विज्ञान को पथ भ्रष्ट होने से रोका जाय

February 1984

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एक बार आइन्स्टाइन अत्यधिक विषम बीमारी के चंगुल में फँस गये। बचने की आशा कम ही रह गई थी। बाद में दैवयोग वश जब वे अच्छे हो गये तो बीमारी के दिनों में बन पड़े चिन्तन और अनुभव को बहुत महत्वपूर्ण मानते रहे। वे कहते थे कि आन्तरिक अनुभूतियों की दृष्टि से उन दिनों जो मैंने अनुभव पाये, वह जीवन भर के अनुसंधानों से किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

वे तत्वज्ञानियों की भाषा बोलने लगे थे और कहते थे कि- “मैं समस्त चेतन जगत से अपने को इतना अधिक तादात्म्य अनुभव करता हूँ कि मरने और जीने की स्थिति में कोई विशेष अन्तर मुझे प्रतीत नहीं होता।”

कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की लारेन्स वर्कले प्रयोगशाला के कई मूर्धन्य भौतिक विज्ञानियों ने पिछले दिनों मिलजुल कर ऐसी कांफ्रेंस बुलाई जिसमें दार्शनिक स्तर के भौतिक विज्ञानियों की एक बड़ी मण्डली सम्मिलित हुई।

इसमें भौतिकी के मूर्धन्य वैज्ञानिकों में से अनेकों की अभिव्यक्तियों का समावेश सम्भव हो सका था। एलिजावेथ रॉशर-माइकेल मर्फी-फ्रिटजाफ काप्रा-डेविड फिन्सेल्टाइन, गैरी जुकैव आदि ने इस विषय पर विचार व्यक्त किये कि- “क्या भौतिक विज्ञान अपने चरम लक्ष्य की दिशा में बढ़ रहा है? क्या हम वर्तमान रीति-नीति अपनाये रहकर वहाँ पहुँच सकेंगे, जहाँ पहुँचना विज्ञान के लिए उचित है? यदि नहीं तो इसकी वैकल्पिक दिशा धारा क्या हो सकती है?

कांफ्रेंस में व्यक्त किये गये विचारों का सार संक्षेप यह था कि हमने प्रारम्भ तो अच्छे उद्देश्य से किया और उसे देर तक सही दिशा में अपनाये भी रखा। पर अब आकर भटकने लगे हैं। मानवी प्रगति ही नहीं, शान्ति भी विज्ञान का लक्ष्य है। शान्ति विहीन प्रगति से काम चलेगा नहीं। हमें प्रकृति के रहस्योद्घाटन की तरह ही मानवी गरिमा के अनुरूप उपलब्धियों के उपयोग की मर्यादा बनानी चाहिए।

दूसरा विचार कांफ्रेंस का यह था कि अब प्रकृतिगत पदार्थ सत्ता ही सब कुछ नहीं मानी जा सकती। चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व भी प्रामाणित हो रहा है। अतएव चिन्तन को प्रभावित करने वाला तत्त्वदर्शन भी वैज्ञानिक शोध प्रयोजनों में ही सम्मिलित रहना चाहिए।

विज्ञान को पथ भ्रष्ट होने से रोकने के लिए कितने ही मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने आवाज उठाई है और कहा है कि हमें अन्धी दौड़ नहीं दौड़नी चाहिए वरन् यह देखना चाहिए कि जो कमाया जा रहा है उसे ठीक तरह खाया और सही रूप में पचाया भी जा रहा है या नहीं।

इस संदर्भ में प्रोफेसर काप्रा की पुस्तक “दि ताओ आफ फिजिक्स” और प्रो. जुकैव को “दि डान्सिग आफ मास्टर्स” विशेष रूप से पठनीय हैं। वे अब से पाँच वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हुई थीं पर अपने प्रतिपादनों के सारगर्भित होने के कारण ही बहुत लोकप्रिय हुईं और देखते-देखते लाखों की संख्या वाले कई संस्करण बिक गये। इससे प्रतीत होता है कि विचारशील वर्ग की सहानुभूति किस और है। कोई नहीं चाहता कि विज्ञान को ऐसे अनुपयुक्त कार्य करने दिये जाय जैसे कि उसके द्वारा इन दिनों किये जा रहे हैं।

जॉर्जिया स्कूल आफ टेक्नोलाजी के फिजिक्स डायरेक्टर प्रो. फिन्सेन्टाइन ने अपने प्रतिपादनों में इस बात पर बहुत जोर दिया है कि कुछ समय के लिए आविष्कारों को विराम देकर यह सोचा जाय कि उन्हें किन के लिए- किन प्रयोजनों के लिए नियोजित किया जाय। बिना पर्यवेक्षण किये और उद्देश्य निर्धारित किसे ऐसे ही घुड़दौड़ मचाने का परिणाम ऐसा भी हो सकता है जिसके कारण जन-साधारण को- विज्ञान क्षेत्र ही नहीं, स्वयं वैज्ञानिकों को भी विपत्ति में फँसना पड़े।

