सूक्ष्मीकरण साधना में सहभागी बनने हेतु तीन अनिवार्य चरण

August 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य दो हिस्सों में बँटा हुआ है एक काया। दूसरा चेतना। काया को वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है और चेतना को चिन्तन की। काया भौतिक है। चेतना अध्यात्म। दोनों की अपनी-अपनी आवश्यकताएँ हैं। शरीर को अन्न, जल, वायु की- भोजन, वस्त्र, निवास की- आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार चेतना का निर्वाह एवं कार्यक्षेत्र चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार पर अवलम्बित है। शरीर को सुविधाएँ उपयुक्त मिलेंगी तो वह सुदृढ़ एवं दीर्घजीवी रहेगा। इसी प्रकार आत्मा के सम्मुख यदि चिन्तन परक परिस्थितियाँ उच्चस्तरीय रहें तो उन्हें समुन्नत होने का अवसर मिलेगा।

आत्मिक उत्कर्ष के लिए इन त्रिविधि सुयोगों की व्यवस्था रखी होती है। भावना- विचारणा एवं तत्परता को- गुण, कर्म, स्वभाव के नाम से जाना जाता है। इन्हें ही आस्तिकता- आध्यात्मिकता और धार्मिकता कहते हैं। उन्हें परिष्कृत करने की दार्शनिक विधि-व्यवस्था को कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग कहा गया है। शरीर को कर्म योग, मन को ज्ञानयोग और अन्तःकरण को- भक्तियोग द्वारा परिष्कृत किया जाता है। इन्हीं तीन वर्गीकरणों को स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की संज्ञा दी गई है। प्रकृति, जीव और ईश्वर के तीन भेदों में भी तत्वदर्शी इसी ब्रह्मांड की व्याख्या करते रहे हैं। भावना को परिष्कृत करने के लिए श्रद्धा- विचारणा को प्रज्ञा और तत्परता को निष्ठा द्वारा उच्चस्तरीय बनाया जाता है। दार्शनिक क्षेत्रों में इसी प्रकार के ऊहापोह, चेतनात्मक विश्लेषण के संदर्भ में होते रहते हैं। जिनके पास अधिक समय है, जिनकी विचारणा अधिक तीव्र है वे अनेक दार्शनिक प्रचलनों के अनुसार इन प्रतिपादनों पर विस्तृत विचार विनिमय करते रहते हैं। बुद्धि विलास की दृष्टि से यह उपयोगी भी है। और आकर्षक भी। जिन्हें अध्यात्म विज्ञान के संदर्भ में अधिक अभिरुचि है। वे इन सभी प्रसंगों पर विस्तारपूर्वक पठन, श्रवण, चिन्तन मनन एवं ऊहापोह करते रह सकते हैं।

जिन्हें काम चलाऊ सार संक्षेप भर जानना हो, उनके लिए इतना समझने भर से काम चल जायगा कि चेतना के तीन स्तर हैं। तीनों परस्पर गुँथे हुए हैं। तीनों को ही साथ-साथ विकसित करना होता है।

उपरोक्त तीनों क्षेत्रों को परिष्कृत करने के लिए जो विधा प्रचलित है उसके तीन भाग हैं- (1) उपासना (2) साधना (3) आराधना। उपासना के भाव क्षेत्र को साधना से चरित्र को और आराधना से व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश किया जाता है। यह तीनों साथ-साथ चलती हैं। जिस प्रकार अन्न, जल और वायु का साथ-साथ सेवन क्रम चलता रहता है उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए हर किसी को अपने-अपने ढंग से उपासना, साधना और आराधना की त्रिधा अपनानी पड़ती है।

