अपरिग्रह की गरिमा

August 1984

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अरब के एक खलीफा थे। जब मरने का समय आया तो वे पैसे का हिसाब-किताब करने बैठे।

‘अब तक राज्यकोष से मैंने कितना लिया? हिसाब लगाने पर पता चला। छह हजार दिरहम ले चुके।

खलीफा ने अपने उत्तराधिकारियों को बुलाया और कहा- मेरा घर बेचकर यह पैसा राजकोष में जमा कर देना।

दूसरा प्रश्न उनने अपने परिवार वालों से पूछा- खलीफा बनने के बाद मेरी निजी सम्पत्ति में कितनी वृद्धि हुई?

हिसाब लगाने पर पता चला ‘एक गुलाम, एक ऊँटनी और एक दुशाला।

खलीफा ने वसीयत की कि इन्हें हजरत उमर के पास भेज दिया जाय।

तीसरी वसीयत उन्हें और करती थी- दफनाते समय मेरे जिस्म पर सिर्फ तीन कपड़े हों। दो वे धोली जायं जो इस समय मेरे जिस्म पर लिपटी हैं। तीसरा टुकड़ा ही नया खरीदा जाय।

मित्रों ने पूछा- तीनों नये कपड़े हम लोग आसानी से खरीद सकते हैं फिर पुराने क्यों इस्तेमाल करें।

खलीफा ने कहा- नये कपड़ों की मुर्दों की बनिस्बत जिन्दों को अधिक जरूरत है।

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तथागत समेत बुद्ध संघ राजा उदयन के घर भिक्षा के निमित्त गया। अतिथि सत्कार के उपरान्त रानी ने 500 चीवर भेंट किये।

राजा ने हँसते हुए पूछा- देव! आप इतने चादरों का क्या करेंगे? बुद्ध ने कहा- जिन भिक्षुओं के चीवर फट जाया करेंगे, उन्हें देते रहेंगे।

राज ने फिर पूछा- उन फटे चीवरों का क्या होगा? उत्तर मिला उनके टुकड़े काट कर बिछौने बना लेंगे।

फिर पुराने गद्दों का क्या होगा? उत्तर मिला झाड़न में काम लेंगे। अन्ततः उनके भी निरर्थक हो जाने पर किसी खेत में गाड़कर खाद बना दिया जायगा।

उदयन बुद्ध संघ की अर्थ नीति से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने ऐसे श्रेय सदुपयोग के लिए अपना सारा खजाना खाली कर दिया।

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हजरत अबूबकर, उन दिनों अपने क्षेत्र के बादशाह भी थे। पर प्रजा के धन का उपयोग उसी की सुख सुविधा में करते। अपने परिवार के लिए दो दिरहम जैसी छोटी रकम ही लेते।

एक दिन हजरत की पत्नी ने कहा- इतने धन पर रूखा सूखा ही भोजन बनता है। साथ में कुछ मीठा भी रहता तो अच्छा था। उनका मतलब खर्च की राशि बढ़ा देने से था।

हजरत तैयार नहीं हुए। बोले अन्य खर्चों। में कटौती करके मिठाई का प्रबंध करो। वैसा ही किया गया। ज्यों-त्यों करके खर्च का तालमेल बिठाया गया और भोजन में मिठाई भी रहने लगी। आधे दिरहम की दूसरे सदी से कटौती कर ली गई थी।

अगले महीने से हजरत ने अपना वेतन डेढ़ दिरहम कर दिया कि जब आधे की बचत हो सकती है तो वह क्यों न की जाय और पहले की तरह बिना मिठाई के ही काम क्यों न चलाया जाय।


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