भूत और वर्तमान का भविष्य में विलयन नवयुग का आगमन

February 1984

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इन दिनों धन और शस्त्र को सामर्थ्य की प्रधानता मिल रही है। लालच का आकर्षण और आतंक का दबाव किसी से कुछ भी करा सकता है। यह बात लोगों के मनों में घर करती जा रही है। प्रत्यक्ष प्रचलन में ऐसा ही कुछ दीखता भी है।

कुछ समय पहले बलिष्ठता और बुद्धिमता का बुलवाना था। शरीर बल जिसमें होता था वह मनमानी करता था और डरा धमकाकर दूसरों से भी मनमर्जी पूरी करा लेता था। यही बात बुद्धिमता के सम्बन्ध में भी थी। वे कुछ भी कहते, लिखते और किसी को किसी भी दिशा में फुसलाकर धकेल देते थे। जनसाधारण को चतुरता के जाल में इस प्रकार फँसाते थे कि जाल में जकड़े हुए पक्षी की तरह न वे निकल सकते थे और न उस स्थिति में सन्तुष्ट रह सकते थे। बलिष्ठों को पंडित कहा जाता था। दोनों की पटरी मध्यकाल के अज्ञानान्धकार में खूब बैठी। उनने मिल-जुलकर भी और अलग-अलग से भी ऐसे माहौल खड़े किये कि जमाना कुछ से कुछ हो गया। सामन्तवादी युग की यह परिचर्चा है। उसमें किले भी खड़े हुए और स्वर्ण छत्र लगाकर चलने वाले महन्तों के ठाट-बाट भी उन्हीं जैसे हो गये। इन दोनों युगों का समाधान अभी भी नहीं हुआ है। वे जमे अभी भी हुए हैं और अपनी सामर्थ्य का परिचय देने के लिए मोर्चे पर डटे हैं। शासन के पास शासन बल और श्रीमन्तों के पास धन बल के भण्डार बढ़ते ही जा रहे हैं।

शरीर बल हेटा पड़ा है उसका स्थान सौन्दर्य शृंगार ग्रहण करता जा रहा है। अभिप्राय, गायन आदि की कलाओं को भी इसी आकर्षण में सम्मिलित कर लिया जाय तो अत्युक्ति न होगी। यह शरीर बल की बात हुई। बुद्धिमता अब साहित्य क्षेत्र के ऊपर केन्द्रित हो रही है। पत्रकार-साहित्यकार, प्रकाशक एक सशक्त वर्ग के रूप में विकसित हो रहे हैं। वे शिक्षित समुदाय को अपने इच्छित तरीके से सोचने और ढलने के लिए सहमत या विवश कर रहे हैं। साहित्य में भी दबाव होता है। उससे भी बन्दूक की नली की तरह ही क्रान्तिकारी वातावरण बनाता है। विज्ञान ने इस वर्ग को प्रेस के साथ-साथ फिल्म का भी एक नया आधार प्रदान किया है। इन दोनों के समन्वय से जनमानस को एक विशेष प्रकार के प्रवाह में बहने के लिए वाँछित होना पड़ रहा है। आज के लोकचिंतन पर लेखन और अभिनय की गहरी छाप है। लोग इस प्रवाह के साथ बहने के लिए सहज सहमत हो रहे हैं। आज के लोकमानस को इस वर्ग का विधाता भी कहा जा सकता है।

उपरोक्त शक्तियाँ अपनी सामर्थ्य का प्रभाव परिचय भली−भाँति दे रही हैं। उनकी क्षमता के प्रभाव परिणाम को हम सब आँखों से देख रहे हैं। शक्तियाँ पिछले दिनों की तुलना में प्रबल से प्रबलतर होती जा रही हैं। उनके प्रभाव परिणाम को देखकर सभी चमत्कृत हैं। विज्ञान ने इन सभी को पूर्वकाल की तुलना में असंख्यों गुना समर्थ बना दिया है। लगता है इन क्षमताओं से सम्पन्न लोग भले ही मुट्ठी भर क्यों न हो समय और प्रचलन को इच्छानुरूप ढालने में सफल होते चले जा रहे हैं।

चिन्ता का विषय एक ही है कि सामर्थ्य सम्वर्धन और प्रवाह प्रचलन मानवी गरिमा के अनुरूप नहीं बन पड़ा। जानबूझ कर या अनजाने उसने ऐसी दिशाधारा अपनाई जिससे मनुष्य उठा नहीं गिरा, बढ़ा नहीं, उलटा। यदि ऐसा न हुआ होता तो आज की बढ़ी हुई सर्वांगीण समर्थता मानवी प्रगति, समृद्धि और सुख शान्ति को न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचा चुकी होती।

