जीव जगत पर वातावरण की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रतिक्रियाएँ

February 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अच्छा सूत कातने के लिए वातावरण में एक निश्चित मात्रा में नमी की आवश्यकता होती है। सामान्य स्तर पर चर्खों से सूत कातते समय न तो उसकी उतनी आवश्यकता अनुभव की जाती है और न हर जगह वह स्थिति पैदा करना ही सम्भव है, किन्तु कताई मिलों में जहाँ महीन किस्म का सूत बड़ी तेजी से काता जाता है, वहाँ वायु में निश्चित आर्द्रता पैदा करनी ही पड़ती है। जहाँ फोटो ग्राफिक फिल्में डेवलप की जाती हैं, उस स्थान पर तापमान को एक निश्चित मर्यादा में ही रखना पड़ता है। यदि इसकी उपेक्षा की जाय तो सारे साधनों के होते हुए भी अच्छी फिल्में बनाना सम्भव नहीं हो सकता। विशेष औषधियों एवं रासायनिक पदार्थों के निर्माण में भी इसी प्रकार विशेष परिस्थितियाँ बनाकर रखी जाती हैं। किसी प्रयोगशाला चिकित्सालय, शोधसंस्थान की योजना बनाते समय भी उपयुक्त परिस्थितियों की खोज की जाती है। क्षेत्र विशेष के संस्कारों की अपनी महत्ता है। किसी स्थान के व्यक्तियों का स्तर कैसा होगा, यह वहाँ के दृश्यमान तथा परोक्ष वातावरण को ध्यान में रखते हुए बताया जा सकता है।

मनुष्य के शरीर में ही नहीं उनके स्वभावों में भी क्षेत्रीय विशेषता के अनुरूप अन्तर रहते हैं। संस्कृतियों दो आधारों पर बनती हैं- एक तो उस क्षेत्र के निवासियों का चिन्तन एवं रहन-सहन, दूसरे उस क्षेत्र की प्रकृतिगत भिन्नता विशेषता। इन दोनों प्रभावों को कारण उस क्षेत्र के निवासियों का एक विशेष ढर्रा बन जाता है और वह गुण, कर्म, स्वभाव में गहराई तक अपनी जड़े जमा लेता है। संस्कृतियों की भिन्नताओं के यही दो प्रमुख आधार हैं। यों मनुष्य स्वतंत्र और समर्थ है, वह अपनी संकल्प शक्ति के बल पर परम्परागत सभी दबावों को बदल सकने में सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्णतया सक्षम है। पर व्यवहार में होता यही है कि वातावरण अपने प्रभाव से उस क्षेत्र के मनुष्यों को ढालना चला जाता है।

व्यक्ति की मौलिक विशेषताओं को मान्यता देते हुए भी यह स्वीकार करना ही होगा कि उन समाज की बहू संख्या विचारणा से नहीं वातावरण के प्रभाव से जीवनयापन करती है। व्यापक क्रान्तियाँ कुछ लोगों को बदलने से सम्पन्न नहीं होती वरन् वातावरण में ऐसा परिवर्तन लाना पड़ता है कि जिसके प्रभाव से जन साधारण को परिष्कृत ढंग से सोचने और उपयोगी क्रिया-कलाप अपनाने का साहस एवं अवसर उपलब्ध हो सके।

जातियों और वंशों में कई प्रकार की अपनी-अपनी विशेषताएँ पाई जाती है। ब्राह्मणों में धार्मिकता, क्षत्रियों में अक्खड़ता-प्रखरता, वैश्यों में अर्थ दृष्टि, शिल्पकारों में क्रिया कुशलता जैसी विशेषताएँ दूसरों की अपेक्षा कुछ अधिक मात्रा में पाई जाती है। कायस्थ समाज में शिक्षा का बाहुल्य पाया जाता है। पिछड़े वर्गों में प्रायः अस्वच्छता, अशिष्टता और अस्त-व्यस्तता संव्याप्त पाई जाती है। कुछ में चोरी, उठाईगीरी की आदत जातीय विशेषता के रूप में होती है। कुछ कायरता और बेवकूफी के लिए बदनाम हैं। इनके कारणों की खोज करने पर एक यही तथ्य सामने आता है कि अमुक वर्ग के व्यक्तियों को अमुक प्रकार के वातावरण में रहने का अवसर मिलता है जिससे उसी के अनुरूप विशेषताएँ उनमें विकसित हो जाती हैं। वातावरण प्रयास पूर्वक बनाया गया या काल प्रभाव से संयोगवश बना। यह बात भिन्न है, किन्तु उसके प्रभाव का महत्व तो हर स्थिति में स्वीकार करना ही पड़ता है।

