अपनों से अपनी बात

February 1984

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हर प्रज्ञा परिजन एक समर्थ एवं समग्र स्वाध्याय मण्डल बने

प्रज्ञा परिजनों को स्वाध्याय मण्डल के रूप में विकसित होने का अनुरोध सर्वत्र स्वीकारा गया है यह अतीव प्रसन्नता की बात है। परिजनों द्वारा भेजे गये विवरणों से यह प्रकट है कि अधिकाँश पाठकों का व्यक्तित्व विकसित हुआ है। वरिष्ठता और विशिष्टता का बोध होने पर हर जागृत आत्मा को अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश करना होता है। अन्तःकरण उमंगों और जीवनचर्या में तद्नुरूप विकास परिवर्तन न हो, यह हो ही नहीं सकता। यदि अन्तरात्मा में प्रकाश उभरा है- ईश्वरीय अनुग्रह उतरा है तो कदम भी उस दिशा में बढ़े हैं, जिसमें परमार्थ भी स्वार्थ साधन जैसा प्रिय लगने लगता है।

अखण्ड-ज्योति का हर सदस्य, अब संकल्प पूर्वक- दस को पढ़ाने सुनाने लगा है। साथ ही युग निर्माण योजना की प्रज्ञा अभियान आन्दोलन पत्रिका को भी मँगाते रहने की व्यवस्था बना ली गयी है। महीने में दो मासिक पत्रिकाएँ नियमित रूप से दस द्वारा पढ़े जाने का प्रभाव कुछ ही दिनों में स्पष्टतया दृष्टिगोचर होने लगेगा। जब तक किसी प्रसंग पर दृष्टि डाल लेना एक बात है और नियमिततः भावनापूर्वक स्वाध्याय सर्वथा दूसरी। मनोकामना के लिए अनास्थापूर्वक चिन्ह पूजा की तरह किया गया भजन पूजन निरर्थक भी जा सकता है। देवी-देवताओं को फुसलाने की विडम्बना असफल भी रह सकती है, पर आत्म-निर्माण के लिए- व्यक्ति के सुधार परिष्कार के लिए किया गया स्वाध्याय कभी निष्फल जा ही नहीं सकता है।

उपलब्ध सूचनाओं से विदित है कि अखण्ड-ज्योति के अधिकाँश पाठकों ने विकास विस्तार के इस प्रथम चरण को पूरी श्रद्धा के साथ स्वीकारा है और उसे नियमित रूप से कार्यान्वित करते रहने का व्रत भी धारण किया है। आधे लोग ऐसे हैं जिनने घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय स्थापित करने का एक कदम और आगे बढ़ाया है। पचास पैसा नित्य का बजट इस निमित्त रखा है और प्रज्ञा फोल्डरों के दैनिक स्वाध्याय का विशेष उपक्रम बना लिया है। प्रज्ञा पुराण के कथा माध्यम से उनने अपने घरों में सत्संग चालू कर दिया है। घर में नित्य प्रेरणाप्रद कथा वाचन चल पड़ने से सभी बाल वृद्ध उसमें रस लेने के लिए सम्मिलित होने लगे हैं।

यह सरल आकर्षक और प्रेरक सत्संग क्रम जिन घरों में चला है उनमें से प्रत्येक ने यह अनुभव किया कि यह प्रयास परिवार में स्नेह सौजन्य बढ़ाने की दृष्टि से कितना अधिक महत्वपूर्ण है। सोचते हैं कि अब तक क्यों न इस दिशा में जानकारी मिली। क्यों न यह उपक्रम पहले से ही घर से चला। यदि कुछ समय पूर्व से ही प्रज्ञा पुराण कथा चल पड़ी होती तो उसका प्रभाव अब तक गृहस्थ जीवन में कितना उपयोगी परिवर्तन कर चुका होता। पचास पैसा बजट में घर में स्थापित ‘प्रज्ञा पुस्तकालय’ सर्वत्र एक स्थायी सम्पदा बढ़ने के रूप में अनुभव किया गया है। इस अल्प बचत योजना के बदले में जो रत्न राशि घर में जमा होती चली जा रही है उसे असंख्य गुने लाभ जैसा व्यवसाय अनुभव किया जा रहा है।

