जीवन सत्ता की आधारभूत सत्प्रवृत्तियाँ

August 1984

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मानव के समस्त चेतन क्रिया-कलाप किन्हीं मूलभूत भावनाओं पर आधारित हैं। चेतन सत्ता के मूल में क्रीड़ा-कल्लोल करने वाली ये प्रवृत्तियाँ ही काय-कलेवर का सारा जीवन- व्यापार संचालित करती हैं। इन्हीं की दिशाधारा के अनुरूप अनेकों जैव रसायन क्रियाएँ शरीर में स्वयमेव चलती रहती हैं। शरीर क्रिया विज्ञानी इनका स्थूल रूप तो जानते हैं एवं फिजियोलॉजी के रूप में वह पढ़ाया भी जाता है लेकिन ऐसा क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर उनके पास है नहीं। भ्रूण (एम्ब्रियो) एक कोशीय स्थिति से बढ़ते-बढ़ते एक स्थिति पर जाकर रुक जाता है। यह अबाध वृद्धि दर रुक क्यों जाती है एवं भ्रूण गर्भाशय में ही जीवन पर्यंत क्यों नहीं पड़ा रहता, इसका कोई समाधान एम्ब्रियालॉजीस्ट्स के पास नहीं है। माँ के गर्भ में पल रहा जैव-भ्रूण नितान्त सुरक्षित पड़ा रहता है। न उसे जीवाणुओं से बचाव की व्यवस्था जुटानी पड़ती है, न ही सर्दी-गर्मी का उसे भय होता है। ऐसी स्थिति में अनेकानेक सुविधाओं को छोड़कर क्यों तो वह बाहर आये एवं क्यों आफत मोल ले?

इस प्रश्न का उत्तर शरीर विज्ञानियों के पास नहीं है। उत्तर मात्र आत्मिक परक ही हो सकता है। जीव चेतना अपूर्ण है। वह पूर्णता की ओर विकसित होना चाहती है। पराधीन न बनी रहकर स्वाधीन होना चाहती है, साथ ही जीवनचर्या से जुड़े अनेकानेक भावनात्मक अनुभवों का रसास्वादन भी करना चाहती है।

शरीर संस्थान में चल रही अनेकानेक क्रियाओं के पीछे छिपे प्रश्न “क्यों” का उत्तर ढूंढ़ना हो तो जीवन का आधारभूत उन भावनाओं का अवलम्बन लेना होगा जो मानव के गहन अन्तराल में- उसके कण-कण में विद्यमान है। इन भावनात्मक सिद्धान्तों पर ही शारीरिक क्रियाएँ तथा मनोगत आकांक्षाएं गतिशील रहती हैं। जिन मूलभूत भावनाओं पर जीवन सत्ता का आधिपत्य है, उनमें से सात को प्रमुख माना जा सकता है। ये वे सत्प्रवृत्तियाँ हैं जो सतत् जीवन चेतना को उत्प्रेरित करती हैं, जिनके आधार पर काय-कलेवर में प्राण का स्पन्दन होता रहता है।

ये सात भावना घटक हैं- (1) सहकारिता (2) संघर्ष (3) सामंजस्य (4) पराक्रम (5) प्रत्यावर्तन (6) अनुशासन (7) एकात्मभाव। इन्हीं के आधार पर विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से काय संस्थान के समस्त क्रिया-कलापों को गतिशील रहते देखा जा सकता है।

इनमें पहली प्रवृत्ति सहकारिता की है। सहयोग की भावना के आधार पर ही खरबों कोश मिलकर एक शरीर बनाते हैं। पारस्परिक सहकार द्वारा ही वे अपने को विभिन्न ऊतक समूहों में वर्गीकृत कर लेते हैं। ऊतक मिलकर एक अवयव बनाते हैं एवं कई अवयव मिलकर एक संस्थान अथवा तन्त्र बनाते हैं। विभिन्न तन्त्रों का समुच्चय ही मानवी काया है। इस प्रकार लगभग साढ़े सात सौ खरब इकाइयों का एक शरीर बनता है।