वनवासी जनजातियों में चित्र-विचित्र रिवाज पाये जाते हैं। उसके स्वभाव और अभ्यास भी अपने ढंग के होते हैं। सुधारकों के प्रयास उनमें परिवर्तन लाने के होते हैं पर वैसा कुछ अधिक प्रभाव हो नहीं पाता क्योंकि उनके चारों ओर घिरा हुआ वातावरण उन्हें यत्किंचित् सुधार स्वीकार करने की ही छूट देता है। परिवर्तन के लिए वातावरण बदलना आवश्यक है। बहुत से अफ्रीकी नीग्रो बहुत समय से अमेरिका में बस गये हैं। उनकी और उनके अफ्रीकी वंशधरों की आकृति में थोड़ा-सा ही फर्क पड़ा है, पर प्रकृति में भारी परिवर्तन आ गया है। अमेरिकी नीग्रो प्रायः अमेरिकी गोरों के स्तर का ही जीवनयापन करते हैं। उत्तरी ध्रुव के एस्किमो लोगों में से बहुत से कनाडा में आ बसे हैं। उस वर्ग के मूल निवासियों और केनेडियन एस्किमो वर्ग में आश्चर्यजनक अन्तर आ गया है। इसी प्रकार अन्यान्य देशों में जा बसने वाले अपने मूल देश की अपेक्षा नई परिस्थितियों में नये ढंग में ढलते-बदलते देखे जाते हैं। वातावरण के प्रभाव से बचे रहना आग्रहशील लोगों के लिए सम्भव है। सामान्य लोग तो परिस्थितियों के अनुरूप ढलते-बदलते चले जाते हैं। वस्तुतः मनुष्य जाति के शारीरिक मानसिक विकास में वातावरण की भूमिका असाधारण है।

वातावरण को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- स्थूल एवं सूक्ष्म। स्थूल वातावरण का परिचय स्थानीय जलवायु की विशेषताओं के रूप में मिलता है। सूक्ष्म वातावरण वह है जो मनुष्य की प्रकृति-स्वभाव को स्वाभावित करता है जिसमें विचारों एवं घटनाओं के सूक्ष्म संस्कार बने रहते हैं। जाने अनजाने उनकी भली-बुरी प्रेरणाओं को ग्रहण किया जाता है। जलवायु तथा वातावरण का स्थूल पक्ष मनुष्य की आकृति एवं प्रकृति की विशिष्ट संरचना के लिए भी एक सीमा तक जिम्मेदार है। विभिन्न समाजों में रहने वाली अगणित जातियों के विभिन्न प्रकार के रंग, रूप, शारीरिक गठन आकार आदि का सीधा सम्बन्ध जलवायु की विशेषता से जोड़ा जाता है।

श्वेत तथा गुलाबी वर्ण के लोग उत्तर-पश्चिमी योरोप के प्रारम्भिक निवासियों के वंशज हैं तथा वे शीतल जलवायु क अभ्यस्त होते हैं। सूर्य की तीव्र किरणों को उनकी त्वचा सहन नहीं कर पाती। दूसरी ओर भूरे तथा कोल वर्ण के लोगों की त्वचा सूर्य की तीव्र किरणों को सहन करने में सक्षम होती है। प्रायः अफ्रीका तथा एशिया महाद्वीप और ट्रापिकल मरुभूमि क्षेत्रों के लोगों में वह विशेषता पायी जाती है। तीसरे प्रकार के वर्ण के व्यक्ति वे होते हैं जिनका रंग पीला जैतून के रंग-सा अथवा पीला मिश्रित सफेद होता है। इसका वर्ण धूप के प्रभाव से शीघ्र ही ताम्र रंग का अथवा भूरा हो जाता है।

