मृत शरीरों में भी प्राण ऊर्जा की झलक झाँकी

February 1984

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आमतौर से शरीर मृत्यु के उपरान्त तेजी से सड़ने लगता है और स्वयमेव बिखर जाने के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। भीतर से कृमि कीटक उत्पन्न होते हैं और वे उसे खा-पीकर समाप्त कर देते हैं। यह कार्य और भी जल्दी हो इसके लिए प्रकृति ने कुछ ऐसे प्राणी उत्पन्न किये हैं जो मृत शरीरों की तलाश करते रहते हैं और जहाँ कहीं वे मिलते हैं रुचिपूर्वक उन्हें समाप्त कर देने के कार्य में जुट जाते हैं। पक्षियों में गिद्ध और चील इसी वर्ग के हैं। सियार और कुत्तों को भी किसी मृतक पशु की काया का अस्तित्व समाप्त करने की जल्दी पड़ती है और वे गन्ध पाते ही दौड़ कर वहाँ जा पहुँचते हैं। कुटुम्बी लोग अपने ढंग से इस कार्य को पूरा करते हैं प्रचलनों के अनुसार उन्हें जलाया, गाढ़ा या बहाया जाता है।

यह प्रकृति व्यवस्था की बात हुई। मृत शरीर को सुरक्षित रखने का प्रयास मनुष्य भी करता रहा है। मिश्र के पिरमिडों में मसाले से लिपटे हुए ऐसे शरीर पाये गये हैं जो हजारों वर्ष बीत जाने पर भी पूरी तरह नष्ट नहीं हुए और पहचाने जाने योग्य स्थिति में बने रहे। इस सन्दर्भ में रूसी वैज्ञानिकों का वह प्रयास भी अनुपम है जिसके अनुसार लेनिन के शरीर को उसी रूप में सुरक्षित रखने का प्रयत्न हुआ है। इस मृत काया को देखने के लिए अभी भी सुदूर देशों के लोग पहुँचते हैं और इस मानवी कौशल पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं।

प्रकृतिगत और मनुष्य कृत उपरोक्त उपाय उपचारों के अतिरिक्त इस सन्दर्भ में कभी-कभी आत्म शक्ति को भी कुछ विलक्षणता प्रकट करते हुए देखा गया है। ऐसी घटनाएँ सामने आती रही हैं जिनमें लम्बे समय तक मृत शरीरों का अस्तित्व इस रूप में बना रहा जिसमें उनमें किसी ऐसी प्राण चेतना की सम्भावना पाई गई जिसने उन्हें सड़ने नहीं दिया। सामान्य कब्र में दबे रहने पर भी जब उन शरीरों का पुनर्निरीक्षण किया गया तो पता चला कि वे इस तरह नष्ट नहीं हुए जैसे कि सामान्य तथा मृत शरीर सड़-गल कर नष्ट हो जाते हैं। यों उनमें प्रत्यक्ष जीवन नहीं पाया गया। फिर भी आरोगी विशेषता का कोई अंश अवश्य बना रहा जिसने वैसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी जैसी कि सभी मृत शरीरों की होती है। ऐसी घटनाओं में सन्त स्तर के शरीरों की ही प्रमुखता रही है। इन में गोवा के सन्त फ्राँसिस का उदाहरण प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है जहाँ लाखों क्रिश्चियन नर-नारी उनके दर्शन करने पहुँचते हैं। एक निश्चित दिन ही दर्शन हेतु सबके लिए चर्च खोला जाता है।

अनाया, लेबनान के सेंट मेरोन मठ के मठाधीश चार्बेल मेकोफ की 1898 ई. में मृत्यु हो गई। मठ के नियमानुसार अन्य मठाधीश की तरह उन्हें भी एक कब्र में दफना दिया गया। उनकी कब्र के चारों तरफ एक विशेष प्रकाश कई सप्ताह तक बना रहा। एक दिन तीव्र मूसलाधार वर्षा के कारण चार्बेल का शव उफनता हुआ कब्र से बाहर आ गया। शरीर पर सड़ने गलने के नामोनिशान तक नहीं पाये गये। शव को धोकर साफ किया गया और लकड़ी के एक ताबूत में बन्द करके मठ के प्रार्थनालय में सुरक्षित रख दिया गया। कुछ दिनों बाद उस शरीर से एक विलक्षण तैलीय तरल पदार्थ बाहर निकलने लगा और इससे रक्त और मीठे की सम्मिश्रित सुगन्ध निकलकर वातावरण में चारों ओर फैलने लगी। इस तरल पदार्थ से शरीर पर ढँके कपड़े भीग जाते थे जिससे एक सप्ताह में उन्हें दो बार बदल कर पहनाया जाने लगा।