अन्तःकरण में श्रद्धा की अभिवर्धन करने के लिए उपासना की जाती है। क्षुद्र को महान में- जीव को ब्रह्म में- परिवर्तित करने का यही उपाय है। उपासना करने से साधक तद्रूप बनता है। भगवान के गुण, भक्त में बढ़ना आरम्भ हो जाते हैं। समर्पण भावना से एकात्मता स्थापित होती है और अद्वैत स्थिति बनती है। इसके लिए बिन्दु सिन्धु जैसा ईंधन आग जैसा, पतंगे दीपक जैसा- बेल पेड़ जैसा- पतंग उड़ाने वाले जैसा ध्यान करने में, नदी सरोवर के मिलन में यही भाव है। सीमित ‘स्व’ के विराट् ‘त्वम्’ में विसर्जित करने से क्षुद्रता मिटती और महानता प्रकट होती है।

सभी प्रज्ञा परिजनों को नियन्त्रित उपासना करनी चाहिए। स्नान बन पड़े तो प्रातःकाल नियम से बैठकर न्यूनतम पन्द्रह मिनट आद्य शक्ति युग शक्ति गायत्री की उपासना करनी चाहिए। जिनसे इतना न बन पड़े वे आँख खुलते ही बिस्तर ही पर बैठे गायत्री का जप एवं सविता का ध्यान करते रह सकते हैं।

उपासना के माध्यम से आत्मा का परमात्मा के साथ ऐसा सघन सम्बन्ध सूत्र जुड़ता है जिससे दोनों के बीच आदान-प्रदान का तारतम्य जुड़ सके। यह वस्तुतः भावना क्षेत्र है। इसमें भक्ति की- रस सम्वेदना की उमंगें काम करती हैं। एकता और एकात्मता के लिए आत्मीयता आवश्यक है। एकता और आत्मीयता दोनों एक साथ रहती हैं। परमात्मा के साथ आत्मा को जोड़ना एकात्मता के सहारे ही सम्भव है। दोनों के बीच इस आधार पर जितनी घनिष्ठता उत्पन्न कर ली जायगी। उतना ही आदान-प्रदान चल पड़ेगा।

ईश्वर महान है- जीव इसका अंशधर होते हुए भी स्वल्प। स्वल्प में जितना अंश महानता का बढ़ता या भरता जाता है उतना ही वह पूर्ण एवं समर्थ बनता जाता है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए उपासना का अवलम्बन लिया जाता है।

उपासना का अर्थ है- समीप बैठना। समीप बैठने से अधिक प्रभावशाली के गुण, कम प्रभावशाली में आना आरम्भ कर देते हैं। चन्दन के समीप उगी हुई झाड़ियों में भी सुगन्ध आने लगती है। स्वाति बूँद पड़ने से सीप में मोती, बाँस में बंसलोचन, केला में कपूर उत्पन्न होने की किम्वदंती है। पारस छूने से लोहा सोना बनता है। सत्संग और कुसंग की अपनी-अपनी महिमा है। टिड्डे हरी घास पर रहते हैं तो हरे रंग के होते हैं पर जब घास सूखकर पोली पड़ जाती है तो उनका रंग भी बदल कर पीला हो जाता है। भगवान की समीपता का- उपासना का- भी वैसा ही प्रतिफल होना चाहिए। दो सरोवरों के बीच में यदि एक नाली बना दी जाय तो पानी ऊँची का नीची में चलने लगेगा और तब तक बहेगा जब तक दोनों का जल लेवल एक नहीं हो जाता। उपासना यदि सच्चे मन से की जाय तो उसका भी ऐसा ही प्रतिफल होना चाहिए। भक्त में भगवान की विशेषताएँ छलकनी चाहिए। हमने अपने उपासना क्रम में सदैव इन भाव तरंगों को अपने मानस पर आरोपित कर ऐसी ही अनुभूति की है एवं स्वयं को समग्र रूपेण इष्ट से घुला देने का प्रयास किया है।