यदि सहकारिता के इस गुण को हटा दिया जाय तो हम देखते हैं कि शरीर क लगभग सभी कोश स्वतन्त्र जीवन जीने में भलीभांति समर्थ हैं। शरीर का एक कोश भी यदि जीवित अवस्था में उपयुक्त “सेल कल्चर” में रखा जाता है तो वह स्वाभाविक जीवन अवधि पूर्ण करता रह सकता है। वह सभी क्रियाकलाप पूरे कर सकता है, जो कि वह पूर्ण शरीर में करता था। प्रश्न यह उठता है कि जब हर कोश स्वयं में पूर्ण है तो क्यों वह अपनी स्वतन्त्रता त्यागता है? क्यों नहीं वह अमीबा जैसे एक कोशी जीव की तरह एकाकीपन का आनन्द लूटता?

वस्तुतः एक-दूसरे के सहयोग सहकार ने ही ज्यादा समर्थ जीवन जीने की- प्रतिकूलताओं से जूझकर बहुकोशीय जीव के निर्माण की स्थिति उत्पन्न की है। पारस्परिक सहकार ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है जिसमें उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम सदुपयोग हो सके।

यह गुण शरीर के अंग-प्रत्यंग में समाया देखा जा सकता है। अनेकों एन्जाइम्स मिलकर भोजन पचाते हैं। प्रोटीन रूप में विद्यमान इन एन्जाइमों का बनना स्वयं सैकड़ों सहयोगी एन्जाइमों पर निर्भर है। इस प्रकार मात्र भोजन का पाचन प्रक्रिया में कई सौ एन्जाइम अपनी भूमिका निबाहते हैं। यदि इनमें से एक भी अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए मना कर दे, बागी हो जाय तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है।

अपनी इस काया में स्वार्थ व परमार्थ का अनूठा संगम मिलता है। जो बाँटता है उसे स्वयं भी मिलना चाहिए इस आदर्श को हृदय-रक्तवाही संस्थान में फलीभूत होते देखा जा सकता है। हृदय का काम है- सारी काया में रक्त पम्प कर लगभग 99 प्रतिशत वितरित कर देना, परिशोधित रक्त को स्वस्थ ऊतकों तक पहुँचाना। बदले में उसे भी एक प्रतिशत रक्त पोषण के लिए कोरोनरी धमनियों के माध्यम से मिल जाता है। जीवन जीने की यह स्वर्णिम समन्वय नीति है।

हड्डियों का अपना भार तो मात्र बाहर प्रतिशत है। इतने पर भी वे 88 प्रतिशत भार दूसरे अवयवों का ढोती हैं। जिन पर कम भार पड़ता है। वे पतली रहती हैं। अपना आकार विस्तार वे वहीं बढ़ाती हैं, जब उन्हें किसी स्थान पर विशेष भार वहन करना पड़ता है। रीढ़ की हड्डियों को देखा जाय वे कितनी पतली तथा पोली होते हुए सारे शरीर का वजन सन्तुलन सम्भालती हैं। पैरों की मोटी और गले की पतली हड्डियाँ वजन ढोने के अनुपात से ही हैं। उनमें से किसी को भी इस बात की शिकायत नहीं है कि उन्हें क्यों पतला रहना पड़ रहा है और दूसरी क्यों बड़ी तथा भारी हैं। अधिक उत्तरदायित्व उठाने वालों को अधिक सुविधा मिले तो इसमें बराबरी की ईर्ष्या करने की किसी को क्यों शिकायत होनी चाहिए। जोड़ो पर उनकी संरचना देखते ही बनती है। परस्पर सहयोग से ही वे कई दिशाओं में मुड़ने घूमने में सफल हो पाती हैं।

दूसरी मूलभूत सत्प्रवृत्ति है- संघर्ष की। विकृति से जूझना जीवन के लिए नितान्त अनिवार्य है। जीवकोश से लेकर समग्र काया तक इस प्रखर प्रवृत्ति को क्रियाशील देखा जा सकता है।

