हम सभी जन्म मरण के चक्र में घूमते हैं।

February 1984

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सृष्टि की उत्पत्ति ओर समाप्ति के सम्बन्ध में भारतीय ज्योतिविदों की मान्यता आधुनिक अन्तरिक्ष विज्ञानियों के लगभग समान जा पहुँचती है। हिन्दू दर्शन के अनुसार ब्रह्माजी सृष्टि रचते हैं और उनका उत्पादन, अभिवर्धन और समापन क्रम सौ वर्ष तक लगातार चलता रहता है। इसके बाद वे निद्राग्रस्त होते और सौ वर्ष तक गहरी नींद में पड़े रहने के उपरान्त जब उठते हैं तब नई सृष्टि रचते हैं। निद्राकाल में उनका सृष्टि विस्तार भी सिमट जाता है और महाप्रलय जैसी स्थिति बन जाती है। इस समापन उत्पादन क्रम की विलक्षणता को अलंकार रूप में शिव ताण्डव नृत्य कहा गया है।

ब्रह्माजी का एक दिन 1 करोड़ बीस लाख वर्ष का माना गया है। तब तक ब्रह्माजी के क्रिया-कलाप में निरत हुए मात्र दो दिन और दो रात बीते हैं। इस काल गणना के हिसाब से ही वर्तमान वैज्ञानिकों का भी अभिमत मिलता है। वे भी महाप्रलय का अनुमान इतने ही दिन बाद होने की बात सोचते हैं।

खगोल विज्ञानियों का मत है कि हमारी मन्दाकिनी प्रति घण्टा 600 किलोमीटर की गति से कन्या राशि वाले अन्तरिक्ष क्षेत्र की ओर भाग रही है। न केवल अपनी वरन् अन्यान्य मन्दाकिनियों की प्रगति यात्रा उसी ओर है। लगता है वे बिखराव से ऊब कर फिर अपने पितृ ग्रह में एकत्रित होने के लिए मचल पड़ी है। सम्भव है बाल्यकाल उन्हें याद आता हो और उसी आँगन में फिर सहेली-सहेली की आँख-मिचौली खेलने के लिए भग चली हो।

ब्रह्माण्ड के फैलने की प्रतिक्रिया अन्ततः सिकुड़ने के रूप में होती है। इन दिनों ब्रह्माण्ड तेजी से फैल रहा है। फिर कुछ ही समय में उसकी गति धीमी हो जायेगी। ठहरने जैसी स्थिति आने के बाद वापसी का सिलसिला चल पड़ेगा और मूल द्रव्य लौटकर अपने पुरातन ध्रुव केन्द्र पर इकट्ठा हो चलेगा।

कार्ल साँगा की बहुचर्चित पुस्तक “कास्मॉस” में अपने ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और समाप्ति के सम्बन्ध में अनेक अनुमान लगाये गये हैं। अनुमानों को उन्होंने तर्क और प्रमाणों के साथ जोड़ा है और सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अनुमान सर्वथा सत्य न हो तो भी वे यथार्थता के अति समीप है।

ब्रह्माण्ड का आधारभूत द्रव्य एक धक्का के साथ फटा और पदार्थ उसके कारण दूर-दूर तक छितराया गया। उसने कहीं-कहीं तो अपने को सुव्यवस्थित ग्रह गोलकों के रूप में बदल लिया। कहीं वह अधपका पदार्थ ऐसे ही मन्दाकिनियों के रूप में धुँए बादलों की तरह बिखरा पड़ा है। स्वयं इस विचित्र स्थिति में रहते भी उसके उदर में कितने ही नक्षत्र अपनी सत्ता और शक्त बना चुके हैं। कई मन्दाकिनियाँ बहुत छोटी कई बहुत बड़ी हैं। वे सभी अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करती हैं। छितराती भी रहती हैं। कभी वे एक दूसरे के नजदीक से गुजरती हैं, तो कुत्तों की तरह एक दूसरे से झगड़ती और हमला बोलती भी देखी जाती हैं। इसमें कोई किसी का माँस भी नोच लेता है। जेब काटकर चम्पत बनती हैं।

सितारों के श्मशान में उनका अन्त्येष्टि कर्म किस प्रकार होता है यह और भी विचित्र है। अन्ततः उनकी राख इतनी भारी होती है जिसका एक चम्मच भर आकार धरती पर अवस्थित किसी पहाड़ के बराबर वजनदार हो। उस स्थिति में उन्हें सुपरनोवा एवं न्यूट्रान तारा कहते हैं। वे जिस अन्तरिक्ष पथ पर भ्रमण करते हैं उसकी स्थिति ‘ब्लैक होल’ जैसी हो जाती है। धरती पर बारमूडा क्षेत्र के नजदीक एक ब्लैक होल का पता चला है। इस अन्तरिक्षीय भँवर में फँसकर कितने ही जलयान वायुयान अदृश्य होते रहते हैं। ऐसे-ऐसे और भी अगणित भँवर इस अन्तरिक्ष में हैं जो अपने झपट्टे में आने वाले छोटे-छोटे उपग्रहों तक को उदरस्थ करते रहते हैं।