भगवान को सद्गुणों का समुच्चय कहा गया है। मनुष्य के लिए इतना ही अंश उपास्य है, जो श्रेष्ठतम विशेषताओं से भरा-पूरा है। उसको निकट बुलाने की निकट पहुँचने की धारणा उपासना में की जाती है। इसके लिए नाम जप या रूप ध्यान का आश्रय लिया जाता है। भगवान यों सर्वव्यापी होने के कारण निराकार हैं। इसलिए उनका नाम रूप तो नहीं हो सकता पर हमारे मन की बनावट ऐसी है जिसके अनुसार बिना नाम रूप से परिकल्पना एवं ध्यान धारणा नहीं हो सकती। इसके बिना उपासना का योगाभ्यास नहीं बन पड़ता। इसलिए अध्यात्म विज्ञान के मनीषियों ने भगवान के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए कोई नाम रूप वाला ‘इष्टदेव’ स्थापित करने का निर्देशन दिया है। इस प्रतिमा के साथ समर्पण की एकात्म भावना स्थापित की जाती है और द्विधा का भेद मिटाकर एकात्म स्थिति का ध्यान किया जाता है। नाम भी बार-बार इसीलिए लिया जाता है कि इष्टदेव की स्मृति निरन्तर बनी रहे।

आत्मिक प्रगति का दूसरा चरण है- साधना। पूरा नाम है जीवन साधना। जीवनचर्या को मानवी गरिमा के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से सुसंस्कारी बनाना। संक्षेप में यही है- साधना का उद्देश्य। जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों को निरन्तर काटते रहने पर ही वह मानवी गरिमा के ढांचे में ढलता है। अन्यथा नर-पशु जैसा अनगढ़ कुसंस्कारी ही बना रहता है। आत्म परिशोधन की आत्म-परिष्कार की प्रक्रिया जीवन साधना कहलाती है।

मदारी रीछ, बन्दरों को सिखाकर नाच दिखाने योग्य साध लेते हैं। सपेरे साँपों को अभ्तस्त करके उनसे अपने परिवार का पेट पालता है। सरकस वाले सिंह हाथी और बड़े-बड़े जानवरों से आश्चर्यजनक कौतूहल कराते हैं। बिना सिखाये तो बैल, घोड़े, ऊँट तक अपने-अपने उपयुक्त काम करना नहीं सीख पाते। फिर नर-पशु के देव मानव बनने की आशा कैसे की जाय। इसके लिए ही आत्म परिष्कार की जीवन साधना करनी होती है।

इसके लिए दो बार तो नियत उपासना के लिए चिन्तन-मनन के लिए बैठना पड़ता है। एकबार (1) आत्म समीक्षा (2) आत्म-सुधार (3) आत्म-निर्माण और (4) आत्म-विकास के सम्बन्ध में अपनी जाँच पड़ताल करने के लिए। दूसरी बात अपने गुण, कर्म, स्वभाव में संयम शीलता का कितना समावेश हो रहा है वह परखने के लिए। चार संयम ही, चार तप कहलाते हैं। इन्हें अपने में बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। (1) इन्द्रिय संयम (2) अर्थसंयम (3) समय संयम (4) विचार संयम। इन चार कसौटियों पर अपने को कसते रहना चाहिए। जो भूलें होती हैं, कमियाँ, रहती हैं, उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। एक साथ सारे दोष-दुर्गुण दूर न हो पाते हों तो भी निरन्तर यह प्रयत्न चलना चाहिए कि तुलनात्मकी दृष्टि से विगत कल की अपेक्षा आज सुधरा हुआ है और आज की अपेक्षा अगला कल अधिक पवित्र और प्रखर रहे। आत्म सुधार के लिए स्वयं प्रयत्नरत रहने का प्रयास ही जीवन साधना है। इसके लिए समय-समय पर अपने से अधिक समुन्नत लोगों से परामर्श भी लेते रहा जा सकता है। साधना के विषय में विस्तृत ऊहापोह पिछले अंक में विस्तार से किया गया है अतः उन्हें दुहराना अनिवार्य नहीं।