सन् 1927 में चार्बेल की मृत्यु के 29 वर्ष बाद उनके शरीर का चिकित्सकों द्वारा निरीक्षण किया गया और उसे निर्दोष पाया। चिकित्सकों की रिपोर्ट और उपस्थित जन समुदाय के साक्षात्कार को लिपिबद्ध करके जिन्क के एक ट्यूब में बन्द करके ताबूत को सामने वाली दीवाल में रखकर ईंटों से चिनाई करा दी गयी।

सन् 1950 में रक्षकों ने सूचित किया कि ताबूत के सामने मठ की दीवाल से एक विचित्र सा तरल द्रव बाहर निकल रहा है। कब्र को तोड़ कर ताबूत को बाहर निकाला गया और पादरी तथा चिकित्सा अधिकारियों के सामने शरीर का निरीक्षण किया गया। चार्बेल के शरीर को देखने पर लगता था जैसे चार्बेल गहन निद्रा में सो रहे हों। शरीर पर ढँके कपड़े फट गये थे और विशेष प्रकार के एक तैलीय द्रव में भीगे हुए थे। ताबूत में तीन इंच मोटी तैलिय परत जम गई थी। जिसे निकाल कर ताबूत की सफाई की गई। ताबूत के पास दफन की गई जिंक की ट्यूब को खोला गया जिसमें वर्णित पूर्व घटना की तुलना वर्तमान घटना से की गई तो दोनों में समानता ही मिली। चार्बेल के शव को फिर से ताबूत में बन्द करके वहीं दफना दिया गया।

ईसाई महिला मारिया अन्ना का शरीर उसकी मृत्यु के 107 वर्ष बाद सन् 1731 में एक खुदाई में प्राप्त हुआ। मूर्धन्य चिकित्सकों और सर्जनों की ग्यारह सदस्यीय टीम ने मारिया के मृतक शरीर का परीक्षण किया। शरीर पर कहीं सड़ने गलने के नामोनिशान तक नहीं थे। सम्पूर्ण शरीर कोमल, सुनम्य, ओज से परिपूर्ण एवं एक विशेष प्रकार की खुशबू से सुवासित था। शरीर के बाह्याँगों एवं अंतरंगों में एक प्रकार की चिकनाई लगी हुई थी।

अनुसंधान की कड़ी में कुछ नया पाने के लालच में चिकित्सकों ने शरीर का शवोच्छेदन किया। कोई नई कड़ी तो उनके हाथ नहीं लगी परन्तु विशेष प्रकार की खुशबू से उनके हाथ कई दिनों तक सुगन्धित बने रहे। सुगन्ध के गायब हो जाने के भय से डाक्टरों ने कई दिनों तक अपने हाथ तक नहीं धोये।

पोलैण्ड के जेसूइट सन्त एण्ड्यू बोबोला रूस में रूढ़िवादियों के मध्य अपने मिशन का प्रचार प्रसार बड़ी सफलता पूर्वक कर रहे थे। अपने इस कार्य के लिए वे प्रतिष्ठित हो चुके थे। सर्वत्र अनेक कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही थी। सन् 1657 में 67 वर्ष की अवस्था में छापामार कोसैक्स ने सन्त की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी और क्षतिविक्षत शरीर को पिंस्क के जेसूइट चर्च के पास गोबर के ढेर में दफना दिया।

हत्या के 44 वर्ष बाद जेसूइट कालेज के प्राचार्य को स्वप्न में एक आदेश मिला जिसके अनुसार फादर बोबोला का शरीर गोबर के ढेर से खोदकर निकाला गया। सन्त का शरीर बेदाग बिना सड़े हुए ताजा, मुलायम, लोच युक्त उसी हालत में मिला जिस स्थिति में उनके शरीर को दफनाया गया था। देखने पर जीवितों जैसा प्रतीत हो रहा था।


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