प्रेत बाधा एक चिकित्सा योग्य मनोरोग

February 1984

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भूत बाधा के नाम से प्रचलित एक प्रकार के आवेश का लक्षण एवं प्रभाव ऐसा होता है जिसे देखते हुए उसे बहानेबाजी या सनक भी नहीं कहा जा सकता। उसके प्रभाव प्रत्यक्ष दीखते हैं। उन कारणों से रोगी का जीवनक्रम ही अस्त-व्यस्त नहीं हो जाता कई बार तो जान पर बन आती है और बुरी तरह बर्बादी उठानी पड़ती है। ऐसी दशा में उसे झुठलाया कैसे जाय। कोई क्यों ऐसी बहानेबाजी करेगा, जिससे उसे कष्ट सहना और बहुत कुछ गँवाना पड़े। दूसरों का ध्यान आकर्षित करने- सहानुभूति पाने के लिए कई लोग कई प्रकार के चित्र-विचित्र आचरण तो करते और मन गढ़न्त करतूतें भी दिखाते हैं। इसमें प्रेत बाधा का खेल भी शामिल हो सकता है। पर हर परिस्थिति में यह बात सही नहीं होती। कई बार कई लोग इस संकट में बुरी तरह फँसे पाये जाते हैं।

फिर ऐसे उपद्रव या आक्रमण प्रेत ही करते हों, आवेश या उन्माद खड़े करते हों, यह बात प्रेत विज्ञान से प्राप्त जानकारियों से सर्वथा भिन्न है। मृतात्माओं का अस्तित्व होना- उनका व्यक्ति विशेष के साथ सम्बन्ध जुड़ना एक बात है। उन्माद या आवेश आना- आवेशग्रस्त का असाध्य रोगी की तरह विपत्ति में फँस जाना सर्वथा दूसरी। फिर यदि प्रेत आदेश सचमुच ही होता है तो फिर वह पिछड़े लोगों या क्षेत्रों में ही क्यों पाया जाता है। समझदार लोगों में वैसा कुछ क्यों नहीं होता?

यह प्रश्न ऐसे हैं जो अपना निश्चित समाधान माँगते हैं। इस सन्दर्भ में विज्ञजनों ने लम्बी खोजों के बाद इस स्थिति की अचेतन मन की विलक्षण विकृति कहा है। ऐसी या इससे मिलती-जुलती विकृतियों संसार भर में देखी गई हैं जिन्हें कोई चाहे तो प्रेत बाधा भी कह सकता है।

शारीरिक रोगों की बढ़ोतरी के इस युग में मानसिक रोगों की भी चित्र-विचित्र किस्में निकली हैं। उन्माद आमतौर से उसे कहा जाता है जिसमें व्यक्ति सामान्य लोक व्यवहार और चिन्तन की मर्यादाओं का व्यतिक्रम करके कुछ भी सोचने और कुछ भी करने लगे। ऐसे लोग कई बार निष्क्रिय हो बैठते हैं, कई बार आक्रामक रुख अपनाते हैं। कुछ घर छोड़कर कहीं भी चले जाते हैं और कुछ भी करते हुए जिधर-तिधर भटकते हैं। किन्तु अब नये किस्म के उन्मादों में ऐसी धाराएँ भी जुड़ी हैं जिनमें व्यक्ति सामान्यतया लोक व्यवहार निभाता है पर कभी-कभी कोई आवेश चढ़ता है और नशेबाजों की तरह अपनी पूर्व धारणा की अभिव्यक्ति करने लगता है। इन्हें एक विशेष प्रकार की सनकें कहा जा सकता है जो यदा-कदा उभरती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जो स्वभाव में अपने लिए स्थान बना लेती हैं।

उत्तरी ध्रुव पर निवास करने वाले एस्किमो लोगों में कभी-कभी किसी-किसी पर एक भयानक मानसिक रोग चढ़ दौड़ता है। इसमें वह आपे से बाहर हो जाता है और ऐसा लगता है कि कोई उससे यह सब बलपूर्वक करा रहा है।

आँखें लाल हो जाती हैं, माँसपेशियाँ जकड़ जाती हैं, पसीना छूटता है। आवेशग्रस्त मनःस्थिति में पत्नी तक रेन्डियर हिरन जैसी दिखती है और उस पर आक्रमण कर बैठने पर उतारू दीखता है। मुँह से लार टपकती है। भूख से तड़पड़ाता है और जो भी हाथ पड़े, खाने लगता है। स्थिति पूर्णतया उन्मादी जैसी होती है।

यह उस क्षेत्र का प्रख्यात रोग है। इसे उस क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टरों ने “विन्ड्रेगो” नाम दिया है। वहाँ के निवासी इसे ‘हिम दानव’ का आक्रमण कहते हैं। विश्वास करते हैं कि यह उस क्षेत्र के अधिष्ठाता महादैत्य का आक्रमण है जो भूखा होने पर किसी को भी क्षुधा निवृत्ति के लिए चुन सकता है। जिसे पकड़ता है उसे फिर जीवित नहीं छोड़ता।