यह जूनियर स्वाध्याय मण्डलों की स्थापना हुई इसमें व्यक्तिगत प्रयास से ही काम चल गया है। इसके लिए किसी बाहरी व्यक्ति के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ी और न कहीं घर से बाहर जाना पड़ा। घर के शिक्षितों को प्रज्ञा साहित्य पढ़ाने, सुनाने भर से बात बन गई। घर आते-जाते रहने वाले मित्र पड़ौसी भी उससे लाभ उठाने लगे।

नित्य की न्यूनतम उपासना में हर घर परिवार के चौबीस बड़े सदस्य भाग लेने लगे हैं। खड़े-खड़े दस मिनट चौबीस गायत्री मन्त्रों का मानसिक उच्चारण और उदीयमान सूर्य का ध्यान किसी को भी न भारी पड़ा है न अखरा है। स्नान की- समय की अनिवार्यता न रहने से सुविधापूर्वक इतना कर लेने में किसी को भी आपत्ति नहीं हुई है। महाप्रज्ञा के चित्रों की घर-घर स्थापना का क्रम भी तेजी से चल पड़ा है।

अनुरोध की कहाँ क्या प्रतिक्रिया हुई इसका विवरण गत अंक में पूछा गया था। अधिकांश पाठकों ने उसके उत्तर दे दिये हैं। कुछ ही ऐसे हैं जिनके उत्तर अभी नहीं आये हैं। देर सवेर में पहुँचेंगे वे भी। उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर यह विदित हुआ है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के दो तिहाई परिजनों ने जूनियर स्तर के स्वाध्याय मण्डल स्थापित कर लिये हैं और ‘एक से दस’ का विकास विस्तार क्रम नियमित रूप से कार्यान्वित करना आरम्भ कर दिया है।

एक चौथाई ऐसे हैं, जिनने सीनियर स्तर के स्वाध्याय मण्डल विनिर्मित करने का साहस किया है। उत्साह और प्रयास उभरा तो एक सप्ताह की दौड़-धूप अपनाने भर से वह सारी व्यवस्था बन गई जो आरम्भ में अत्यधिक कठिन प्रतीत होती थी। संकोची, आलसी, आत्महीनता ग्रस्तों की बात दूसरी है, अन्यथा प्रतिभावान मिलनसार प्रकृति का हर व्यक्ति दो चार घनिष्ठ मित्रों की मण्डली संजोये रहता है। यह लोग आपस में एक दूसरे को समर्थन करते और हाथ बँटाते रहते हैं। दोस्ती का आखिर कुछ तो दबाव पड़ता है। जब अनुचित कार्यों के लिए भी मित्रों का आग्रह मानना पड़ता है तो उचित, उपयोगी एक महत्वपूर्ण परमार्थ प्रयोजन के लिए मण्डली का सहयोग अर्जित न किया जा सके ऐसा हो ही नहीं सकता। जिनने भी सीनियर स्वाध्याय मण्डल स्थापित करने के लिए उमंग भरा साहस जुटाया है उन्हें दृष्टि दौड़ाते ही अपने घनिष्ठ क्षेत्र में सहयोगी मिल गये हैं। पूरी बात ठीक तरह समझाई गई है तो उस कार्य में हाथ बँटाने वाले दो चार तो अपनों में से ही मिल गये हैं। इतने भर से काम चल गया है।

सीनियर स्वाध्याय मण्डल का प्रधान एवं विशेष कार्य एक ही है- ज्ञानरथ प्रज्ञा संस्थान का ढाँचा खड़ा करना। उसके लिए एक पूरे या अधूरे समय का कार्यकर्ता नियुक्त करना। इसके लिए एक हजार की चल पुस्तकालय धकेल गाड़ी का और एक हजार के साहित्य का प्रबन्ध करना। यह दो हजार की राशि ही इस स्थापना की मूल लागत है।

