्री मन्त्र में यह सामर्थ्य है, उसी से उसे तारक मन्त्र कहा जाता है।
तारक मन्त्र की विशेषता और गायत्री मन्त्र में उसका समावेश होने से पूर्व यह समझना होगा कि चह कौन-सी शक्ति है जो मनुष्य को समर्थ-असमर्थ, सफल-असफल और जीवनोद्देश्य की प्राप्ति में सशक्त या अक्षम सिद्ध करती है। उस शक्ति को थोड़े ही शब्द में समझना चाहें तो कहा जा सकता है कि प्राणशक्ति ही मनुष्य सत्ता की जीवनी शक्ति है। वह यदि कम हो तो मनुष्य समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है। इसके बिना प्रयोजन को पूर्ण कर सकना, लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असम्भव है। इसलिये कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए उसके आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। कहना न होगा कि भौतिक उपकरणों की अपेक्षा व्यक्तित्व की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।
साधनों का उपयोग करने के लिये भी शौर्य, साहस और सन्तुलन चाहिए। बढ़िया बन्दूक हाथ में, पर मन में भीरुता, घबराहट भरी रहे तो वह बेचारी बन्दूक क्या करेगी? चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही उससे इस बन्दूक को छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों से और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। ‘साहस वालों की ईश्वर सहायता करता है’ यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं के मूल में प्राण-शक्ति ही साहस, जीवट दृढ़ता, लगन, तत्परता ही प्रमुख भूमिका सम्पादन करती है और यह सभी विभूतियाँ प्राण-शक्ति की सहचरी हैं।
प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधियों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बन कर चमकता है। मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्यान्य अनुकूलताएँ तथा सुविधाएँ स्वयमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती हैं। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले की सम्पत्तियों को दूसरे बलवान् लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है। कमजोर की सम्पदा- जर, जोरू, जमीन दूसरे के अधिकार में चली जाती है।
जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियाँ दुर्बल के पास नहीं रहतीं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता- प्राण शक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। आध्यात्मिक प्रयत्नों में प्राण शक्ति के अभिवर्धन की सर्वोच्च प्रक्रिया गायत्री उपासना को माना गया है। उसका नामकरण इसी आधार पर हुआ है।
शरीर में प्राण शक्ति ही निरोगता, दीर्घ-जीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। मन में वही बुद्धिमता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप में उस प्राण-शक्ति की ही स्थिति आँकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही है। शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को मुक्त कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत को- इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो इस तन्त्र को उपार्जित, विकसित करने का प्रयत्न करें।
गायत्री साधना मनुष्य को प्राणयुक्त बनाती और उसमें प्रखरता उत्पन्न करती है। गायत्री का अर्थ ही है प्राणों का उद्धार करने वाली। इस प्रकार प्राणवान और विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने से पग-पग पर सफलताएँ, सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। प्राण की न्यूनता ही समाज विपत्तियों का, अभावों और शोक-संतापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा से आक्रमण होता है, दैव भी दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता और मृत लाश पर जैसे चील, कौए दौड़ पड़ते हैं वैसे ही तत्वहीन मनुष्य पपिवरत्तियाँ टूट पड़ती हैं। इसलिए हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना ही चाहिए। कहा गया है-
प्राणो वै बलम्। प्राणो वै अमृतम्। आयुर्नः प्राणः राजा वै प्राणः। -बृहदारण्यक
प्राण ही बल है, प्राण ही अमृत है। प्राण ही आयु है। प्राण ही राजा है।
यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः -सांख्यायन
जो प्राण है, सो ही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है, सो ही प्रण है।
यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तावदायुः। -कौषीतकि
जब तक इस शरीर में प्राण हैं तभी तक जीवन है।
प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठानः। -शतपथ
प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।
एतावज्ज्न्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु। प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा॥
“प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना देहधारियों का इस देह में जन्म साफल्य है।”
