सम्भावित कठिनाई की जानकारी प्राप्त होना आवश्यक है। इसी अनुमान के आधार पर मनुष्य बचाव का प्रबन्ध करते और उसमें बहुत हद तक सफल होते हैं। जो अनजान रहते हैं तथा प्रमाद बरतते हैं उन्हें योग्यतम की सुरक्षा वाला नियम तोड़-मरोड़ कर रख देता है। शीत प्रकोप से अपरिचित और बचाव के उपाय करने में असमर्थ मक्खी मच्छर जैसे कृमि कीटकों में से असंख्यों को हर वर्ष प्राण दण्ड सहना पड़ता है। इसके विपरीत जो जागरुकता हैं वे प्रकृति प्रवाह की अवाँछनीयता से अपने आपको बचाते और सुख-पूर्वक जीवित रहते हैं।
ठण्डे देशों की चिड़िया उन दिनों लम्बी यात्रा करके भारत जैसे उष्ण देशों में चली आती हैं और मौसम बदलते ही अपने देशों को लौट जाती हैं। हिम प्रदेशों के भालू, अजगर, कन्दराओं में लम्बी तानकर सोते रहते हैं और गर्मी आते ही जग पड़ते हैं। ऐसे ही प्रयास अन्य प्राणियों द्वारा भी किये जाते रहते हैं। यह विपत्ति के पूर्वाभास से अवगत होकर तद्नुरूप उपाय बरतने का उपक्रम है। इसे आत्म-रक्षा और बुद्धिमत्ता का संयुक्त उपाय कहना चाहिए जिसे जीवन का महत्व समझने वाले सभी प्राणी अपनाते हैं।
मनुष्य शरीर संरचना की दृष्टि से अन्य प्राणियों की तुलना में दुर्बल पड़ता है। उसकी आवश्यकताएँ और महत्वाकाँक्षाएँ भी अपेक्षाकृत अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं। इस लिए प्रकृति प्रवाह के साथ तालमेल बिठाने को उसे और भी अधिक प्रयास करने होते हैं। इसके लिए खतरों की सम्भावना के प्रति उसे अधिक अनुमान लगाने पड़ते हैं। यह प्रवृत्ति न रही होती तो संकट सिर पर आ खड़ा होने के उपरान्त कुछ करते-धरते न बन पड़ता। मकड़ी, दीमक, चींटी जैसे छोटे कीड़े-मकोड़े तक खतरों की पूर्व जानकारी अपनी अन्तःक्षमता के आधार पर प्राप्त करते हैं और विपत्ति आने से पूर्व ही सुरक्षा प्रयत्नों में तत्परतापूर्वक जुटते हैं। भूकम्प जैसे दुर्घटनाओं से पूर्व कुत्ते बिल्ली जैसे प्राणी जिस प्रकार सुरक्षा प्रयास करते हैं वह देखने ही योग्य है।
मनुष्य के सम्मुख खतरे कम नहीं हैं। उन्हें जानने के कारण ही वह अनेकों कठिनाइयों से बचने के प्रयास करता और बहुत कुछ सफल भी होता है। रात्रि में उसे कम दीखता है। अस्तु उसे ठोकर लगने से लेकर निशाचरों तक से उस अवधि में अनेक खतरों की आशंका रहती है। अस्तु बचाव का ध्यान रखते हुए प्रकाश जलाने, मकान बनाने, चौकसी करने जैसे उपाय अपनाये जाते हैं। शीत ऋतु की चपेट से प्राण बचाने के लिए भी आवश्यक वस्त्रों से लेकर आग जलाने तक के सरंजाम जुटाये जाते हैं। मूसलाधार वर्षा से सिर छिपाने का प्रबन्ध न हो तो शरीर से लेकर संचित साधनों में से कुछ भी बच सकना सम्भव न होगा।
