श्रद्धाँजलि पक्ष चल रहा था। धर्म चक्र प्रवर्तन की बढ़ी हुई आवश्यकता का अनुमान करते हुए बुद्ध के सभी शिष्य अपने-अपने अनुदान प्रस्तुत कर रहे थे।
जमा राशि का लेखा जोखा लिया गया। किसका धन सबसे अधिक है। इस की प्रशंसा सुनने के लिए सभी उत्सुक थे। विम्बसार की राशि सबसे अधिक थी।
चर्चा गोष्ठी में बुद्ध ने एक वृद्धा का सौंपा हुआ जल पात्र हाथ में उठाया और कहा- यह इस वर्ष का सबसे बढ़ा अनुदान है। वृद्धा के पास जो कुछ था वह उसने सभी सौंप दिया अब उसके पास तन के कपड़े और मिट्टी के पात्र ही शेष हैं। जबकि औरों ने अपनी सम्पदा के थोड़े-थोड़े अंश ही प्रस्तुत किये हैं।
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विवाद यह चल रहा था कि दान बड़ा या ज्ञान। दान के पक्षधर थे वाजिश्रवा और ज्ञान के समर्थक थे याज्ञवल्क्य। निर्णय हो नहीं पा रहा था। दोनों प्रजापति के पास पहुंचे। वे बहुत व्यस्त थे सो निर्णय करने के लिए शेष जी के पास भेज दिया।
दोनों ने अपने-अपने पक्ष प्रस्तुत किये। शेष जी ने कहा मैं बहुत थक गया हूँ। सिर पर रक्खा पृथ्वी का बोझ बहुत समय से लदा है। थोड़ी राहत पाऊं तो विचार पूर्वक निर्णय करूं। आप में से कोई एक आगे आये और एक घड़ी मेरे बोझ को अपने सिर पर रख ले। इसी बीच निर्णय हो जायगा। वाजिश्रवा आगे आये। अपनी दानशीलता को दाव पर लगाकर उनने धरती का बोझ अपने सिर पर रखने का प्रयत्न किया पर वे उसमें तनिक भी सफल न हुए।
याज्ञवल्क्य को आगे आना ही पड़ा उनने अपने ज्ञानबल का प्रयोग किया और देखते-देखते भूभार कँधों पर उठा लिया।
निर्णय हो गया। शेष भगवान बोले। ज्ञान बड़ा है। उस अकेले के बलबूते भी अपना और असंख्यों का उद्धार हो सकता है। जब कि दान अविवेकपूर्वक दिया जाने पर कुपात्रों के हाथ पहुँच सकता है और पुण्य के स्थान पर पाप बन सकता है।
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समुद्र में बहुत पानी था। सो पथिक अधिक लाभ की आशा से उसके तट पर पहुँचा। किन्तु अंजलि होठों तक ले जाते ही देखा- वह तो बहुत खारी है। प्यासा लौट गया।
कुछ दूर एक छोटी नदी थी जल पिया तो पाया मीठा और ठण्डा जल।
बड़े के पास खारी, छोटे के पास मीठा। इस भेद को समझने के लिए उसने बुद्धि दौड़ाई।
नियति ने कहा- जो बाँटते हैं उनकी मिठास सराही जाती है। जो समेटते हैं वे बड़े होने पर भी भर्त्सना सहते हैं।