एक कोश को ही लें। प्रत्येक कोश में सोडियम, पोटैशियम, जल, अमीनो अम्ल, विटामिन, हारमोन्स आदि रसायन-आयन्स की मात्रा एक निश्चित परिमाण में पाई जाती है। किसी एक की मात्रा इधर-उधर होने पर कोश का जीवन खतरे में पड़ सकता है। इसलिए कोश की “सेलमेम्ब्रेन” में पाये जाने वाले एनजाइम्स निरन्तर उन कणों से जूझते रहते हैं जो अवांछनीय गतिविधि अपनाते हुए अन्दर घूमने का प्रयास करते हैं। यदि किसी कोश का ‘सोडियम पम्प’ बिगड़ जाय तो मानना चाहिए कि सोडियम की सान्द्रता बढ़ने से वह शीघ्र ही मर जाएगा। किसी तरह कोशीय झिल्ली के रक्षकों को धोखा देकर कोई बाह्य कण अन्दर प्रवेश कर जाता है तो लाइसोसोम नामक कोशीय अवयव उससे जूझकर उसे छिन्न-भिन्न करके छोड़ते हैं।

रक्त में पानी की मात्रा तनिक भी बढ़ जाय तो तुरन्त एण्टी डाययूरेटिक हारमोन्स सक्रिय हो जाते हैं और अनावश्यक जल की मात्रा को गुर्दे के माध्यम से निकाल बाहर करते हैं। कोई अवांछनीय पदार्थ अन्दर जाते ही ऊर्ध्व पाचन संस्थान के अवयव उल्टी द्वारा उसे बाहर खदेड़ देते हैं। वातावरण में ठण्डक बढ़ते ही शरीर ऊर्जा की उत्पत्ति भी बढ़ जाती है एवं वातावरण से सामंजस्य बैठ जाता है। रोगाणुओं के शरीर में प्रवेश करते ही शरीर अपने रक्तकणों एवं जैव रसायन आधारों के माध्यम से तब तक उनसे लड़ता रहता है जब तक कि वे मर नहीं जाते। यदि यह संघर्षशीलता तनिक भी गड़बड़ा जाय तो मनुष्य रोगी हुए बिना न रहेगा।

यह चेतना का ही गुण है जिसके माध्यम से शरीर का हर कोश एक सैनिक की भूमिका निभाता है। यदि कोश मात्र रसायनों की पोटली, होता तो वह जीवाणु आदि से लड़ने का झंझट क्यों उठाता? विकृतियों से जूझने की इस प्रवृत्ति को “सेल मिडीएटैड इम्यूनिटी” क माध्यम से भलीभांति समझा जा सकता है। इस प्रक्रिया में इम्यून (प्रतिरोधी) कोश अवांछनीय तत्वों को मारते हैं। डा. रोज, मिलीग्राम एवं वैन आस अपनी पुस्तक “प्रिसीपल्स आफ इम्युनालॉजी” में लिखते हैं कि परस्पर सटने के बावजूद इम्युनकोष व आक्रामक कोशों के मध्य कोई रासायनिक आदान-प्रदान नहीं होता। इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि इम्यून कोश जीवनी शक्ति बढ़ाने में किसी अरासायनिक प्रक्रिया को अपना माध्यम बनाते हैं। यह सचेतन संघर्षशीलता ही जीवकोश का मुख्य धर्म है।

इससे चिकित्सा प्रक्रिया में मनुष्य का मूल भावनाओं की अभिवृद्धि चेतनात्मक आधार पर करने की ओर ध्यान अब वैज्ञानिकों का गया है। संक्रमण एवं कैन्सर जैसे घातक रोगों का कारण अब संघर्षशीलता के अभाव को ही माना जाने लगा है। मात्र औषधि उपचार ही नहीं, जीवनी शक्ति संवर्धन की इस भावनात्मक प्रवृत्ति को भी उतना ही प्राधान्य मिलना चाहिए, ऐसा अभिमत अब जड़ पकड़ता जा रहा है।