ऋतु प्रभाव, आक्रमणों का भय, अभावजन्य संकट, प्रकृति प्रकोप जैसे संकटों का अनुभवजन्य ज्ञान रहने से लोग उनसे बचने और समय रहते सुरक्षा प्रबन्ध करने में सफल रहते हैं। आकस्मिक विपत्तियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। युद्ध, महामारी, बाढ़, भूकम्प, तूफान, दुर्भिक्ष जैसे संकट न जाने कब, किस रूप में, कहाँ आ धमकें इसकी पूर्व जानकारी प्राप्त करने के सम्बन्ध में विज्ञजनों द्वारा निरन्तर माथा-पच्ची की जाती रहती है। बदलते मौसम की जानकारी देने वाली वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ इस संदर्भ में बहुमूल्य उपकरणों का प्रयोग करती हैं। उन संग्रहित पूर्व सूचनाओं के आधार पर सुरक्षा के प्रयत्न चल पड़ते हैं उस आधार पर संकटों से निपटने में बहुत कुछ उपाय भी बन पड़ता है। युद्धकाल में राडार प्रभृति उपकरणों से शत्रु के आक्रामक वायुयानों का पता चलता है और उस आधार पर तत्काल रोकथाम का प्रबन्ध होता है। यह पूर्वाभास विज्ञान के विकसित स्वरूप का ही प्रतिफल है।
अदृश्य जगत के अन्तर्ग्रही प्रभावों और मानवी गतिविधियों से प्रभावित अदृश्य वातावरण से संबंधित ज्योतिर्विज्ञान की तरह ही प्रत्यक्ष जगत की परिस्थितियों पर अवलम्बित सम्भावना विज्ञान भी है। इसी आधार पर विकास की योजना बनती है और रोकथाम के कार्यक्रम बनते हैं। यदि अनुमानों में कोई तथ्य न रहा तो भविष्य निर्धारण की दृष्टि से कोई महत्वपूर्ण कदम उठ ही नहीं सकता था। अनिश्चितता की स्थिति में दवा लगाना तो मात्र जुआरी सट्टेबाजों का ही काम है। बुद्धिमत्ता की यह विशेषता है कि वह भूत से शिक्षा ग्रहण करती- वर्तमान का विवेचन, विश्लेषण करती और भविष्य का ऐसा अनुमान लगाती है जो सत्य और तथ्य के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटता है। भविष्य की योजनाओं का सारा ढाँचा इसी आधार पर खड़ा किया जाता है। संसार के राजनेता, अर्थ शास्त्री, समाज संचालक, विज्ञान वेत्ता, बुद्धिजीवी प्रायः इन्हीं पूर्वानुमानों का महत्व स्वीकारते हुए भी भावी प्रयासों की रूपरेखा विनिर्मित करते हैं। इसी वर्ग में मौसम विज्ञानियों एवं अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों को भी गिना जा सकता है।
भविष्य चिन्तन एवं भविष्य वक्ता वर्ग में, खगोलवेत्ता ज्योतिषी- अदृश्य जगत के पर्यवेक्षण अध्यात्म तत्वदर्शी तथा तथ्यों के सूक्ष्म विवेचन बुद्धिजीवी दूरदर्शी यह तीन वर्ग प्रमुख हैं। इनकी निर्धारणाओं एवं घोषणाओं पर बहुत कुछ विश्वास भी किया जाता है। लोग तद्नुरूप अपनी भावी योजनाएँ बनाने में भी संलग्न होते हैं। इतने पर भी इस मूलभूत मान्यता पर विश्वास किया जाता है कि सम्भावनाओं का अनुमान अटल या अकाट्य नहीं है। उनमें परिस्थिति वश भी हेर-फेर हो सकता है और मानवी पुरुषार्थ से उसमें असाधारण उलट-पुलट होने की भी सम्भावना हो सकती है। भूलते भटकते वे लोग हैं जो भविष्य अनुमान को, कथन को, अकाट्य मान बैठते हैं। इस भ्रम-जंजाल के कारण ही लोग निराश होते पाये जाते हैं अथवा किसी अप्रत्याशित लाभ की कल्पना करते हुए आकाश से सोना बरसने जैसी कल्पना करते रहते हैं। शेख-चिल्ली को ऐसा ही चिन्तन अपनाने पर उपहासास्पद