नियन्ता की विधि-व्यवस्था का प्रमाण कर्मफल सिद्धान्त

February 1984

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मानव जीवन विचित्रताओं का ऐसा एक समुच्चय है जिसे देखकर कारण समझ न पड़ने पर हतप्रभ होकर रह जाना पड़ता है। ऐसी अनेकों अनबूझ पहेलियाँ जन्म से मरण तक मनुष्य के पल्ले बँधती रहती हैं। सामान्य बुद्धि उन्हें समझ नहीं पाती। समझ नहीं आता कि एक-सी परिस्थितियाँ, समान साधन होते हुए भी एक ही माता-पिता की दो सन्तानें भिन्न प्रकृति की क्योंकर विकसित होती चली जाती हैं। बौद्धिक दृष्टि से एक अत्यन्त विकसित पाया जाता है तो एक मन्दबुद्धि होता देखा जाता है। एक भाव सम्वेदना की दृष्टि से कोमल हृदय का तो दूसरा निष्ठुर प्रकृति का देखा जाता है। एक कायर-भीरु मनःस्थिति का बन जाता है तो एक निडर साहसी सन्तुलित मनःस्थिति का।

वातावरण, आनुवांशिकी एवं अन्यान्य बहिरंग जगत से जुड़ी परिस्थितियों ही सन्तति को भिन्न-भिन्न रूप देती है, ऐसा विशेषज्ञों का मत है। इतना होते हुए भी वे इस प्रश्न का जवाब नहीं दे पाते कि एक-सी परिस्थितियाँ एवं आनुवांशिक घटकों के रहते हुए भी सर्वथा विपरीत विकास क्योंकर होता है? ऐसे कौन से सूक्ष्म घटक हैं जो जन्म-जन्मान्तरों तक आनुवांशिकी के नियमों की अवहेलना कर मानव प्रकृति को गढ़ते चले जाते हैं। प्रत्यक्षतः कारण समझ में न आने पर मनुष्य का ऊहापोह स्वाभाविक भी है।

जन्मजात प्रतिभाओं- ‘प्रोडिजी’ के ऐसे अनेकों उदाहरण आये दिन पढ़ने को मिलते हैं। अन्य बच्चों की तुलना में थोड़े से श्रम व अध्यवसाय से ही उनकी प्रतिभा को निखरते देखा जा सकता है। कई बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टि से विलक्षण मेधा बचपन से ही पनपती देखी जाती है तो कुछ में कला-संगीत की अभिरुचि के गुण नन्हें बीज के रूप में पाये जाते हैं। बिना किसी परिश्रम के अनायास ही ये प्रकट होती व एक समर्थ शिक्षक के हाथों पड़ने पर फलती-फूलती देखी जाती है। इन असामान्य प्रतिभाओं को बिना अधिक प्रयत्न व मनोयोग के अभीष्ट स्तर प्राप्त करते देखकर सभी को आश्चर्य होता है। सामान्य बुद्धि के व्यक्ति इसे मात्र संयोग मानकर सन्तोष भर कर लेते हैं। लेकिन तत्वदर्शी- अध्यात्मवेत्ता अच्छी तरह जानते हैं कि संसार में कोई भी घटना अकारण नहीं घटती। आकस्मिक संयोगों के पीछे भी ऐसे सूक्ष्म कारण सन्निहित हैं जिनका परोक्ष जगत से सम्बन्ध है।

वर्तमान में मनुष्य जीवन के विकास के हर घटनाक्रम को मनीषियों ने पूर्व जन्म के प्रयासों की फलश्रुति माना है। भारतीय अध्यात्म का मर्म समझकर मन्तव्य व्यक्त करने वाले दार्शनिकों का मत है कि कर्मों के सूक्ष्म संस्कार जीवात्मा के साथ मरणोपरान्त भी बने रहते हैं। इन्हीं संस्कारों को बाद के जन्मों में विकसित होते देखा जा सकता है। वे ही जन्मजात विशेषताओं के रूप में प्रकट होते हैं। मनुष्य की प्रकृतिगत विशिष्टताओं के गठन में आनुवांशिक कारणों का जितना योगदान होता है उससे कम पूर्व जन्मों के अर्जित सूक्ष्म संस्कारों का नहीं होता। जन्मजात प्रतिभा के उदाहरण उसी सत्य के प्रमाण हैं। प्रतिभा ही नहीं स्वभाव में अनायास प्रकट होने वाली भली-बुरी विशिष्टताएँ, जिनकी संगति न तो आनुवांशिक कारणों से बैठती है, न शैक्षणिक प्रयासों से और न ही बाह्य परिस्थितियों के प्रभाव से, वे भी वस्तुतः सूक्ष्म संस्कारों की ही प्रतिक्रियाएँ होती हैं, जो स्वभाव का अंग बनी रहती है। व्यवहार विज्ञानी, मनःशास्त्री स्वभावगत इन विशेषताओं का कारण जब वातावरण में पैतृक गुणों में ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं तो कितनी ही बार असफलता हाथ लगती है।

