आध्यात्मिक विकासवाद एवं जीवनमुक्ति तत्त्व दर्शन

August 1984

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जीवात्मा का चरम लक्ष्य है उस परमतत्व से तादात्म्य स्थापित करना जिसका कि वह एक अंश है। उसकी संरचना, कार्य पद्धति एवं जीवनचर्या का निर्धारण ही कुछ इस प्रकार हुआ है मानो सृजेता ने विकास की चरमावस्था को प्राप्त करने के लिए ही इस धरती पर भेजा हो। उपनिषदों में जीवनमुक्ति एवं पूर्णता संबंधी जितनी धारणायें व्यक्त की गयी हैं, उनसे आध्यात्मिक विकासवाद की एक प्रगतिशील झलक मिलती है। उपनिषद्कार का कथन है कि “मानव की जीवात्मा निरन्तर यह कामना करती रहती है कि वह स्वच्छन्द हो, समग्र बने एवं पूर्णता को प्राप्त करे।” लघु से महान बनने, बीज रूप से विराट् में विकसित होने की यह परिकल्पना मिथ्या नहीं। इसे दैनन्दिन जीवन के क्रिया-कलापों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

विकास के संबंध में विज्ञान मात्र स्थूल दृष्टि रखते हुए दो ही प्रकार की स्थितियाँ जानता है। एक शारीरिक एवं दूसरे मानसिक विकास की। नृतत्व विज्ञानी एवं अन्यान्य आधुनिक दर्शन के समर्थक इससे इतर कुछ सोचना भी नहीं चाहते। वे कहते हैं कि एक नवजात शिशु जन्म के समय लगभग सात पौण्ड भार लिये होता है। माता के दूध एवं वातावरण जन्य परिस्थितियों से उसका क्रमशः विकास होता है। धीरे-धीरे वह एक विकसित किशोर अथवा युवा लड़की के रूप में विकसित होकर एक स्पष्ट रूप ले लेता है। यह शारीरिक विकास है जो प्रत्यक्षतः सबको दिखाई देता है, जिस पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है एवं जिसके तनिक भी व्यतिक्रम से चिन्ता होने लगती है। मानवी विकास का दूसरा पक्ष मानसिक है- जो परोक्ष है, जिसे चर्म चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता, किसी यंत्र द्वारा जिसकी मॉनीटरिंग नहीं की जा सकती। बहिरंग की शिक्षा एवं संस्कार रूपी विद्या के माध्यम से शिशु में क्रमशः स्वावलम्बन, आत्मविश्वास, सतर्कता,आत्मरक्षा, प्रतिभा, स्व-मूल्याँकन जैसी विशेषताएँ होने लगती हैं। इस क्षेत्र में विकास की संभावनाएँ अनन्त हैं, जबकि शारीरिक विकास एक सीमा से परिबद्ध है। असामान्य, मेधा, जीवट, संकल्पबल, प्रखरता, अन्वेषण बुद्धि का विकास ही मानस क्षेत्र की उपलब्धियाँ हैं। इस कार्य में मनुष्य का स्वयं का पुरुषार्थ तो सहयोग करता ही है, वातावरण भी इसमें एक महती भूमिका निभाता है। अपवाद स्वरूप ही कुछ प्रतिभा सम्पन्न ऐसे निकल आते हैं, जो प्रतिकूल परिस्थितियों के होते हुए भी मानसिक दृष्टि से विकसित हुए होते हैं एवं पूर्व जन्म की संचित संपदा के उचित दिशा में मोड़ मिलते ही वे प्रगति के परम शिखर पर जा पहुँचते हैं।अल्पायु में भी अतिमेधावान बालकों को “प्रोडिगी” कहा जाता है व इनकी संख्या भी कम नहीं होती। यह क्यों व कैसे होता है, इस सम्बंध में वैज्ञानिक अभी मौन हैं एवं उन्हें विलक्षण मनाकर संयोगों की शृंखला में बिठा भर देते हैं।

मानसिक विकास में बहिरंग जगत की परिस्थितियाँ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। शिक्षा, सुरुचिपूर्ण संस्कारी वातावरण, स्वाध्याय, सत्संग-सान्निध्य के सहारे अनेकों व्यक्ति प्रतिभा सम्पन्न होते देखो जा सकते हैं। जहाँ ऐसा वातावरण नहीं उपलब्ध हो पाता, उल्टे कुरुचि भड़काने वाली, पतन के गर्त्त में गिराने वाली परिस्थितियों का प्राधान्य होता है, वहाँ कमजोर मनोबल वाले प्रखरता के अभाव में गिरते हैं, अविकसित नर-पामरों की श्रेणी में शामिल होते देखे जा सकते हैं।