चूँकि यह धन कहीं बाहर भेजा जाना नहीं है। किसी को दान में दिया जाना नहीं है। सदा हाथ के नीचे और आँख के सामने ही रहना है। इसलिए इस व्यवस्था में बहुत कठिनाई नहीं पड़ी। यह विश्वास किया गया है कि इस पूँजी की कभी आवश्यकता पड़ने पर कुछ ही घाटा देकर हाथों-हाथ बेचा जा सकता है और लागत को वापस किया जा सकता है। ऐसी दशा में दो हजार की पूँजी का जुटाना इतना कठिन कार्य नहीं था, जितना कि प्रतीत होता है। खाते-पीते आदमी एक तोला सोना तो बाल-बच्चों को किन्हीं छोटे-मोटे जेवरों के रूप में लटका देते हैं। यह एक तोले सोने जितनी ही राशि तो है। इसे कोई भी उदारचेता, पैसों की उलट-पुलट करके सँजो सकता है। सँजो भी लिया गया है। कहीं-कहीं मित्र मण्डली ने मिल-जुलकर यह राशि जुटाई है। कइयों ने इसके लिए अपने परिचय क्षेत्र से चन्दा भी किया है। जब कुछ करना ही ठहरा तो उसका प्रबन्ध हो ही जाता है। बेटों के विवाह में सर्वथा खाली हाथ होने पर भी जिधर-तिधर से किसी न किसी प्रकार व्यवस्था बनाई ही जाती है। कार्य की महता समझने वालों के लिए यह कठिन नहीं पड़ा कि वे ज्ञानरथ की लागत पूँजी का प्रबन्ध न कर सकें। उपेक्षा अनास्था और आलस्य के अतिरिक्त यह सरंजाम जुटने में कहीं भी वास्तविक व्यवधान अड़ा नहीं है काल्पनिक कठिनाई तब देखते-देखते तिरोहित हो गई, जब उसके लिए व्यावहारिक कदम उठाये गये।

एक व्यक्ति नियुक्त करना तभी तक कठिन था जब इसके लिए ब्रह्मज्ञानी या वानप्रस्थी ढूँढ़ा जा रहा था। खाली समय वाले उत्साही लड़के इसके लिए हर जगह मिल गये। प्राइवेट पढ़ाई उत्तीर्ण होने के महत्वाकाँक्षी के लिए चार घण्टे उपार्जन के लिए लगाने वाले शिक्षक हर जगह उत्सुक पाये जाते हैं। कठिनाई पूछताछ और ढूँढ़ खोज करने भर की है। घर बैठे कोई पूछता आये यह कठिन है पर पचास चालीस के कान में बात डाल देने या शिक्षा क्षेत्र में एक छोटा पर्चा बाँट देने से ऐसे वयस्क लड़के सहज ही मिल जाते हैं, जिन्हें थोड़ी सी ट्रेनिंग के सहारे कुछ दिन साथ रहकर इस कार्य में निष्णात न बनाया जा सके। आमतौर से ऐसे लड़के 150 रु. मासिक में चार घण्टा काम करने के लिए मिल गये हैं। रिटायर्ड स्तर के ग्राम सेवक अध्यापक लोग भी जहाँ-तहाँ मिले हैं। पूरे समय के लिए वे 300 रु. मासिक पर तैयार भी हो गये हैं। जिन्हें खाना पूरी करने की पुरानी आदत थी वे तो नहीं खप सके पर उनमें से जो परिश्रमी, सेवा भावी एवं ईमानदार थे वे इसे ‘गोरस बेचन हरि मिलन” जैसा सुयोग समझकर खुशी-खुशी इस कार्य में जुट गये।

