कथा वाचक गरीब ब्राह्मण पद्मनाभ कथायें बाच कर ही अपना निर्वाह करते थे। इस प्रकार जीविकोपार्जन के साथ-साथ सद्ज्ञान प्रचार का पुण्य प्रयोजन भी पूरा हो रहा था। धर्म ग्रन्थ का अध्ययन करते हुए उन्होंने एक स्थान पर पढ़ा- ज्ञानदान का प्रतिफल धन के रूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए।
उन्हें बड़ा दुःख हुआ कि अब तक वे इस नियम की अवहेलना ही करते थे। धर्म प्रचार के लिए जब वे कथायें किया करते तो लोग जो दक्षिणा देते उसी से अपना गुजारा चलाते थे। अब तक जो भूल हो गयी सो हो गयी अब न होने दूँगा। इस संकल्प के साथ उन्होंने जंगल में लकड़ी काटकर अपना गुजारा चलाना आरम्भ कर दिया। दान दक्षिणा में लोग पैसा तो चढ़ाते ही थे, उस धन का उपयोग वे गुरुकुल पुस्तकालय तथा अन्य जनोपयोगी कार्यों में करने लगे।