या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रौत्रे या च चक्षुषि। या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमीः॥
‘हे प्राण, जो तेरा रूप वाणी में निहित है तथा जो श्रोत्रों, नेत्रों तथा मन में निहित है, उसे कल्याणकारी बना, तू हमारे देह से बाहर जाने की चेष्टा मत कर।’
प्राणस्येद वशे सर्वं त्रिदिवेयत् प्रतिष्ठितम्। मातेव पुत्रान रक्षस्व प्रज्ञां च विधेहिन इति॥
“हे प्राण, यह विश्व और स्वर्ग में स्थित जो कुछ है, वह सब आपके ही आश्रित है। अतः हे प्राण! तू माता-पिता के समान हमारा रक्षक बन, हमें धन और बुद्धि दे।”
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं, इस सृष्टि का कण-कण इसी प्राण शक्ति की ज्योति से ज्योतिर्मय हो रहा है। जहाँ जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौन्दर्य है वहाँ उतनी ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिए। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं, केवल प्राण में ही है। जो भी प्रादुर्भाव, सृजन, आविष्कार, निर्माण और विकासक्रम चल रहा है, उसके मूल में परब्रह्म की यही परम चेतना काम करती है। जड़ पंच तत्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। परमाणु उसी से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और उसी की प्रेरणा से अपनी धुरी तथा कक्षा में भ्रमण करते हैं। विश्व ब्रह्माण्ड में समस्त ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियाँ इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। उपनिषदकार ने कहा है-
प्राणाद्धये व खल्विमान भूतानि जायन्ते। प्राणानि जातानि जीवन्ति। प्राण प्रयस्त्यभि संविशन्तीति। -तैन्तरीय,
प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही जीते हैं और अन्ततः प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।
सर्वाणि हवा इमानि भूतानि प्राणमेवा। भिशं विशन्ति, प्राणमयुम्युंजि हते॥ -छान्दोग्य,
यह सब प्राणी, प्राण में से ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते हैं।
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा, च परा च पथिभिश्चरन्तम। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसा न आवरीवर्ति भुवनेष्यन्तः॥ (ऋग्. 1-164-31)
“मैंने प्राणों को देखा है- साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट होने वाला नहीं है। यह भिन्न-भिन्न मार्गों अर्थात् नाड़ियों से आता जाता है। मुख और नासिका द्वारा क्षण-क्षण में इस शरीर में आता है और फिर बाहर चला जाता है। यह प्राण शरीर में वायु रूप में है पर अधिदैवत रूप से यह सूर्य है।”
विश्वव्यापी यह प्राणशक्ति जहाँ जितनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती है। वहाँ उतनी ही सजीवता दिखाई देने लगती है, मनुष्य में इस प्राणतत्व का बाहुल्य ही उसे अन्य प्राणियों से अधिक बुद्धि विचारवान, अधिक बुद्धिमान, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं सुसभ्य बना सका है। इस महान शक्ति पुत्र को केवल प्रकृति प्रदत्त साधनों के उपभोग तक ही सीमित रखा जाय तो केवल शरीर मात्रा ही सम्भव हो सकती है और अधिकांशतः नर-पशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जिया जा सकता है पर यदि उसे अध्यात्म विज्ञान के माध्यम से अधिक मात्रा में बढ़ाया जा सके तो गई-गुजरी स्थिति से ऊँचे उठकर उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचना सम्भव हो सकता है। हीन स्थिति में पड़े रहना मानव जीवन में सरलतापूर्वक मिल सकने वाले आनन्द, उल्लास से वंचित रहता, मनोविकारों और उनकी दुःखद प्रतिक्रियाओं से विविध विधि कष्ट-क्लेश सहते रहना, यही तो नरक है। देखा जाता है कि इस धरती पर रहने वाले अधिकाँश नर-तनुधारी नरक की यातनाएँ सहते हुए ही समय बिताते हैं। आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण सभी महत्वपूर्ण सफलताओं से वंचित रहते हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए प्राण तत्व का सम्पादन करना आवश्यक है।
गायत्री महामन्त्र के माध्यम से इसी प्राणतत्व का प्रचुर मात्रा में उपार्जन किया जाता है, जिससे मनुष्य देवोपम जीवन जीता हुआ स्वयं भवसागर से पार होने के साथ अन्य अनेकों के लिए भी तारक का काम करता है। गायत्री महामन्त्र को इसी सामर्थ्य, विशेषता के कारण तारक मन्त्र कहा गया है। जो विधिवत् उसका आश्रय ग्रहण करते हैं, उसे तत्काल अपने में समग्र जीवनीशक्ति का अभिवर्धन होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। जितना ही प्रकाश बढ़ता है। उतना ही अन्धकार दूर होता है। इसी प्रकार आन्तरिक समर्थता बढ़ने के साथ-साथ जीवन को दुःख दारिद्र का घर और संसार को भव सागर के रूप में दिखाने वाले नारकीय वातावरण का भी अन्त होने लगता है।