बनना पड़ा था। उत्तम भविष्य की सम्भावना का फलित होना भी बरते गये पराक्रम पर निर्भर है। इसी प्रकार अनिष्ट का निराकरण भी प्रयत्न परायणता पर बहुत कुछ निर्भर है। सम्भावनाओं का अनुमान कितना ही सही क्यों न हो उनका निर्धारण किन्हीं के द्वारा भी क्यों न किया गया हो। समझा जाना चाहिए कि उनके साथ मानवी पराक्रम की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। पत्थर की लकीर यहाँ कुछ भी नहीं है।
विशेषज्ञ विलक्षणों के कितने ही निर्धारणों में पिछले दिनों भारी परिवर्तन सम्भव हो सके। अनिष्ट टल गये और सुयोग के अकल्पनीय अवसर उपलब्ध हुए। इस प्रकार पूर्व निर्धारणों के बदल जाने में उन भविष्य वक्ताओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उन दिनों परिस्थितियाँ ठीक वैसी ही थीं जैसी कि बताई गईं। किन्तु समय रहते लोग चेते- अभीष्ट हेर-फेर में प्राणपण से जुटे और सम्भावना के साथ जूझते हुए अन्ततः उसे बदलकर ही रहे। इस प्रकार वे भविष्य वाणियां यथावत् घटित न होने पर भी पूर्व सूचना देने के रूप में अतीव उपयोगी ही सिद्ध हुईं। यदि वह कथन सामने न होता तो बेखबर लोग गफलत में भी पड़े रहते और उसी विपत्ति में पिस मरते जो दूरदर्शियों ने सम्भावनाओं के रूप में व्यक्त की थीं। इस प्रकार वे भविष्य वाणियां गलत सिद्ध होने पर भी वस्तुतः सही सिद्ध होने की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण समझी गई।
अंक शास्त्रियों ने धरती की उर्वरता, बढ़ती हुई जनसंख्या और वर्षा असन्तुलन का विवेचन करते हुए इन दिनों भयंकर खाद्य संकट उत्पन्न होने की भविष्यवाणियां की थीं। पर वैसा कुछ हुआ नहीं। क्योंकि उस चेतावनी को गम्भीरतापूर्वक लिया गया है और उत्पादन के लिए भूमि बढ़ाने से लेकर खाद-पानी के नये आधार ढूंढ़ निकालने के अप्रत्याशित प्रयत्न किये। फलतः खाद्य संकट टल गया और स्थिति ऐसी न बनी जिसके कारण दुर्भिक्ष पड़ने- भूखों मरने का त्रास सहना पड़ता।
विश्व क मूर्धन्य तथ्यान्वेषी विचारकों में से प्रमुख लेस्टर ब्राऊन, पाल एलिच एवं हार्डिन ने एक स्वर से उन 16 वर्षों में निर्वाह साधनों की कमी की दृष्टी से अत्यधिक भयंकर घोषित किया था जो इस वर्ष समाप्त हो गये। ऐसी दशा में मोटी दृष्टि से उन कथनों का उपहास उड़ाया और असत्य ठहराया जा सकता है। इतने पर भी सचाई अपनी जगह पर अडिग है। यदि रोकथाम के असाधारण प्रयत्न न चले होते तो विलक्षणों के अनुसार यह विपत्ति निश्चित रूप से उतरती जिसे चेतावनी के रूप में प्रकट किया गया था।