आरम्भिक पूँजी दो हजार की जुटने के उपरान्त दूसरा प्रश्न यही सामने आया कि अधूरे या पूरे समय के लिए नियुक्त कार्यकर्ता का निर्वाह व्यय कहाँ से- कैसे जुटाया जाय? इसके लिए आमतौर से तीन उपाय काम में लाये गये। (1) बिना मूल्य घर बैठे कुछ दिन नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पढ़ाते रहने वालों ने चल पुस्तकालय की सदस्यता स्वीकार कर ली और इसके लिए दो या तीन रुपया मासिक देने लगे। (2) पढ़ाने के साथ पुस्तकें- स्टीकर- चित्र आदि बेचने का सिलसिला चल पड़ा और उसके कमीशन से कुछ बचने लगा। (3) कुछ कमी पड़ी तो मित्र मण्डली ने मिल-जुलकर उसकी पूर्ति कर दी। इस प्रकार इस व्यवस्था के जुटाने में कहीं इतनी कठिनाई नहीं पड़ी है कि ज्ञानरथ चलाने के लिए नियुक्त कार्यकर्ता का वेतन न चुक सके। जिनने पूँजी जुटा ली है, उन्हें मासिक वेतन की व्यवस्था बनाने में भी कठिनाई नहीं पड़ी।

ज्ञानरथ को प्रज्ञा संस्थान कहा गया है। वह प्राचीन काल के चल देवालयों की तरह है। जमीन खरीद कर निजी इमारतों वाली प्रज्ञापीठें बनाने में जितना धन और श्रम लगा है उसकी तुलना में यह चल देवालय सौ गुने सस्ते हैं साथ ही कहीं अधिक उपयोगी भी हैं। इमारतों वाले मन्दिर बनाने वाले जानते हैं कि उन्हें कितनी दौड़-धूप करनी और किस-किस प्रकार कितनी राशि जुटानी पड़ी। कितनों का सहयोग माँगना पड़ा। इसकी तुलना में ज्ञानरथ- चल देवालय में लगने वाली दो हजार की राशि इतनी हल्की-फुलकी थी कि वह एक दो के सहयोग से ही जुट गई। साथ ही स्थिर प्रज्ञापीठ की तुलना में कहीं अधिक फलप्रद एवं सरल सिद्ध हुई। सरल इसलिए कि उनमें धन कम लगा- नित्य की पूजा-अर्चा और टूट-फूट मरम्मत का खर्च सिर पर न चढ़ा। मन्दिरों में दर्शक कम पहुँचते हैं। जबकि ज्ञानरथ द्वार-द्वार पहुँचकर महाप्रज्ञा का अमृत बाँटते रहने का पुण्य फल कहीं अधिक मात्रा में कमाता है।

अब नित्य देव दर्शन के लिए मन्दिरों में पहुँचने वालों की संख्या दिन-दिन घटती जा रही है। कुछ की वृद्धजन नित्य पहुँचते हैं। इसके विपरीत महाप्रज्ञा गायत्री का तत्वज्ञान हजारों तक नित्य पहुँचाने में ज्ञानरथ समर्थ रहता है। गायत्री तत्वज्ञान की ही प्रकारान्तर से प्रज्ञा साहित्य के रूप में व्याख्या विवेचना होती रहती है। प्रतिभा के माध्यम से लोक शिक्षण का उद्देश्य जितना पूरा होता है उसकी तुलना में स्वाध्याय के माध्यम से प्रयोजन की पूर्ति कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही होती है। प्रतिमा दर्शन से देवता को वश में करके मनोकामना पूर्ण कराने की बात सोचने की अपेक्षा यह तथ्य अधिक सही है कि प्रज्ञा को अन्तःकरण की गहराई तक पहुँचाया जाय और मनन-चिन्तन के माध्यम से उसे जीवनचर्या में सम्मिलित किया जाय। इस कसौटी पर कसने गायत्री मन्दिर खड़ा करने की तुलना में चल प्रज्ञा संस्थान विनिर्मित करने की उपयोगिता रत्ती भर भी कम सिद्ध नहीं होती। लागत कम और भावी झंझट कम होने की दृष्टि से भी यह अधिक सरल है। देवालयों में पूजा-पुजारी का, बिजली मरम्मत का जितना चालू खर्च बँधता है उसकी तुलना में ज्ञानरथ के लिए नियुक्त कार्यकर्ता कहीं सस्ता पड़ता है। ऐसी ही यथार्थताओं से अवगत प्रज्ञा परिजनों ने बड़ी संख्या में ज्ञानरथ बनाने चलाने का नया उपक्रम अपनाया है। इसे निजी इमारत वाली प्रज्ञा पीठ खड़ी करने के समतुल्य ही महत्वपूर्ण एवं पुण्य परमार्थ का काम माना है। यही कारण है कि उनकी स्थापना इन्हीं दिनों अप्रत्याशित रूप से हुई है। संख्या उससे कही अधिक जा पहुँची, जितनी कि विगत दो वर्षों में बने प्रज्ञापीठों की है।