गणितज्ञों के हिसाब से अपना ब्रह्माण्ड प्रायः सात हजार करोड़ वर्ष का प्रौढ़ अधेड़ है। इसके मरने में इतना ही समय और लगना चाहिए। जब यह जन्मा था तब पिछले कल्प वाला ब्रह्माण्ड जरा-जीर्ण हो गया था और सिकुड़ कर एक सघन द्रव्य बनकर रह गया है। सिकुड़न का दबाव अत्यधिक बढ़ा तो वह फट पड़ा और वर्तमान आकाश गंगाएँ तथा तारक मण्डलियाँ बनकर खड़ी हो गईं। फटने से जो गति बनी वह अभी भी चल रही है और ब्रह्माण्ड का विस्तार लगातार फैल रहा है। गति गोलाई में चलती है इसलिए यह सभी ज्ञात अविज्ञात सघन और विरल ग्रह गोलक एक निर्धारित कक्षा बनाकर अनन्त आकाश में परिभ्रमण कर रहे हैं।

ब्रह्माण्ड विज्ञानियों ने निष्कर्ष निकाला है कि- ज्वलनशील तारकों की ऊर्जा, जैसे-जैसे ईंधन समाप्त होता है स्वभावतः मिटने लगती है। हाइड्रोजन ईंधन है और हीलियम उसकी राख। ईंधन की तुलना में राख का अनुपात प्रायः 12 प्रतिशत रह जाता है। इस प्रकार हलकापन बढ़ने से तारा अपना सन्तुलन खो बैठता है। धुरी पर घूमते हुए उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। कक्षा से घूमते हुए उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। कक्षा में घूमने की लम्बी यात्रा में भी देरी और थकान लगती है। साथियों का सहयोग घट जाता है फलतः उसकी सत्ता संकट में पड़ जाती है। सूजन के मरीज की तरह वह थुलथुला हो जाता है। आकार तो बढ़ता है, पर दीपक बुझते समय जैसे जोर से चमकता है, प्रभात से पूर्व जैसे अन्धेरा अति सघन होता है उसी प्रकार यह एक बार हारे जुआरी की तरह दाव लगाता है। पर कुछ बनता है नहीं। यह दम तोड़ते समय जोर से हिचकी लेने जैसी प्रक्रिया अन्तकाल को और भी समीप ला देती है। सिकुड़े हुए बुझे हुए तारक को श्वेत वामन कहते हैं। इस स्थिति में पहुँचने से पूर्व वह हिचकी लेने की बेला में ‘लाल दानव’ कहलाता है। मुँह फैलता जाता है और जो कोई ग्रह उपक्रम समेटने में आता है उसी को उदरस्थ करता जाता है।

अपना सूर्य पाँच अरब वर्ष पूर्व जन्मा था। अभी वह प्रौढ़ है। इससे दूने गुने समय तक मजे में ही जी लेगा क्योंकि उसकी आरम्भिक हाइड्रोजन सम्पदा में से प्रायः 10 प्रतिशत भाग ही हीलियम राख के रूप में परिवर्तन हुआ है। अगले पाँच अरब वर्षों में वह इतना ईंधन गँवा चुका होगा कि धुनी हुई रुई की तरह फूलने लगे। तब वह अब से 30 गुना अधिक बड़ा होगा। उसके पेट में बुध, शुक्र और पृथ्वी समा चुके होंगे। इसके बाद सिकुड़ने की बारी आयेगी। बुझते हुए अंगारे की तरह वह इतना छोटा हो जायेगा जितना कि इन दिनों अपनी पृथ्वी का आकार है। इतने पर भी उसका घनत्व उलट-पुलटकर उतना ही बचा रह जायेगा जितना कि आरम्भ में था।

ब्रह्माण्ड सर्वप्रथम एक सघन द्रव्य पिण्ड था। उसकी भीतरी हलचलें कुछ इस प्रकार घटीं कि स्थिरता न रही। विस्फोट हुआ और पदार्थ छितरण का छोटे-छोटे पिण्डों में बदल गया। यह गति जब थमेगी तो भी स्थिर न रहेगी। फैलाव सिकुड़ने में बदलेगा और फिर घनीभूत होकर पूर्व स्थिति में आ जायेगा।

जब इतनी बड़ी सृष्टि को जन्म-मरण के चक्र से होकर गुजरना पड़ता है और हर पदार्थ प्राणी जन्मता मरता रहता है न जाने क्यों अज्ञानी समुदाय यह नहीं सोचता कि अपना मरण भी निश्चित है। इसलिए समय रहते इस सुयोग का क्यों न सदुपयोग कर लिया जाय।


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