आकार एवं वजन पर भी जलवायु की स्थानीय विशेषताओं का प्रभाव पड़ता है। प्रायः ठण्डे क्षेत्र में रहने वाले गर्म प्रदेशों के निवासियों से अधिक लम्बे होते हैं। उत्तरी योरोप के लोगों को औसत वजन 70 से 80 किलोग्राम (150 से 175 पौंड) तक होता है। अपवाद स्वरूप इससे कम और अधिक वजन के व्यक्ति भी इन क्षेत्रों में पाये जाते हैं। अरब तथा दक्षिणी एशिया के निवासियों का वजन औसतन 50 से 60 किलोग्राम तक होता है।

ठण्डे प्रदेशों के मूल निवासियों का शारीरिक गठन लम्बा तथा गठीला होता है। जबकि अत्याधिक गर्म प्रदेश के लोग पतले तथा लम्बे होते हैं। उनकी उँगलियाँ पैर तथा हाथ भी लम्बे पाये जाते हैं। अरब देशों के निवासी प्रायः इन्हीं विशेषताओं से मुक्त होते हैं।

अफ्रीका के नीग्रो, योरोप के गोरे, चीन के मंगोल, अरब के तगड़े, कांगों के बौने एकत्रित करके यह जाना जा सकता है कि उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति में भी भारी अन्तर पाया जाता है। चेहरा, नाक, आँख, होंठ, बाल, नाखून जैसे अंगों को देखकर ज्ञात होता है कि वे विभिन्नताएँ उन समुदायों की निजी विशेषता है। इन विशेषताओं को पैदा करने में आनुवांशिक तथ्य तो जिम्मेदार हैं ही, भौगोलिक परिस्थितियों की भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। एक विशिष्ट प्रकार के वातावरण एवं जलवायु में पीढ़ी दर पीढ़ी रहने पर विशेष प्रकार की शारीरिक विशेषताओं को पैदा हो जाना तथा आगामी अनेकों पीढ़ियों के आनुवांशिक स्तर तक को प्रभावित कर देना एक ऐसी सच्चाई है जिसका समर्थन विकासवादी तथा एन्थ्रापालिस्ट्स भी करते आए हैं।

संसार की विभिन्न वर्ण एवं रूपों की अनेकानेक जातियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी कुशल चित्रकार ने अपनी तूलिका से उनमें विशेष प्रकार का रंग भरा हो। त्वचा के विभिन्न रंग बालों की संरचना, शरीर का गठन, मुखाकृति विभिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न तरह की पायी जाती है। अधिकाँश विशेषज्ञों का मत है कि आनुवांशिक कारणों के अतिरिक्त उन भिन्नताओं का सबसे प्रमुख कारण भौगोलिक है।

शरीर शास्त्री काल्टनकून ने 1965 में ‘लिविंग रेसेस आफ मेन’ नामक पुस्तक में शारीरिक गठन को आधार मान कर जातियों का विभाजन पाँच भागों में किया था। 1-काकेसाॅइड 2-मंगोलाॅइड 3-आस्ट्रेलाॅइड 4-कांगोआइड 5-केपोआइड। श्रीकूल का मत है कि अब से 35 हजार वर्ष पूर्व मानव की मात्र एक ही जाति थी जो बाद में विभिन्न भू-भागों पर वितरित होकर विभिन्न वातावरण के कारण पाँच भागों में विभक्त हो गयी। सन् 1500 तक ये पाँचों जातियाँ विशुद्ध रूप से विद्यमान थीं। पर यूरोपियन उपनिवेशवाद के विस्तार से जातियों की शुद्धता मारी गयी।