ज्ञानरथ का प्राथमिक रूप से तो इतने भर से पूरा हो जाता है कि उसे एक कार्यकर्ता आधे दिन या पूरे दिन ऐसे स्थानों, मुहल्लों, दफ्तर, कारखानों, पार्कों, घाटों के समीप घुमाये जहाँ विचारशील लोगों का आवागमन होता है। साहित्य नियमित पाठकों को देने वापस लेने का क्रम भी चलता रहे और जहाँ बिक्री की सम्भावना है वहाँ भी पहुँचते रहा जाय।

इसके उपरान्त यदि उन्हें प्रज्ञा संस्थान के रूप में विकसित होना है तब रात्रि के सत्संग व्यवस्था भी इसी के साथ-साथ जुटानी होगी। सत्संग के लिए अब किसी ज्ञानी प्रवक्ता की आवश्यकता नहीं रही। यह कार्य स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर के तीन उपकरणों का त्रिगुट मिलकर भली-भाँति पूरी करते रह सकता है। इन तीनों की लागत भी दो हजार के करीब ही बैठती है। कार्यकर्ता अतिरिक्त नहीं रखना पड़ता। रात्रि के सत्संग क्रम में उपरोक्त उपकरणों द्वारा सम्पन्न किये आयोजन में जितना समय लगे उतना दिन में से कम कर लेने पर यह दुहरा प्रयोजन भी साथ-साथ चलता रह सकता है।

इन त्रिविधि उपकरणों की तथा आरम्भिक ज्ञानरथ पूँजी की समूची राशि चार हजार के लगभग बैठती है। इसके लिए जहाँ सम्भव था वहाँ स्मारिका प्रकाशन की योजना बनी और पूर्णतया सफल हुई है। बीस-तीस व्यापारियों से विज्ञापन संग्रह करने के लिए किसी प्रभावशाली व्यक्ति को साथ लेकर निकल पड़ने भर से काम चल जाता है। विज्ञापन मिलना इन दिनों सरल है इससे छपाने वाले को भी इनकम टैक्स से कुछ न कुछ राहत मिलती है। प्रशंसा सभी चाहते हैं। विज्ञापन से व्यापार भी बढ़ता है। इतना विज्ञापन समेटने के लिए तीन-चार दिन की दौड़-धूप से काम चल सकता है और उससे इतना मिल सकता है जिससे छपाई-खर्च काट कर चार हजार की पूँजी बच सके। यह स्मारिका जिन व्यापारियों या प्रतिष्ठित व्यक्तियों के हाथ पहुँचती है उन तक मिशन का परिचय भी पहुँचता है और नये सहयोग का नया द्वार खुलता है। स्मारिका के लिए लेख एवं छपने जैसा प्रबन्ध शान्ति-कुंज को सौंपा जा सकता है। बाजारू लागत से कहीं अधिक सस्ती सही और जल्दी यह व्यवस्था इस आधार पर बन सकती है।