उन्माद जब अति-स्तर पर होता है तो रोगी किसी को भी मार डालने जैसे आक्रमण करता है। साथ ही यह भी कहता है कि यदि बचना है तो मुझे मिल-जुलकर मार डालो। प्रचलित उपाय भी यही है कि निकटवर्ती एस्किमो उसे पकड़ ले जाते हैं और खुले क्षेत्र में ले जाकर वध कर डालते हैं। समझा जाता है कि ऐसा करने वालों से “हिम-दैत्य” प्रसन्न होता है और अपना वफादार सहयोगी मानकर पुरस्कार भी देता है।

कनाडा के डॉक्टरों ने इस रोग के सम्बन्ध में गहरी छान-बीन की है और उस व्यथा को ‘विन्डिनो साइकोसिस’ नाम दिया है। कुछ समय यह रोग मध्य कनाडा और उत्तरी अमेरिका तक पहुँच गया था। पर जब उसकी रोकथाम के उपाय अपनाये गये हैं तो स्थिति क्रमशः सुधरती जा रही है और घटनाक्रमों का अनुपात कम होता जा रहा है।

मानस रोगों के प्रत्यक्ष कारणों से व्यक्तिगत दुश्चिन्तनों अरुचिकर सामाजिक-प्रचलनों अनपेक्षित दबावों को प्रमुख माना जाता है। अब उसी शृंखला में एस्किमो सम्पर्क के वैज्ञानिकों ने एक कड़ी और जोड़ी है- चुम्बकीय उभारों द्वारा व्यक्ति विशेष पर पड़ने वाले प्रभावों की। वे कहते हैं ध्रुव क्षेत्र की तरह ही कुछ अन्य क्षेत्र भी ऐसे हो सकते हैं जिनकी भौगोलिक एवं वातावरण सम्बन्धी चुम्बकीय परिस्थिति किन्हीं पर अतिरिक्त प्रभाव डाले और उसे इस प्रकार उन्माद में जकड़ दें।

साइकोलाजिस्टों और एन्थोपोलोजिस्टों के एक वर्ग ने इसे हिस्टीरिया की तरह छूत स्तर का माना है एवं वंशानुक्रम में पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले रोगों से इस प्रकार के अनेक मानसिक उन्माद खोजे हैं। भूतोन्मादों के पीछे यही प्रक्रिया काम करती है। वे सर्वत्र नहीं होते। किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय में ही उनकी धूम रहती है। यह व्यथा छूत की तरह एक से दूसरे को लगती है। दुखती आँखों को देखने भर से अच्छी आँखें भी दुखने लगती हैं। जुकाम वालों की समीपता से अन्य दुर्बल प्रकृति के लोग भी वैसी ही शिकायत करने लगते हैं। बड़ों को भूत से आक्रान्त देखकर छोटों के मन पर भी वह कुहासा जमने लगता है जो अनुकूल अवसर मिलने पर फूट निकलता है। जिनके परिवार मुहल्लों में भूत-प्रेतों की घटनाएँ होती रहती हैं। उनमें रहने वाले अन्य दुर्बल मनःस्थिति के लोग भी अनचाहा अनुकरण करने लगते हैं। कोढ़ में खाज की तरह झाड़-फूँक करने वाले और इस मान्यता वालों द्वारा सुनाये जाने वाले कथानकों से प्रभावित ऐसे लोग भी इन व्यथा में फँस जाते हैं, जिनकी मानसिक संरचना में उन्माद प्रकट होने की आशंका नहीं की जाती थी।

मलेशिया की महिलाओं में “लता” नामक भयाक्रान्त रोग होता है, यदि उनसे आग में हाथ डालने को कहा आये तो रोगिणी आग में हाथ डाल देगी। ‘लता’ के आक्रमण होने पर लोगों ने क्या-क्या दुर्व्यवहार उसके साथ किए यह तो उसे याद रहता है। पश्चिमी चिकित्सक इस रोग को हिस्टीरिया, साइकोसिस, न्यूरोसिस तथा ब्रेनमाल कन्वल्शन कहते हैं। मलेशिया में रहने वाली चीनी महिलाओं में यह रोग नहीं होता। ऐसा ज्ञात होता है कि यह रोग परम्परागत होता है जिसकी शुरुआत 1850 में तब से हुई जब से वहाँ गोरे लोग आए और उनसे बचने के लिए उन्हें ‘लता’ रोग घेरा। महिलायें पश्चिमी नकल को बाध्य की गयी थीं ‘लता’ मात्र अन्धाधुन्ध नकल की मानसिक दासता प्रतीक है।