विद्वान डा. क्रिस्टीजीटर्नर का कहना है कि दाँतों की बनावट के आधार पर भी जातियों की भिन्नता जानी सकती है। दन्त संरचना के आधार पर उन्होंने मनुष्य जाति को 28 जातियों में बाँटा है। रेड इंडियंस के अगले दाँत फावड़े जैसे होते हैं। उनके दाँतों का मध्य भाग कुछ दबा होता है। यूरोपियन्स के दाँत सीधे होते हैं। सामान्यतः एशियाई लोगों के अगले काटने वाले चार दाँत होते हैं। जबकि रेडइण्डियन तथा उत्तर एशिया की जातियों में काटने के लिए पाँच दाँत प्रयुक्त होते हैं। अमेरिका के एस्किमो तथा उत्तर एशिया के बर्फीले प्रदेश में रहने वाले एस्किमो के दाँत भी एक जैसे पाये जाते हैं। उनकी तीसरी ऊपर की की दाढ़ खूँटी के आकार की होती है। दक्षिण एशिया में रहने वालों के दाँत प्रायः चिकने और सीधे होते हैं।

विभिन्न जातियों की इन अलग-अलग विशेषताओं के आधार पर उन्हें पहचाना जा सकता है। पर साथ ही इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि संसार की अगणित जातियों स्थान परिवर्तन भी करती रहीं हैं। उनके रक्त में सम्मिश्रण भी होता रहा है। साँस्कृतिक आदान-प्रदान विवाह, जलवायु, परिवर्तन आदि कारणों से उनकी जन्मजात विशेषताओं में भी अन्तर आया है। इन सबके बावजूद भी स्थानीय जलवायु का अपना महत्व अपना प्रभाव है।

यह भी एक विचित्र सत्य है कि एशिया, यूरोप, अफ्रीका हर महाद्वीप में उत्तरी भाग की अपेक्षा दक्षिण में रहने वालों का रंग अधिक गहरा होता है। जलवायु का प्रभाव आनुवंशिक स्तर तक हावी रहता है। यही कारण है कि एक वातावरण में जन्मे पले व्यक्तियों, जीवों तथा वनस्पतियों के लिए दूसरे भिन्न प्रकार की जलवायु के अनुकूलन में कठिनाई होती है। कठिनाई ही नहीं कितनी बार तो उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना अस्तित्व तक गँवाना पड़ता है। प्रायः देखा जाता है कि काला रंग सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से शरीर का बचाव करता है। यही कारण है कि काले लोग उष्ण कटिबंध में रहने के बावजूद भी स्वस्थ बने रहते हैं जबकि गोरी नस्ल के लोगों के लिए ऐसी जलवायु अनुकूल नहीं पड़ती। उनमें स्क्रीन कैंसर होने की संभावना बनी रहती है। काले व्यक्तियों के अधिक ठण्डे प्रदेशों में रहने से विटामिन डी की कमी पड़ने तथा ‘रिकेट्स’ रोग होने की गुंजाइश रहती है। कोरियाई युद्ध में काले हब्शिटयों में ‘फ्रोस्ट वाइट’ नामक रोग फैला। इसका कारण चिकित्सकों ने बताया कि अनभ्यस्त बर्फीले प्रदेश में रहने के कारण ही उन्हें यह रोग हुआ। मनुष्य ही नहीं अन्य जन्तुओं तथा वनस्पतियों के साथ भी यही बात है। ट्रापिकल क्षेत्रों में पहाड़ी प्रदेशों में रहने वाले रीछ, खरगोश यदि गरम प्रदेशों में पाले जायें तो वे मर जाते हैं। कितनी ही जड़ी-बूटियाँ ऐसी हैं जो हिमालय के वातावरण में ही पलती तथा अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकती हैं। नागपुरी सन्तरे, भुसावल के केले, महाराष्ट्र के अमरूद, कश्मीर के सेब यदि भिन्न जलवायु में उगाये जायें तो उनकी मौलिक विशेषताएँ नहीं आ पातीं। स्वाद एवं मिठास की दृष्टि से उनकी अपनी निज की विशिष्टता है।