तीसरी प्रवृत्ति है सामंजस्य। अर्थात् तालमेल बिठाना, परिस्थितियों के अनुरूप अपने अपने स्वरूप व अपनी जरूरतों को बढ़ा-घटा लेना। दीर्घायुष्य बने रहना इसी आधार पर सम्भव है। शरीर की यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि जो जीवाणु “फ्लोरा” के रूप में त्वचा पर विराजे होते हैं एवं सतत् झड़ते रहने वाले मृत कोशों को खाकर ही अपना पेट भर लेते हैं उनसे वह भली-भाँति तालमेल बिठा लेते हैं। शरीर की गर्मी के साये में वे भली-भाँति चलते रहते हैं एवं उसे कोई हानि नहीं पहुँचाते। जब भी वे ऊतकों में प्रवेश करने का प्रयास करने का प्रयास करते हैं, श्वेतकण उन्हें बाहर धकेल देते हैं। पारस्परिक सामंजस्य जीवकोशों का एक सीमा तक ही स्वीकार्य है। सहयोगी जीवाणु आँतों में बैठे-बैठे विटामिन बी-12 बनाते रहते हैं, बदले में उन्हें पोषण मिलता है। जब भी मारक औषधियों (टेट्रासाइक्लीन, क्लोरेम्फेनिकाल आदि) का प्रयोग होता है, ये जीवाणु नष्ट हो जाते हैं एवं शरीर को घातक रोगों के रूप में दण्ड भुगतान पड़ता है।

जब शुद्ध वायु नासिका के माध्यम से फेफड़ों में प्रविष्ट होती है तो श्वास नलिकाएँ चौड़ी हो जाती हैं फेफड़ों में रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है ताकि अधिक से अधिक शुद्ध वायु रक्त के संपर्क में आकर अन्दर प्रवेश कर सके। फेफड़ों के ऊपर की झिल्ली व उसके नीचे के खाली स्थान (ब्लूरल केवाटो) में भी दबाव घट जाती है ताकि फेफड़े फैल सकें, अधिक से अधिक शुद्ध वायु अन्दर प्रवेश कर सके। यह सामंजस्य का प्रकरण हुआ। लेकिन यदि कोई दूषित वायु नासिक में से प्रवेश करने का प्रयास करती है तो श्वास नलियाँ सिकुड़ जाती हैं, जोरों से खाँसी आती है व सारी अवाँछनीय गैस बाहर कर दी जाती है। आक्रोश और शान्तिपूर्ण सहयोग की यह दुहरी नीति शरीर के हर क्रिया-कलाप में देखी जा सकती है।

इसी प्रकार हर कोश, ऊतक, अवयव तथा तन्त्र में परस्पर तालमेल बिठाने की इतनी अधिक सामर्थ्य है जो देखते ही बनती है। यदि किसी व्यक्ति का एक गुर्दा या फेफड़ा निकाल भी दिया जाय तो दूसरा परिस्थितियों से तालमेल बिठाकर सारा काम अकेला कर लेता है। जो काम दो अवयव कर पाते थे, वह एक ही अवयव फैलकर बड़ा रूप लेकर अकेला ही कर लेता है। यह वृत्ति नारी के गर्भाशय में तो उदारता-सहिष्णुता की चरम सीमा पर पहुँच जाती है। गर्भ रहित अवस्था में जो गर्भाशय मात्र डेढ़ या दो इंच घड़ा होता है, भ्रूण के बढ़ने के साथ ही फैलता जाता है एवं प्रसव के समय तक लगभग 12 इंच लम्बा आकार ले लेता है जिसमें ढाई-तीन किलोग्राम का शिशु प्लेसेण्टा व पानी के आवरण सहित पल रहा होता है। गर्भाशय ग्रीवा का छिद्र जो कुछ मिलीमीटर का ही होता है, प्रसव से कुछ घन्टे पूर्व लगभग पच्चीस गुना फैल जाता है, ताकि परिपुष्ट शिशु इसमें से बाहर निकल सके।

शरीर से बीस प्रतिशत रक्त निकल भी जाए, जैसा कि दुर्घटना में होता है अथवा किसी रोगी के लिए निकाला जाता है तो भी रक्त आयतन यथावत बना रहता है। लगभग 10 घण्टे के अन्दर शेष की पूर्ति मज्जा कोशों द्वारा कर दी जाती है। ऐसे कई उदाहरण हैं। जो बताते हैं कि शरीर बाह्य व आन्तरिक परिस्थितियों से समुचित तालमेल यदि न बिठाता तो अनेकों रोगों का घर होता। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि शरीर के अवयव अत्यन्त विकट परिस्थितियों में भी सामंजस्य बिठाने में समर्थ हैं। इस क्षमता के क्षीण होते ही शरीर रोगी हो जाता है। (क्रमशः)


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