मलेशिया का मानस रोग “एमोक” बड़ा भयानक है। युवा रोगी विक्षिप्त होकर छुरा भोंकता फिरता है। उसका कारण नौकरी से निकाला जाना या परीक्षा की असफलता आदि होती है। अनेक मनुष्यों को घायल होते-होते उस पर काबू पाया जाता है तब तक वह बेहोश होकर गिर पड़ता है। पश्चिमी चिकित्सक इसका कारण बताते हैं- ब्रेन डैमेज, मिर्गी, हिस्टीरिया या डीलेरियम की स्थिति जिसमें आदमी चित्त भ्रमित हो जाता है। एपीलेप्टिक और हिस्टीरिया वाले रोगी तो विश्व के हर कोने में पाये जाते हैं किन्तु एमोक का सम्बन्ध 16 वीं शताब्दी में वहाँ के इतिहास से जोड़ा जाता है जबकि देशभक्त स्वराज्य प्राप्त एमोक पर निकल पड़ते थे और देश के लिए मर मिटने को निकल पड़ते थे। धर्म परिवर्तन के समय वे मरने को अधिक पसन्द करते थे। एमोक से मृत व्यक्तियों का सम्मान 1850 तक था। उसके बाद यह मानस रोग माना जाने लगा है। किन्तु रक्त के संस्कार तो बने ही रहते हैं।

विश्व के विभिन्न स्थानों में मानसिक रोग विभिन्न रूप लेते हैं। स्थान की संस्कृति, जलवायु जल प्रभाव तथा परम्परागत अन्ध विश्वास मानस संस्थान पर छाये रहते हैं। यह बात मात्र पिछड़ी जातियों तक ही नहीं अब सीमित रही वरन् पड़े-लिखे आधुनिक सभ्यता में पले लोगों को भी होती।

इंग्लैण्ड के एक परिवार में पीड़ियों से यह मान्यता चली आयी है कि उसका हर नर सदस्य 50 वर्ष की आयु से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। पिछले दिनों असोशिएटेड प्रेस के माध्यम से 26 अक्टूबर 1983 के स्टेट्मैन अखबार में एक समाचार छपा कि सातवें अर्ल क्रेवन ने जो गत पाँच वर्षों से आसन्न मृत्यु से भयभीत था, 26 वर्ष की आयु में ही स्वयं को गोली मारकर आत्म-हत्या कर ली। थॉमस राबर्ट डगलस क्रेवन शाही परिवार की सातवीं पीढ़ी के एकमात्र पुरुष सदस्य थे।

कहा जाता है कि इनके पिता 35 वर्ष की आयु में व दादा मात्र 37 वर्ष की आयु में नाव में डूबने से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए थे। यही इतिहास परिवार के हर सदस्य का है। गाँव वालों को कहना है कि हैम्पस्टेड मार्शल बर्क शायर नामक इस रियासत के एक बुजुर्ग ने 300 वर्ष पूर्व एक कन्या से दुराचार किया था। उसके बाद यह शाप देकर कि इस परिवार का कोई भी पुरुष सदस्य पचास वर्ष तक जीवित नहीं रहेगा व जब तक जियेगा- अवसादग्रस्त मनःस्थिति में रहकर अन्ततः आत्म-हत्या कर लेगा, उस कन्या ने भी आत्म-हत्या कर ली। कहा नहीं जा सकता कि यह किम्वदन्ती कितनी सत्य है किन्तु इतिहास यही बताता है कि हर पीढ़ी के पुरुष सदस्यों को ‘स्कीजोफ्रेनिया’ नामक मानस रोग जन्म से ही रहा व सभी ने आत्म-हत्या की है तथा 40-45 वर्ष की आयु तक पहुँचने के पूर्व ही काल कवलित हो गए। कुछ लोग इसे एक भय की आत्म सम्मोहन की स्थिति कहते हैं जिसमें हर व्यक्ति संभाव्य को सब मानकर ही जिया है व उसने मानो लोकोक्ति को ही सही सिद्ध करने के लिए आत्म हत्या की है।

एन्थोपोलाजिस्ट चार्ल्स लिन्हाम का कथन है कि पिछले क्षेत्रों में पाया जाने वाला भूतोन्माद कहा जाता था, और जिसके प्रति उपेक्षा, व्यंग्य, उपहास का ही प्रयोग होता था। अब वह नये रूप से शिक्षित समुदाय में भी नई-नई सनकों और उचंगों के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा है। उसे वे भूतवाद की पुरातन पृष्ठभूमि पर नई परिस्थितियों के अनुसार उगा नये किस्म का किन्तु उसी प्रकृति का पौधा कहा जा सकता है।

प्रेत बाधा या भूतोन्माद को न उपहासास्पद ठहराया जाय और न उसकी उपेक्षा की जाय। यदि बहानेबाजी पाई जाय तो उसका पर्दाफाश किया जाय किन्तु यदि वस्तुतः कोई इस व्यथा से आक्रान्त है तो उसे एक मानसिक रोगी की तरह उपचार किया जाय। खोजने पर जैसे अन्य रोगों के समाधान मिल गये इस प्रकार इस विक्षेप के निराकरणों का भी युक्तिसंगत मार्ग मिल सकता है।


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