जन्म के साथ ही कितनों को अनुकूल परिस्थितियाँ अनायास ही मिल जाती हैं। बिना किसी पुरुषार्थ के वे सम्पदा और वैभव के मालिक बन जाते हैं। विकसित होने के लिए कुछ को परिवार का सुसंस्कृत वातावरण मिल जाता है। जबकि कुछ को घोर प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। सर्वांगीण विकास के लिए अभीष्ट स्तर के साधन एवं सहयोग नहीं जुट पाते। उनका अपना पुरुषार्थ ही आगे बढ़ने का एक मात्र सम्बल होता है। अपंगता एवं विकलांगता के शिकार बच्चे भी पैदा होते हैं। जिन मासूमों ने जीवन के एक भी वसन्त न देखे हों, जिन्हें पाप पुण्य का, भले-बुरे का कुछ भी ज्ञान नहीं होता, उन्हें अकारण ही प्रकृति के कोप का भाजन बनना पड़े, यह बात तर्क के गले नहीं उतरती। लेकिन नियम एवं व्यवस्था जड़ प्रकृति में भी दिखायी पड़ती है तो कोई कारण नहीं कि वे चेतन जगत पर लागू न हों। जन्मजात विकलांगता, दुर्घटना में मृत्यु, विषम परिस्थितियों में भी बच निकलने का कारण सामान्य बुद्धि समझ नहीं पाती। उसे मात्र संयोग मान लेने से समाधान नहीं हो पाता। संयोग हो तो भी उसका कुछ कारण कुछ आधार होना चाहिए।

कर्मफल सिद्धान्त की आध्यात्मिक मान्यता में उपरोक्त गुत्थियों का हल सन्निहित है। पेड़ पादपों की तरह जीवन का भी शरीर के साथ ही अन्त नहीं हो जाता। आदि और अन्त से रहित वह सतत् प्रवाहित रहता है। मृत्यु शारीरिक परिवर्तन की एक अवस्था है जिसमें नये जीवन की पृष्ठभूमि सन्निहित है। जीवात्मा का वह एक पड़ाव है जहाँ से नयी तैयारी, नयी उमंग के साथ एक नये जीवन की शुरुआत होती है। कर्मों के सूक्ष्म संस्कार उसके साथ चलते हैं। उन्हीं के आधार पर अगले जीवन की भली-बुरी परिस्थितियाँ जीवात्मा उपलब्ध करती है। जन्मजात प्रकट होने वाली भली-बुरी विशेषताएँ पूर्व जन्मों के कर्मों की ही प्रतिफल होती हैं जो अनायास ही प्रत्यक्ष होती दिखायी पड़ती हैं। कर्मों का प्रतिफल तत्काल इसी जीवन में मिले, यह आवश्यक नहीं। कर्मों का फल पकने तथा मिलने की सुव्यवस्था होते हुए भी वह अविज्ञात है। कर्मफल की स्वचालित व्यवस्था एक रहस्य होते हुए भी इस सत्य पर प्रकाश डालती ही है कि अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलना सुनिश्चित है। कब और कितने परिमाण में, यह उस सत्ता ने अपने हाथों में रख छोड़ा है।

गम्भीरता से विचार करने पर सृष्टा की इस कर्मफल व्यवस्था में उसकी दूरदर्शिता का ही आभास होता है। जड़ जगत के विकास एवं मरण के सुनिश्चित तथा ज्ञात क्रम में किसी प्रकार का कौतूहल नहीं होता। ढर्रे की भाँति सब कुछ चलता जान पड़ता है। पेड़, पादप पैदा होते और समाप्त होते रहते हैं? जीव जन्तुओं का भी जीवन शकट ढर्रे की प्रक्रिया से लुढ़कता रहता है। परमात्मा ने मनुष्य को भी उन्हीं की स्थिति में रखा होता तो मानव जीवन का कुछ विशेष महत्व नहीं रह जाता। बुद्धि और पुरुषार्थ को अपना जौहर दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता। चोरी करते ही अपंग हो जाने, झूठ बोलते ही जीभ के गल जाने, व्यभिचार करते ही कोढ़ हो जाने, हत्या करते ही अकस्मात मर जाने की कर्मफल व्यवस्था रही होती तो मनुष्य की स्वतंत्रता एवं कार्य कुशलता का कुछ महत्व नहीं रह जाता। सब कुछ यंत्रवत चलता। कुछ विशेष सोचने तथा विशेष करने की उमंग नहीं रहती। भवितव्य की जानकारी होने पर जीवन क्रम नीरस ही नहीं, भयावह भी होता। चारों ओर अकर्मण्यता छा जाती। सचमुच ही उस नियामक सत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहिए जिसने कर्मफल व्यवस्था को अगणित जन्म शृंखलाओं के साथ जोड़कर मानवी विवेक को अपने वर्चस्व का परिचय देने का स्वतंत्र अवसर प्रदान किया है।