शारीरिक एवं मानसिक ये दो ही पक्ष ऐसे हैं जिनके विकास- पराभव की जानकारी विज्ञान जगत को है। उनकी परिभाषायें भी इसी परिधि में घूमी नजर आती हैं। डार्विन के विकासवाद के समर्थक, लोमार्क के पक्षधर एवं जाति-प्रजातियाँ का गंभीर अध्ययन करने वाले एन्थ्रपोलाजिस्ट शरीर एवं मन के विकास के इस सीमित परिकर में ही ऊहापोह करते दृष्टिगोचर होते हैं।

अध्यात्म की विकासवाद की परिभाषा में एक और तीसरा पक्ष भी आता है जो शरीर एवं मन से कहीं और उच्च स्थान लिए हुए है।आत्मिकी के प्रतिपादक इसे आध्यात्मिक विकास कहते हैं जो मनोआत्मिक विकास कम से आरम्भ होकर पूर्णता पर समाप्त होता है। यही जीवात्मा का चरम लक्ष्य भी है, इसी की खोज-प्राप्ति हेतु वह अवतरित भी हुई है। यह आयाम व्यक्ति के ‘स्व’ का सर्वव्यापी सर्वश्रेष्ठ, असीमित आयाम है जिसमें वेदान्त के प्रतिपादनों के अनुसार व्यष्टि को समष्टि के साथ एकाकार हुआ देखा जा सकता है। इसकी बहिरंग रूप में अभिव्यक्ति, नैतिक एवं सामाजिक विकास के रूप में- सुसंस्कारिता, सहकारिता, पारिवारिकता की भावना के उत्कर्ष के रूप में देखी जा सकती है।

क्राइस्ट ने इसे परफेक्शन कहा है जो पूर्णता का बोधक है। मेथ्यू (वा. 45) के अनुसार “तुम इसलिये पूर्ण बनो क्योंकि तुम्हें जन्म देने वाला स्वर्ग स्थित परमपिता भी पूर्ण है।” बुद्ध ने इसी चरम उद्देश्य की प्राप्ति को आत्मबोध- ज्ञानोदय कहा है। अन्तः में निहित सत्य को जान लेना ही विकास की अन्तिम परिणति है, ऐसा बुद्ध का मत है। वेदान्त के अनुसार ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होने पर मनुष्य सन्देह जीवनमुक्त हो जाता है। ‘अविद्या लेश’ सिद्धाँत का हवाला देते हुए वेदान्त समर्थक कहते हैं कि ज्ञान से अविद्या का आवरण हटते ही मानव पूर्णता को प्राप्त होता है।

सभी धर्म सम्प्रदाय, पंथ, मतावलंबी इस पर एक मत हैं कि शारीरिक एवं मानसिक विकास तो उस पूर्णता की प्राप्ति के मध्य की अवस्थाएं हैं। मानसिक अनुशासन, धार्मिक कर्मकाण्ड मात्र मस्तिष्क रूपी ज्ञानेन्द्रियों पंच तन्मात्राओं के नियमन हेतु बनाई गयी विधि-व्यवस्थायें हैं, जो अन्ततः पूर्णता की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती हैं। मनोसामाजिक, मनोआत्मिक एवं आत्मिक विकास वस्तुतः वे अवस्थाएं हैं जो जीवात्मा को क्रमशः इस चरम लक्ष्य पर पहुँचाती हैं।

‘अहम्” जिसने मनुष्य को प्रकृति पर आधिपत्य हेतु समर्थ बनाया, मनुष्य का यथार्थवादी रूप नहीं है, उसका सच्चा व्यक्तित्व नहीं है। वह तो चट्टान के, हिमखण्ड के उस छोटे से अंश के समान है जो कि गहन जलराशि के ऊपर दिखाई पड़ता है लेकिन अपना अधिकाधिक बृहद् अंध पानी में अदृश्य रूप से छिपाये रखता है। भारतीय दर्शन के अनुसार मनुष्य का यथार्थवादी रूप, सच्चा व्यक्तित्व उसकी ‘आत्मा’ है जो कि इन्द्रियातीत है। यही मानव की सच्ची संपदा है जिसके परिपूर्ण विकास हेतु वह इस काय कलेवर में धरित्री पर आता है। सर जूलियन हक्सले ने अपने विचार लगभग उपनिषद्कार की भाषा में ही व्यक्त करते हुए कहा है कि- “अन्तर्मुखी चिन्तन द्वारा नितान्त एकान्त में अनेकों बार चिन्तन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ‘स्व’ के विकास क अभाव में जीवन निरुद्देश्य है। आत्मा निरन्तर अपने प्राकट्य का बोध हमें कराती रहती है लेकिन उसका अहसास हमें तभी हो पाता है जब हम गहराई से अन्तः पर्यवेक्षण करें, अपने अहम् से मुक्ति पाएँ।”

