बड़प्पन का व्यावहारिक मापदण्ड

August 1984

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एक राजा थे। बन-विहार को निकले। रास्ते में प्यास लगी। नजर दौड़ाई एक अन्धे की झोपड़ी दिखी। उसमें जल भरा घड़ा दूर से ही दीख रहा था।

राजा ने सिपाही को भेजा और एक लोटा जल माँग लाने के लिए कहा। सिपाही वहाँ पहुँचा और बोला- ऐ अन्धे एक लोटा पानी दे दे।

अन्धा अकड़ू था। उसने तुरन्त कहा- चल-चल तेरे जैसे सिपाहियों से मैं नहीं डरता। पानी तुझे नहीं दूँगा। सिपाही निराश लौट पड़ा।

इसके बाद सेनापति को पानी लाने के लिए भेजा गया। सेनापति ने समीप जाकर कहा अन्धे! पैसा मिलेगा पानी दे।

अन्धा फिर अकड़ पड़ा। उसने कहा, पहले वाले का यह सरदार मालूम पड़ता है। फिर भी चुपड़ी बातें बना कर दबाव डालता है, जा-जा यहाँ से पानी नहीं मिलेगा।

सेनापति को भी खाली हाथ लौटता देखकर राजा स्वयं चल पड़े। समीप पहुँचकर वृद्ध जन को सर्वप्रथम नमस्कार किया और कहा- ‘प्यास से गला सूख रहा है। एक लोटा जल दे सकें तो बड़ी कृपा होगी।’

अंधे ने सत्कारपूर्वक उन्हें पास बिठाया और कहा- ‘आप जैसे श्रेष्ठ जनों का राजा जैसा आदर है। जल तो क्या मेरा शरीर भी स्वागत में हाजिर है। कोई और भी सेवा हो तो बतायें।

राजा ने शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई फिर नम्र वाणी में पूछा- ‘आपको तो दिखाई पड़ नहीं रहा है फिर जल माँगने वालों को सिपाही सरदार और राजा के रूप में कैसे पहचान पाये?’

अन्धे ने कहा- ‘वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के वास्तविक स्तर का पता चल जाता है।’

** ** **

एक थे सेठ। वे गुरु की तलाश में थे। पर चाहते ऐसा थे, जो पहुँचा हुआ हो, ज्ञानी हो। बहुतों को जाँचा परखा पर कोई खरा न निकला। तलाश का अन्त न हुआ।

सेठानी ने कहा- ‘यह काम मेरे ऊपर छोड़ दें। जो मिला करे उसे मेरे पास भेज दिया करें। सेठ जी सहमत हो गये। एक झंझट टला।’

सेठानी ने पिंजड़े में एक कौआ पाला। जो भी महात्मा आया, उनसे यही कहतीं, देखिए मेरा पाला कबूतर अच्छा है न?

सन्त लोग आते। कबूतर कहाँ है? कैसा है? कहते। जब सेठानी अपनी बात पर अड़ी ही रहतीं, तो वे क्रोध में भरकर उलटी-सीधी बातें कहते और वापस चले जाते।

यही क्रम चलता रहा। बहुतेरे आये और सभी चले गये। कोई खरा उतरा नहीं। जो आवेश ग्रस्त हो चले, वे सन्त कैसे? जो सन्त नहीं वह गुरु योग्य कहाँ?

एक दिन एक वयोवृद्ध सन्त आये। सत्कार करने के उपरान्त सेठानी ने वही कौआ-कबूतर का सिलसिला चला दिया।

यह सन्त आवेश में नहीं आये। कौए और कबूतर का अन्तर समझाते रहे। न समझ पाने पर इतना ही कहकर चले गये- बेटे, हठ मत करना। तथ्य का पता लगाना। कोई सर्वज्ञ नहीं। हमसे आपसे भूल हो सकती है। सत्य को समझने के लिए मन के द्वार खुले रखने चाहिए। वे हँसते हुए चल दिये। क्रोध था न आवेश न मानापमान का भाव।

सेठानी ने सन्त को द्वार से वापस लौटा लिया। नमन किया और कहा- “जैसा चाहती थी, वैसा आपको पाया। कृपया हमारे परिवार के गुरु का उत्तरदायित्व ग्रहण करें।”


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