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August 1984

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घोर अँधेरी रात, जब हाथ को हाथ नहीं सूझता था। झरना अपने अविरल प्रवाह से कल-कल करता हुआ एकान्त निर्जन विजन में बहता चला जा रहा था।

एक पहाड़ी उपत्यिका ने पूछा- निर्झर! तुम्हें थकावट नहीं आती क्या? तनिक रुको, कुछ विश्राम भी तो कर लिया करो।

एक स्नेह दृष्टि डालते हुए झरने ने उपत्यिका को उत्तर दिया- बहन! मुझे जिस महासागर से मिलना है, उसकी दूरी अनंत है। रुकूँगा तो इधर-उधर भटकूँगा। चलते रहने से तो वह दूरी कुछ कम ही होगी। यह कहकर झरना आगे बढ़ चला।


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