मौन साधना के सिद्ध साधक- महर्षि रमण

August 1984

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मदुरै जिले के तिरुचुपि नामक एक देहान्त में उत्पन्न वैंकट रमण अपनी ही साधना से इस युग के महर्षि बन गये। आत्मज्ञान उन्होंने अपनी ही साधना से उपलब्ध किया। अठारह वर्ष की आयु में उनने अपना विद्यार्थी जीवन पूर्ण कर लिया। दक्षिण भारत में बोली जाने वाली चारों भाषाओं का उन्हें अच्छा ज्ञान था। साथ ही अंग्रेजी और संस्कृत का भी। यह भाषा ज्ञान उन्होंने किशोरावस्था में ही प्राप्त कर लिया था। अब आत्म-ज्ञान की बारी थी, जिसके लिए उनकी आत्मा निरन्तर बेचैन थी।

एक दिन जीवन और मृत्यु का मध्यवर्ती अन्तर समझने के लिए उन्होंने अपने मकान की छत पर ही एकाकी अभ्यास किया। शरीर को सर्वथा ढीला करके अनुभव करले लगे कि उनके प्राण निकल गये, काया सर्वथा निर्जीव पड़ी है। प्राण अलग है। प्राण के द्वारा शरीर की उलट-पलट कर देखने की अनुभूति वे देर तक करते रहे। शरीर और प्राण की भिन्नता का उन्हें गहरा अनुभव होता रहा इसके बाद वस्त्र की तरह उन्होंने शरीर को पहन लिया। यह अनुभव उन्हें आजन्म बना रहा।

आत्मानुभूति का आनन्द जीवन भर लेते रहने के लिए वे अरुणाचलम् चल दिये यह पर्वत दक्षिण भारत में पार्वती जी की तपस्थली माना जाता है। तप के लिए यह स्थान निकटवर्ती और परम पवित्र लगा। घर से बिना सूचना दिये यहाँ चले आये थे सो उन्होंने घर वालों के कष्ट का ध्यान रखते हुए एक पत्र भेज दिया। साथ ही सदा यहीं रहकर सदा तपश्चर्या करने का अभिप्राय भी। मौन उन्होंने अपना तप स्वरूप बनाया। घर के सब लोग उनका दर्शन कर गये। वापस लौटने का अभिप्राय भी कहते रहे पर उनने अस्वीकृति सिर हिलाकर ही प्रकट कर दी।

महर्षि मौन रहते थे पर उनके समीप आने वालों और प्रश्न पूछने वालों को मौन भाषा में ही उत्तर मिल जाते थे। उनकी दृष्टि नीची रहती थी। पर कभी किसी को आँख से आँख मिलाकर देखा तो इसका अर्थ होता था, उसकी दीक्षा हो गई। उन्हें ब्रह्मज्ञान का लाभ मिल गया। ऐसे ब्रह्मज्ञानी बड़भागी थोड़े से ही थे।

आरम्भिक दिनों में वे अरुणाचल के कतिपय अनुकूल स्थानों में निवास करते रहे। पीछे उन्होंने एक स्थान स्थायी रूप से चुन लिया। आरम्भ में उनकी साधना का कोई नियत स्थान और समय नहीं था। पीछे वे नियमबद्ध हो गये, ताकि दर्शनार्थी आगंतुकों को यहाँ वहाँ तलाश में न भटकना पड़े।

महर्षि रमण सिद्ध पुरुष थे। मौन ही उसकी भाषा थी। उनके सत्संग में सब को एक जैसे ही सन्देश मिलते थे मानों वे वाणी से दिया हुआ प्रचलन सुन कर उठे थे। सत्संग के स्थान में उस प्रदेश के निवासी कितने ही प्राणी नियत स्थान और नियत समय पर उनका सन्देश सुनने आया करते थे। बन्दर, तोते, साँप, कौए सभी को ऐसा अभ्यास हो गया कि आगन्तुकों की भीड़ से बिना डरे झिझके अपने नियत स्थान पर आ बैठते थे और मौन सत्संग समाप्त होते ही उड़कर अपने-अपने घोंसलों को चले जाया करते थे।

संस्कृत के कितने ही विद्वान उनकी सेवा में आये अपने-अपने समाधान लेकर वापस गये। उन्हीं लोगों ने रमण गीता आदि कतिपय संस्कृत पुस्तकें लिखीं जिनमें महर्षि की अनुभूतियों तथा शिक्षाओं का उल्लेख मिलता है।

वे सिद्ध पुरुष थे पर उनने जान-बूझकर कभी सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं किया। भारत में योगियों की खोज करने वाले पाल ब्रंटन ने बड़े सम्मानपूर्वक उनकी कितनी ही अलौकिकताओं का उल्लेख किया है।

भारत को स्वतन्त्रता दिलाने में जिन तपस्वियों का उल्लेख किया जाता है उनमें योगीराज अरविन्द, राम-कृष्ण परमहंस और महर्षि रमण के नाम प्रमुख हैं।


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