सत्य और तथ्य को खोजना भी विज्ञान का विषय होना चाहिए। उपलब्धियों का उपयोग किस प्रयोजन के लिए हो, उन पर आधिपत्य किन का हो, अनुचित प्रयोगों की रोकथाम कैसे हो? यह प्रसंग भी विचारणीय हैं उनकी उपेक्षा होने पर जिसे उत्कर्ष में लगना चाहिए था, वह वह विनाश में जुट सकता है।

विज्ञान को अब भौतिकी तक ही सीमित न रहकर आत्मिकी के क्षेत्र में प्रवेश करना होगा। यह मन्थन विश्व मनीषा के मस्तिष्क में दिनों दिन अधिकाधिक गतिशील होता जा रहा है। प्रोफेसर काप्रा को एक विचारोत्तेजक लेख प्रख्यात अमेरिका पत्रिका “सटर्डे रिब्यू” में छपा है। वे कहते हैं- “प्रकृति के रहस्योद्घाटन में अब तक मनुष्य की तार्किक बुद्धि ने काम किया है। अब बदलती परिस्थितियों में एक नया आधार अपनाया जाना आवश्यक हो गया है। वह है इन्ट्यूशन अर्थात् अन्तःप्रज्ञा। अब तक अन्तःप्रज्ञा की- नीतिमत्ता और भाव सम्वेदना की उपेक्षा होती रही है। समय आ गया है कि उसे उसकी समुचित प्रतिष्ठा प्रदान की जाय।” उनके विचारों को स्वामी रंगनाथानन्द ने अपनी पुस्तक “साइन्स एण्ड रिलीजन” में बड़ी भाव कुशलता से व्यक्त किया है।

प्रगतिशील मनीषा के सामने कुछ नये तथ्य और नये संकल्प हैं। उसे खोजना है कि क्या मानवी प्रगति पदार्थ सम्पदा के माध्यम से ही हो सकती है अथवा उसमें नीतिमत्ता और भाव सम्वेदनाओं के समावेश की भी आवश्यकता है? सोचना होगा कि क्या सामर्थ्य साधनों से ही मनुष्य बलिष्ठ बन सकता है, अथवा उसके व्यक्तित्व में शालीनता की मात्रा भी बढ़नी चाहिए।

पदार्थजन्य सुविधा साधनों का कितना ही महत्व क्यों न हो, उनका सदुपयोग माइन्ड स्टफ-मनःतत्व में उत्कृष्टता उत्पन्न किये बिना सम्भव नहीं हो सकता। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बनता है। कपड़ा सीने वाली सुई प्राण घातक अस्त्र बन सकती है। विज्ञान सुविधाएँ उत्पन्न करे, इसमें उसकी सराहना है, पर साथ ही इसमें निन्दा भी कम नहीं कि उसके कारण मनुष्य विलासी, लालची और आक्रामक प्रकृति के बनते जायँ, छीना-छपटी का मत्स्य न्याय अपनाये और प्रतिशोध की आग जलाकर अपने को ही भस्मसात् कर लें। इस स्तर की दुर्गति उत्पन्न करने में यदि विज्ञान का उपयोग होने लगा तो समझना चाहिए कि उसने उस उद्देश्य का परित्याग कर दिया जिसमें उसे सत्य और तथ्य को ढूँढ़ना ही नहीं उपलब्धियों का विवेकपूर्ण उपयोग भी कराना था।

विज्ञान का काम है कि वह अन्धविश्वासों से मुक्ति दिलाये। साथ ही उस श्रद्धा का उत्पादन अभिवर्धन भी करे जो मानवी गरिमा को अक्षुण्य रखने में सहायता कर सके। आइन्स्टाइन कहते रहते थे कि “विज्ञान के बिना धर्म अन्धा है और धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा।” अन्धे और पंगे ने मिलकर नदी पार की थी। इन दोनों का परस्पर सघन सहयोग और भी अधिक आवश्यक हो गया है।

कार्य कुछ भी क्यों न हो उसके पीछे उद्देश्यों का समावेश होना चाहिए। उपलब्धियाँ किसी भी स्तर की क्यों न हों उनका उपयोग सही प्रयोजन के लिए सही मनुष्यों द्वारा होना चाहिए। अन्यथा उपयोगी भी अनुपयोगी घातक बन सकता है। प्रकृति के रहस्योद्घाटन से कितनी ही चमत्कारी क्षमताएँ विज्ञान क्षेत्र में उपलब्ध हुई हैं। उनके सहारे सुविधा साधनों का संवर्धन भी हुआ है। पर साथ ही यह संकट भी सामने है कि दुरुपयोग होने पर जलाई गई माचिस की तीली इस विश्व वैभव को भस्मसात् भी कर सकती है, जिसके निर्माण में अनेकानेक मनीषियों की श्रमशीलता एवं बुद्धिमता का सुनियोजन हुआ है। विचारशीलता वैज्ञानिक क्षेत्र के सूत्र संचालकों को इस तथ्य पर नये सिरे से विचार करने के लिए बाधित कर रही है कि उनके प्रयासों का उपयोग मानवी प्रगति एवं सुख-शान्ति के निमित्त हो, न कि दुष्टता के परिपोषण और पिछड़े वर्ग को अधिक गिराने निचोड़ने में उसे प्रयुक्त किया जाने लगे।


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