इसी सन्दर्भ में एक नया प्रकरण मिशन में रुचि लेने वाले विशिष्ट व्यक्ति के जन्म दिवसोत्सव मनाये जाने का है। जिनका जन्मदिन हो, वे अपने मित्र पड़ौसियों के आमन्त्रित एकत्रित भी कर लें। शेष सारी व्यवस्था बनाने एवं खर्च करने की जिम्मेदारी स्वाध्याय मंडल उठा लें। इसके लिए एक छोटा स्थायी यज्ञ मण्डप एवं पूजा उपचार के सारे उपकरण दो ढाई सौ की लागत में बन जाते हैं। आयोजन पर खर्च भी नगण्य जितना आता है पर उस छोटे समारोह से प्रचार कार्य तथा उत्साह अभिवर्धन अत्यधिक होता है। जिसका जन्मदिन मनाया जाए उसके यहाँ ज्ञानघट स्थापित करने के अनुरोध रहे। उसे कोई भी मना न करेगा और बीस पैसा नित्य उससे जमा होते रहने से छह रुपया मासिक की आय होने लगती है। इस आधार पर नियुक्त कार्यकर्ता का वेतन चुकाते रहने में बहुत बड़ी सहायता मिलती है। आजीविका अधिक होने लगे तो एक के स्थान पर दो ज्ञान रथ भी चलाये जा सकते हैं और अन्यान्य उपकरण दूने भी किये जा सकते हैं। इस आधार पर अपना ग्राम, कस्बा ही नहीं दूसरे किसी समीपवर्ती स्थान तक भी आलोक वितरण का उपरोक्त क्रम आगे बढ़ सकता है।

कई स्थानों पर कई स्तर के प्रज्ञा परिजन हैं। कुछ ऐसे हैं जो स्वाध्याय मण्डल के आवश्यक सभी उपकरण जुटाने के लिए 4-5 हजार की व्यवस्था अपने पास से यहाँ जहाँ-तहाँ ये देखते-देखते कर सकते हैं, पर वे समय नहीं दे सकते। कुछ ऐसे हैं जो समय दे सकते हैं, पर पैसे का प्रबन्ध नहीं कर सकते। ऐसे स्थानों पर दोनों स्तर के लोग परस्पर सहयोग करके अन्धे-पंगे के सुयोग से नहीं पार उतरते जैसा उदाहरण बना सकते हैं।

कितनों ने ही समयदान की प्रतिज्ञाएँ की थीं। वे अन्यत्र न सही अपने यहाँ उस समय को ज्ञानरथ चलाने में देते रह सकते हैं। प्रश्न नियमितता और स्थिरता का है। जब उमंग उठी तब कुछ कर दिया, फिर जब उफान उतरा तो पैर पसार दिये। ऐसी अस्थिर मति से कभी कोई महत्वपूर्ण कार्य बन नहीं पड़ते। संसार में कभी कोई ठोस काम कर सके हैं तो उसके पीछे नियमितता और व्रतशीलता का सुनिश्चित समावेश रहा है। सुल्तानपुर के बाबू लखनलाल एडवोकेट का उदाहरण सर्वविदित है। वे वर्षों कचहरी से लौटते ही ज्ञानरथ चल पुस्तकालय की धकेल गाड़ी लेकर युग साहित्य पढ़ाने और बेचने निकलते रहे हैं। इस आधार पर उनने अपने नगर को जागृति का केन्द्र बनाया। अत्यन्त शानदार 51 कुण्डी गायत्री यज्ञ सम्पन्न किया और सहयोगियों में सक्रियता फूँककर गायत्री शक्तिपीठ का निर्माण कार्य सम्पन्न कराया। अन्यत्र भी लगनशील व्यक्ति इसी प्रक्रिया का अनुसरण कर सकते हैं। वानप्रस्थ, परिव्राजक, समयदानी यदि चाहें तो बिना कोई वैतनिक व्यक्ति नियुक्त किये, अकेले या मिल-जुलकर स्वाध्याय मंडल के साथ जुड़े हुए प्रज्ञाचक्र घुमाने के उपक्रम को सहज ही पूरा करते रह सकते हैं।