सन् 1600 में इंग्लैण्ड के अंक शास्त्रियों ने जलाऊ लकड़ी का भयंकर अभाव होने की घोषणा की थी और इस कारण उस देश की जनता तथा सरकार बुरी तरह भयभीत हो उठी। पर समय आने पर वह संकट टल गया। क्योंकि कोयले का नया विकल्प खोज लिया गया। अतएव न घरेलू ऊर्जा की कमी पड़ी और न ईंधन के अभाव में कारखाने बन्द हो जाने कि विपत्ति टूटी। अठारहवीं सदी में भी इंग्लैण्ड के प्रख्यात अर्थशास्त्री और उच्च पदासीन तथ्यान्वेषी विलियम स्टैनली जीवेन्स ने ऊर्जा संकट की नये सिरे से घोषणा की थी और देश में उद्योग अवरोध आने की आशंका व्यक्त की थी। उस चेतावनी की गम्भीरता को देखते हुए इंग्लैण्ड ने महत्वपूर्ण के क्षेत्रों पर पैर पसारे और वहाँ से खनिज तेलों के दोहन का नया आधार हस्तगत कर लिया। अब आशंका के विपरीत इंग्लैण्ड न केवल अपनी ईंधन आवश्यकता पूरी करता है वरन् तेल और कोयले का निर्यात भी करता है। जीवेन्स का कथन असत्य सिद्ध होने पर भी उन्हें किसी ने झूठा नहीं ठहराया। वरन् संकट की सामयिक चेतावनी देने और साथ ही उससे उबरने का उपाय बताने के लिए उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा ही की गई।
सन् 1880 में जनसंख्या वृद्धि और सस्ते मछली तेल की कमी से तेल संकट इंग्लैण्ड के सामने आया। वह तेल महंगा हो जाने से घरों में अन्धेरा रहने की आशंका व्यक्त की गई। विशेषज्ञों की उस चेतावनी से कोई घबराया नहीं वरन् दूसरे तेलों के उत्पादन का एक नया माहौल बना। फलतः अलसी, अरंडी, सरसों, तिल आदि का उत्पाद तो अत्यधिक मात्रा में किया ही गया इसके अतिरिक्त देवदारु, चीड़ जैसे पेड़ों से भी तेल निकाला जाने लगा। यहाँ तक कि ऐसे चट्टान खोज निकाले गये जिनसे केरोसिन आयल निकला। आज मिट्टी के तेल का सर्वत्र प्रचलन है इस खोज का श्रेय व्हेल मछली का तेल न मिलने की संकट चेतावनी के साथ जोड़ा जा सकता है।
सन् 1973 में विशेषज्ञों ने यह तथ्य उजागर किया था कि खनिज तेल की समाप्ति सन्निकट है। पैट्रोल पम्प सूखे पड़े होंगे। पेट्रोल अत्यधिक महंगा होने पर भी सीमित मात्रा में ही मिलेगा। इस घोषणा से अन्य सभी तो चिन्तित थे, पर बड़े व्यापारियों ने पेट्रोल महंगा होने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए तेल कुओं के साथ लम्बे अनुबन्ध कर लिए। बाद में जब समुद्रों और रेगिस्तानों से तेल निकाला जाने लगा तो संकट टल गया। पेट्रोल की कमी न पड़ी और अनुबन्ध करने वाले व्यापारी दिवालिया हो गये।
अमेरिका में यह चर्चा बहुत दिनों तक व्यवसायी वर्ग में होती रही कि अगले दिनों खाद्यान्न की कमी पड़ेगी और उस विश्व संकट से वह देश अनेक प्रकार के लाभ उठा सकेगा, पर समय की कसौटी पर वह बात खरी नहीं उतरी। सर्वत्र खाद्यान्न अधिक उत्पादन की सतर्कता बढ़ी फलतः अनाज और भी अधिक सस्ते हो गये। इस संदर्भ में सन् 1967 में प्रकाशित पाल पैड काक की पुस्तक ‘फैमाइन 1975’ बहुचर्चित रही जिसमें इस अवधि से संसार भर में भयंकर अकाल पड़ने और करोड़ों अरबों के भूख से मरने की सम्भावना व्यक्ति की गई थी। ऐसी ही एक पुस्तक 1968 में प्रकाशित पाल एर्लिच की ‘पाप्युलेशन बाम्ब’ है जिसमें दो दशकों के अंतर्गत जनसंख्या इतनी बढ़ जाने की बात कही गई थी कि मानवी निर्वाह साधनों में भयंकर संकट उत्पन्न होगा और लोग मक्खियों की मौत मरेंगे। किन्तु समय की कसौटी पर वह आशंका भी सही सिद्ध