दुर्भाग्य की भी प्रतिक्रिया होती है। ध्वंस भी नये सृजन का उत्साह उत्पन्न करता है। अन्धकार का स्थान प्रकाश ग्रहण करे, ऐसी क्रिया-प्रतिक्रिया की व्यवस्था नियति के विधान में पहले से ही मौजूद है। पेण्डुलम की गति एक तथ्य है। उत्थान नहीं टिका तो पतन के ही पैर कैसे सदा जमे रह सकते हैं। शक्तियों के स्रोत अपना चमत्कार दिखा चुके। वे खरे सिद्ध न हुए तो उनका स्थान ग्रहण करने के लिए अन्य तथ्य उभर कर आकर रहेंगे। सन्तुलन बिगड़े, विनाश जीते और शक्तियों का दुरुपयोग यथावत् चलता रहे, यह भी सम्भव नहीं। देखते हुए कुछ नई शक्तियों का उद्भव हो रहा है और वे विश्व के भाग्य भविष्य को नया मोड़ देने की तैयारी कर रही हैं।

देखने वाले देख सकते हैं कि एक शक्ति का उद्भव हो रहा है। उसका नाम है- भाव सम्वेदना। मनुष्य मूलतः दैवी कृति है। कषाय-कल्मषों के कुसंस्कार तो उस पर ऊपर से चढ़ते लिपटते रहते हैं। बहुमूल्य स्फटिक मणियाँ भी कीचड़ में लिपटने से काली कुरूप दीखती हैं। इतने पर भी अवसर मिलते ही वह अपने शुद्ध स्वरूप का परिचय देने लगती हैं। मनुष्य भावनाशील है। उसके अन्तराल की यह एक विशेष संरचना है। आत्मा का अपना अस्तित्व है और उद्देश्य, स्वरूप, पौरुष एवं प्रवाह भी। दबाव, आकर्षण, भटकाव उसे धकेलते घसीटते तो हैं, परन्तु सतर्कता उदय होती है। उसमें इतनी क्षमता भी है कि अपने स्थान पर मजबूती से खड़ी हो सके और अपने रास्ते, अपने पैरों, अपने विवेक से स्वयं ही चल पड़े।

भाव सम्वेदना की शक्ति का उद्भव इसी स्थिति में समझा जा सकता है। इन दिनों अदृश्य के अन्तराल में कुछ ऐसा ही पक रहा है, जिससे भाव-शक्ति के उदय उद्भव का पूर्वाभास मिलता है। ऊषाकाल की अरुणिमा देखकर यह अनुमान लगते देर नहीं लगती है कि अब व्यापक अन्धकार के पैर उखड़ने ही वाले हैं। अरुणोदय के साथ-साथ सारा वातावरण बदलने वाला है। उस माहौल से नव जागरण का माहौल बनता है और निशाचरों की फौज को अपनी माँद से बिना भगाये ही घुसने छिपने का मन करता है। ऐसे माहौल में पक्षियों की चहचहाहट ही नहीं प्राणि मात्र को कार्यरत होते और फूल पल्लवों तक को खिलते विकसित होते देखा जा सकता है। संक्षेप में भाव सम्वेदना के उदय उद्भव का तात्पर्य यही है।

भावना अर्थात् मानवी गरिमा के अनुरूप उठती उत्कण्ठा। उसे उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, श्रद्धा, शालीनता आदि नामों से भी जाना जा सकता है यह अपने आप में एक बड़ी शक्ति है। इतनी बड़ी जिसके सम्मुख धन, शस्त्र, बल और कौशल की अवांछनीयता कितनी ही सशक्त होने पर भी टिक नहीं पाती। उसे दिशा बदलने के लिए विवश होना पड़ता है। सरकस के रिंग मास्टर का हन्टर बबर शेरों और उन्मत्त हाथियों को भी धरती से नाक रगड़ने के लिए विवश कर देता है। भाव शक्ति का उद्भव ऐसे ही हन्टर की भूमिका सम्पन्न करने लगे तो किसी को भी इसे अप्रत्याशित या असम्भव नहीं मानना चाहिए।

इन दिनों अदृश्य में मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई मौलिक सामर्थ्य भाव श्रद्धा के रूप में प्रकट होने के लिए मचलती देखी जा सकती है। भीतर ही भीतर कुछ ऐसा उबल रहा है जिसे प्रसव पीड़ा की उपमा दी जा सकती है। न जाने कहाँ से- न जाने कैसे-कैसे इतने व्यक्ति एक साथ भाव सम्वेदनाओं का प्रतिनिधित्व करने अनायास ही दीखने लगे हैं। उनकी उमंगें प्राचीन काल के ऋषि, मनीषियों की तरह सोचने और देवताओं जैसे पराक्रम करने के लिए सान्निध्य हो रही है। वातावरण बदलने का यह पूर्व संकेत है।

भाव शक्ति का जब भी उदय हुआ है तो उसकी प्रखर प्रचण्डता देखते ही बनी है। इतिहास साक्षी है कि कुछेक महामानवों ने समय के उलटे प्रवाह को उलट कर सीधा कर दिया। इन दिनों भी भावनाशीलों की संख्या बढ़ रही है उनके चिन्तन और पौरुष में भी प्रखरता का अनुपात बढ़ रहा है। प्रज्ञा परिजनों की गतिविधियों पर दृष्टिपात करने से इस भवितव्यता का पता सहज ही चल जाता है। इस आधार पर यह अनुमान लगाने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि शक्तियों का उद्भव और दुरुपयोग का जो क्रम पिछले दिनों चलता रहा है उससे भिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने में अब देर नहीं है।


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