कर्म का उचित न्याय देने में समाजगत व्यवस्था में अन्धेरगर्री चल भी सकती है पर ईश्वरीय व्यवस्था में ऐसी कभी सम्भव नहीं है। उसकी त्रिकालदर्शी आँखों से कुछ भी नहीं छिप सकता। कर्मों का फल मिलना सुनिश्चित है, अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा। सम्भव है, कोई व्यक्ति समाज एवं न्याय की आँखों में धूल झोंककर अपने कुकर्मों तथा पापों का दण्ड पाने से बच जाय पर ईश्वरीय न्याय विधान से बचना सम्भव नहीं है। सम्भव है इस जीवन में उसका फल न मिले पर दूसरे जन्मों में मिलना सुनिश्चित है।

इस तथ्य पर योगदर्शन स्पष्ट प्रकाश डालता है। योगदर्शन साधन पाद सूत्र 13-15 में उल्लेख है- “सति मूले तद्विपाको जात्यायु भोंगा।”

अर्थात्- “कर्म का मूल रहने पर जब वह पकता है तो जाति या जन्म, आयु और योग के रूप में प्रकट होता है।” यह जन्म, आयु और भोग, पुण्य और पाप की अपेक्षा से सुख और दुःख रूपी फल वाले होते हैं।

कर्मफल सिद्धान्त को और भी स्पष्ट करने के लिए प्राचीन ऋषियों ने कर्मों को तीन भागों में बाँटा है- संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। वह कर्म जो अभी फल नहीं दे रहे हैं- बिना फलित हुए इकट्ठे हो जो हैं, उनको संचित कर्म कहते हैं। कालान्तर में वे फल देने के लिए सुरक्षित रखे हुए हैं। उन्हें फिक्स्ड डिपाजिट की संज्ञा दी जा सकती है। पर समस्त संचित कर्म भी एक जैसे नहीं होते, न ही उनका फल एक ही समय में मिलता है। विभिन्न प्रकार के संचित कर्मों के पकने की अवधि अलग-अलग हो सकती है।

इसी प्रकार जो कर्म वर्तमान में किया जाता है वह क्रियमाण है। संचित कर्मों में से जिनका विपाक हो जाता है अर्थात् जो पककर फल देने लगते हैं उनको प्रारब्ध कहते हैं। जन्म के साथ अनायास भली-बुरी परिस्थितियाँ लिए अथवा जीवन में अकस्मात उपलब्धियाँ लिए वे ही प्रकट होते हैं। कर्मों की शृंखला इस प्रकार है- क्रियमाण कर्म का अन्त संचित में हो जाता है और संचित में जो कर्मफल देने लगते हैं, उनकी प्रारब्ध कहते हैं।

मनुष्य का अधिकार क्रियमाण कर्मों पर है। संचित और प्रारब्ध उसकी ही उपलब्धियाँ हैं जिन पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं। भले-बुरे कर्मों को वर्तमान में करने न करने की मनुष्य को पूरी-पूरी छूट तो है पर वह स्वतंत्रता फल पाने में नहीं। “अवश्यमेव भोत्कव्यं कृतंकर्म शुभाशुभम्”- अर्थात् “किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है”- कर्मफल सिद्धान्त का यह प्रमुख सूत्र है।

जीवन की अगणित गुत्थियों-विचित्रताओं का समाधान कर्मफल सिद्धान्त से ही सम्भव है। आस्तिकता एवं नैतिकता में मेरुदण्ड इस सिद्धान्त को मानने से ही मनुष्य और समाज सत्प्रवृत्तियों के- सत्कर्मों के पक्षधर बने रहे सकते हैं। समाज में सत्परम्परा की प्रतिष्ठापना, मानव जीवन में चरित्र निष्ठा का समावेश उसी स्थिति में सम्भव है जब इस सिद्धान्त को मानते हुए व्यवहार में उत्कृष्टता परिलक्षित होने लगे।


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