स्थानीय वातावरण को मिशन के प्रति अधिक आकर्षित करने का सबसे अच्छा तरीका अपने यहाँ ‘प्रज्ञा आयोजन’ की व्यवस्था करना है। इस तीन दिवसीय सम्मेलन समारोह में जितनी भी उपस्थिति होती है, वह अभियान के उद्देश्य, स्वरूप और कार्यक्रम से अवगत ही नहीं अनुप्राणित भी होती है। इस प्रयोजन के लिए शान्ति-कुंज से प्रचारक मण्डलीयों की जीप व्यवस्था बनी है। उसी में प्रवचन मण्डली, चित्र प्रदर्शनी, यज्ञशाला, लाउडस्पीकर जैसे सभी आवश्यक उपकरण भेज दिये जाते हैं ताकि आयोजन कर्ताओं को कुछ भी साधन जुटाने की आवश्यकता न पड़े। प्रचारक मण्डली के पाँच सदस्य संगीत का भावभरा वातावरण बनाते हैं और प्रवक्ता प्रज्ञा पुराण की कथा इस प्रकार कहते हैं, जिससे पुरातन को अर्वाचीन के साथ जोड़कर युग परिवर्तन की समुचित पृष्ठभूमि बन सके।

ढाई दिन के कार्यक्रम में प्रातः पाँच कुण्डली गायत्री यज्ञ हर दिन होता रहता है। मध्याह्न विचारगोष्ठी एवं चित्र-प्रदर्शनी का कार्यक्रम रहता है। रात्रि को संगीत प्रवचन सभा। इस आयोजन में स्थानीय विचारशील लोगों को यदि घर-घर जाकर आमन्त्रित किया जा सके तो उपस्थिति भी ऐसी होती है, जिसे हर दृष्टि से उत्साहवर्धक कहा जा सके।

समूचे उपकरणों समेत पाँच प्रचारकों की जीप मण्डली का औसत खर्च चार पाँच सौ रुपया आता है। अन्य खर्चों में भी सौ दो सौ से अधिक खर्च नहीं पड़ता। इस प्रकार समर्थ स्वाध्याय मंडल यदि चाहे तो पाँच सात सौ की व्यवस्था करके अपने यहाँ एक प्रज्ञा आयोजन भी सम्पन्न कर सकते हैं। जन जागृति की दृष्टि से इन आयोजनों का प्रभाव अत्यन्त ही उत्साहवर्धक होता है। उससे स्वाध्याय मण्डल का कार्यक्षेत्र बढ़ने एवं जन साधारण का सहयोग मिलने में भारी सुविधा होती है।

घरों में जन्मदिवसोत्सवों की पारिवारिक विचारगोष्टियाँ होती रहें और वार्षिकोत्सवों के रूप में हर स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा आयोजन सम्पन्न करता रहे तो समझना चाहिए वह सारी व्यवस्था छोटे रूप से भली प्रकार बन गई जिसके लिए पिछले दिनों प्रज्ञा पीठों की स्थापना की गई थी। अब नई प्रज्ञा पीठें, चल प्रज्ञा मन्दिर के रूप में ही होनी चाहिए। 2400 प्रज्ञापीठें बन चुकीं। अब 2400 ज्ञानरथ प्रज्ञा संस्थानों के रूप में उस निर्धारण को अधिक सरल और अधिक व्यापक बनाया जाना है।

अखण्ड ज्योति परिजनों में से जो प्रतिभाशील वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र स्तर के हैं उन्हें सीनियर स्वाध्याय मण्डल के रूप से उपरोक्त कार्यक्रमों को अपनाने के लिए कहा गया था। प्रसन्नता की बात है ऐसी प्रतिभाएँ हजारों की संख्या में इन्हीं दिनों उभर कर आगे आ रही हैं।


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