नहीं हुई। जनसंख्या की बढ़ोतरी पर मनुष्य द्वारा तथा प्रकृति द्वारा कितने ही अंकुश लगे और जितनी बढ़ोतरी हुई वह परिस्थिति में खप गई। सन् 1971 से 1980 के बीच खाद्यान्न की भारी कमी रहने की घोषणाएं विश्व के मूर्धन्य विशेषज्ञों ने की थी पर वे सभी गलत सिद्ध हुई। इस अवधि में उत्पादन पहले की अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में हुआ। इस प्रकार लेस्टर ब्राउन की “सस्टेनेबल मोसायटी” घोषणा एक प्रकार से असत्य ही सिद्ध हुई। बाद में इन्हीं लेखक महोदय ने “सीड्स आफ चैलेंज” ग्रन्थ में यह बताया कि पूर्व घोषित भविष्य कथन क्यों असत्य सिद्ध हुआ।
पाल एलिंच ने कुछ भयंकर कथन अगणित तथ्यों की साक्षी देते हुए घोषित किये थे। उनमें उनने निकट भविष्य में, अकाल, महामारी, युद्ध के अतिरिक्त समुद्र सूखने, मछलियों की कमी पड़ने और 50 मिलियन मनुष्यों के भूखों मरने की सम्भावना व्यक्त की थी। घोषित समय निकल गया। सन् 1980 तक इन संकटों में से एक भी भयावह स्तर का नहीं उभरा। इस प्रकार दावे के साथ किये गये- सप्रमाण भविष्य कथन असत्य सिद्ध होते रहे हैं।
युग सन्धि के इन बीस वर्षों के सम्बन्ध में कितने ही दिव्यदर्शियों, महामनीषियों द्वारा ऐसी भविष्यवाणियां की जाती रही हैं। धर्मशास्त्रों, आप्त पुरुषों, दिव्यदर्शियों महामनीषियों ने एक स्वर से इस अवधि में अनेकानेक संकटों की संभावनाएं व्यक्त की हैं। कारण गिनाते और प्रतिफलों की संगति बिठाने पर वे कथन हर दृष्टि से तथ्य पूर्ण भी दीखते हैं। इतने पर भी यह नहीं मान बैठना चाहिए कि जो कहा गया है वह पत्थर की लकीर है और उसे टाला या बदला नहीं जा सकता। मानवी पराक्रम इस संसार में सर्वोपरि है। वह किन्हीं भी भली-बुरी सम्भावनाओं को बदलने में समर्थ है। वह राम का सिंहासनारूढ़ होने के स्थान पर वनवास भी भिजवा सकता है। कैकयी और मन्थरा की दुरुभि सन्धि ने वातावरण उलट दिया। इसी प्रकार हनुमान ने वह कर दिखाया जिसे असम्भव के स्थान पर सम्भव की स्थापना कहा जा सकता है।
भूतकाल में अवतारी महामानवों ने वह कर दिखाया जिसे सामान्य दृष्टि से अप्रत्याशित और असम्भव ही समझा जाता था। इस बार भी ऐसा हो सकता है। युग सन्धि की बेला में जहाँ एक ओर विनाश विभीषिकाएं सामने हैं वहाँ दूसरी ओर सतयुग की वापसी वाले युग परिवर्तन की- उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना भी विद्यमान है। निराशा की कोई आवश्यकता नहीं। संसार की कोई भली-बुरी सम्भावना या परिस्थिति ऐसी नहीं है जिसे मानवी पराक्रम सुधार कर बदल न सके।
विनाश के आसुरी तत्व जहाँ इन दिनों अपना मरण देखकर विभीषिकाएँ उत्पन्न करने में कमी नहीं रहने दे रहे हैं वह देवत्व की तत्परता शान्ति और प्रगति की स्थापना के लिए भी कम नहीं है। हमें निराश के अन्धकार में भी प्रगति की स्वर्णिम किरणों का सपना संजोना चाहिए और उसे फलित होने के लिए सृजनात्मक पराक्रम का पूरा-पूरा उपयोग करना चाहिए।