मनीषियों का मत है कि आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में अहम् रूपी क्षणिक लेकिन सुखदायी भ्रान्ति से मुक्ति दिलाकर उसे वास्तविक व्यक्तित्व की श्रेणी में पहुँचाने में नैतिक अनुबंधों एवं आत्मिक अनुशासनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अहम् का जाला एक प्रकार से भव-बन्ध नहीं हैं जिनसे मुक्ति पाकर मनुष्य अपने यथार्थवादी रूप को पहचान लेता है। भक्ति-उपासना, जीवन साधना अथवा समाज सेवा की आराधना में से कोई भी मार्ग ऐसा हो सकता है, जिसे अपनाता हुआ मनुष्य आत्मिक विकास के सोपानों पर क्रमशः आगे बढ़ता चला जाए। जो भी क्रिया-कृत्यों अपनी अन्तःप्रेरणा को साधना उपादानों द्वारा सशक्त बनाने के लिए किये जाते हैं, वे ही सच्चे कर्मकाण्ड हैं एवं आध्यात्मिक विकासवाद की प्रक्रिया में उन्हें ऋषि मनीषियों ने गरिमापूर्ण स्थान भी दिया है।

भगवान श्री कृष्ण ने पूर्णता की प्राप्ति के इस प्रसंग को गीता के ग्यारहवें अध्याय में इस प्रकार वर्णित किया है।

मत्कर्म कृन्मत्परमो मद्भक्तः संग वर्जितः। निवैरः सर्वभूतेषु यः समायेति पाण्डव॥ अर्थात्- “हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए संपूर्ण कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है, सम्पूर्ण भूत प्राणियों से बैर भाव से मुक्त है, वह मुझको ही (पूर्णता को ही ) प्राप्त होता है।”

वस्तुतः जीवन रूपी कर्मशाला में मनुष्य को अपनी काया रूपी उच्चस्तरीय प्रयोगशाला को सुनियोजित रूप से संचालित करने के लिए पूर्ण अवसर प्राप्त है। शेष समस्त साधना अनुशासन तो मन के प्रशिक्षण, परिशोधन एवं अग्रगमन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन गतिशील यन्त्रों को कौन कितनी कुशलतापूर्वक संचालित कर पाता है, इसी पर उसका आध्यात्मिक विकास निर्भर है।

यह विकास की प्रक्रिया जैव समाज वैज्ञानिकों (सोशियोबायोलॉजिस्ट) एवं विकासवादियों की मान्यता से कितनी भिन्न है किस प्रकार मनुष्य को अन्यान्य जीवों से श्रेष्ठ, प्रारम्भ से ही विकसित प्राणी बताती है, इसका निरूपण श्रीमद्भागवत में इस प्रकार हुआ है-

“उस दिव्य परम सत्ता ने अपनी निहित शक्ति के द्वारा अनेक प्रकार के चेतन आकारों को जन्म दिया जैसे कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, रेंगने वाले जीव, कीट, मछली आदि। किन्तु उसे अपने मन में इन आकारों से सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने मानव को विनिर्मित कर उसे ब्रह्म को अर्थात् सार्वभौम दिव्य सत्ता को प्राप्त करने की पात्रता से विभूषित किया। अपनी इस कृति को बनाकर ही उसे प्रसन्नता प्राप्त हुई।”

ऋषिगणों, मनीषियों की प्रज्ञा को मानव और प्रकृति के यथार्थवादी स्वरूप को मात्र अनुमान एवं अटकल से ही जानकर सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने अपने ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास की शृंखला को सतत् जारी रखा। “बृहदारण्यक उपनिषद् (1-4-7) के अनुसार- “उन्होंने जब गहराई में प्रवेश किया तो समय की परिधि में आबद्ध ससीम सत्ता के पीछे उन्हें एक असीम शाश्वत वास्तविकता की उपलब्धि हुई। इस प्रकार उन्होंने विशुद्ध चेतना के स्वरूप एवं जीवात्मा के विकास की चरम परिणति को जाना।”

वस्तुतः विकासवाद की यही अद्वितीय मान्यता भारतीय दर्शन को अन्यान्य प्रतिपादनों से ऊँचा सिद्ध करती हुई, आधुनिक मतों का खण्डन करती है। वह जीवात्मा की चेतना के विकास क्रम के रहस्यों का उद्घाटन करती हुई उसे अपने परम लक्ष्य का बोध कराती है ताकि वह मायावी भ्रम जंजाल से बचकर मुक्ति पथ पर अग्रसर हो सके।


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