हिमालय के मध्य में हजारों किस्म की पुष्पों की घाटियाँ हैं। फूलों की घाटी के नाम से प्रख्यात प्रकृति के वे सुरम्य स्थान तीर्थ यात्रा, तप, पर्यटन के लिये जाने वाले अगणित व्यक्तियों को आकर्षित करते तथा मन को अपने अद्वितीय सौन्दर्य से पुलकित करते हैं। वहाँ से विभिन्न प्रकार के दुर्लभ फूलों की पौध ले जाकर दूसरे ऐसे स्थानों पर लगाने के प्रयास कितने ही व्यक्तियों ने किये जहाँ का वातावरण अनुकूल न था। पर उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। किसी तरह वे पौध उग आये और फूल देने लगे तो भी उनमें वह सौन्दर्य, वह सौरभ नहीं जन्म ले सका जो हिमालय क्षेत्र के पुष्पों में पाया जाता है।

जीवों एवं वनस्पतियों की आकृति एवं प्रकृति को बदलने तथा उनमें निश्चित प्रकार की विशिष्टताएँ पैदा करने के लिए ‘क्रास ब्रीडिंग’ के जेनेटिक इंजीनियरिंग के विभिन्न प्रयोग पिछले दिनों चले हैं। पेड़, पौधों, वनस्पतियों तथा मनुष्येत्तर जीवों पर उनसे न्यूनाधिक सफलताएँ भी मिली हैं पर वे ऐसी नहीं है कि सन्तोष व्यक्त करते हुए कहा जा सके कि पूर्ण सफलता मिल गयी। प्रायः देखा यह गया है कि ऐसे प्रयोगों के उपरान्त उन घटकों की मौलिक विशेषताएँ मारी जाती है। एक उपलब्धि हासिल होती है तो दूसरी तरह की समस्या को भी जन्म देती है।

वस्तुतः जलवायु एवं आनुवांशिकी एक सीमा तक ही मानवी प्रकृति एवं आकृति के निर्धारण हेतु जिम्मेदार है। वातावरण के इन स्थूल पक्षों का अपना महत्व एवं प्रभाव है। उन प्रभावों में परिवर्तन कर करना थोड़ा-बहुत ही सम्भव है, पूर्णतः बदल सकना मुश्किल है। पर वातावरण का एक और भी पक्ष है जिसका महत्व पहले की तुलना में कम नहीं अधिक ही है। वातावरण तो मानवी चिन्तन, विचारणा एवं गतिविधि के समन्वय से उत्पन्न होता है, मानवी प्रकृति प्रायः उससे ही अधिक प्रभावित होती है। वातावरण के इस पक्ष के विनिर्मित करना पूर्णतः मनुष्य के हाथों में है। जिस परिवेश में वह रहता है उसके सूक्ष्म प्रभावों एवं संस्कारों को ग्रहण करके उसी के अनुरूप ढलता जाता है। उसके गुण-कर्म स्वभाव वैसे ही बन जाते हैं। जैसी भी पीढ़ियाँ बनानी हों, जैसा भी समाज का ढाँचा खड़ा करना हो, उसके अनुरूप ही वातावरण बनाना होगा। वैसा ही चिन्तन देना और शिक्षण चलाना होगा। इसमें वे ही सफल हो सकते हैं जिनने उन विशेषताओं को अपने व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बना लिया है। अवांछनीयताओं की विषाक्तता से भी वर्तमान वातावरण के बदलने तथा ऐसे माहौल को विनिर्मित करने- जिसमें श्रेष्ठ मानवों की ढलाई होती चले, जाज्वल्यमान व्यक्तित्वों की आवश्यकता है जो आगे आएँ, साँचे की भूमिका निभाएँ। जब-जब भी महामानवों की पीढ़ियाँ जन्मी हैं, ऐसे सूक्ष्म घटकों के आधार पर ही विकसित हुई हैं। आगे भी अब आवश्यकता पड़ेगी ऐसे ही वातावरण की जरूरत पड़ेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118