उपासना अर्थात्- चिन्तन। साधना अर्थात्-चरित्र। इन दो की चर्चा हो चुकी। अब तीसरी अध्यात्म परिष्कार प्रक्रिया है- आराधना। आराधना किसकी? विराट् ब्रह्म की। यह विराट् विश्व ही दृश्यमान भगवान का स्वरूप है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को- राम ने कौशल्या और काकभुसुण्डि को अपने इसी विराट् रूप से दर्शन कराया था। रामायण में उसी की अभिव्यक्ति ‘सियाराम मय सब जग जानी’ वाली चौपाई में की है।

समाज के प्रति मनुष्य के जो कर्तव्य हैं- उनमें उदारतापूर्वक परिपालन ही ‘आराधना’ है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उनका जीवनयापन असंख्यों की सहायता से ही चल पाता है। अस्तु उसका भी कर्तृत्व है कि ऋण मुक्ति के लिए लोक सेवा के कार्यक्रमों में निरत रहे। भगवान ने मनुष्य जन्म जैसा सर्वश्रेष्ठ उपहार इसी लिए दिया है कि वह उस धरोहर का सही प्रयोजन के लिए सही प्रयोग करे। विश्व उद्यान को श्रेष्ठ समुन्नत बनाने के लिए ही यह जन्म मिला है। जो इस अमानत का सही उपयोग करते हैं वे महामानव, ऋषि और देवमानव के उच्च पद प्राप्त करते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचते हैं। जो इस ओर से उपेक्षा बरतते हैं, सब अपने ही संकीर्ण स्वार्थ साधन में- पेट प्रजनन में निरत रहते हैं। इन पर जीवन सम्पदा के दुरुपयोग का दोष लगता है। कर्तव्य च्युत होने का पाप वहन करते हैं।

आराधना ठीक प्रकार बन पड़े इसके लिए दो उपाय बरतने पड़ते हैं एक है- सादा जीवन उच्च विचार। न्यूनतम में निर्वाह। परिवार को सीमित रखना और स्वावलम्बी बनना। दूसरा उपाय है बचत का अधिकांश भाग सत्प्रवृत्ति संवर्धन में नियोजित करना। इस प्रकार बहुत उपार्जित करने वाला अपना पुरुषार्थ तो भरपूर करता है पर जो कमाता है उसका अधिकाँश भाग लोक मंगल में खर्च कर देता है। सम्पदा जमा करते रहने से अनेक दुर्गुण, दुर्व्यसन उत्पन्न करती है। ईर्ष्या का उत्पादन करती और अपव्यय प्रचलन बढ़ाकर अनेकों को कुमार्गगामी बनाती है। स्वास्थ्य, धन, ज्ञान, प्रभाव यह सभी धन वैभव में सम्मिलित किये जाते हैं इस सबका अधिकाधिक मात्रा में होना तो उचित है, पर संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए विलास, संग्रह, अपव्यय एवं दुष्प्रयोजनों के लिए व्यय नहीं होना चाहिए। आराधना का यही सिद्धान्त है।

शरीर यात्रा के लिए जिस प्रकार अन्न, वस्त्र, निवास आदि का प्रबन्ध किया जाता है। उसी प्रकार आत्मिक समर्थता के लिए उपासना, साधना और आराधना की जीवनचर्या में नित्यकर्म की तरह स्थान देना चाहिए। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार के दोनों प्रयोजन इसी आधार पर बन पड़ते हैं।

शरीर की आवश्यकताएँ पूरी न की जाय तो वह दुर्बल रहेगा और बीमार पड़ेगा। इसी प्रकार आत्मा की उपरोक्त तीनों आवश्यकता पूरी न की जा सके तो फिर मनुष्य आत्मिक दृष्टि से निरन्तर गलता घुलता चला जाता है और अपनी वरिष्ठता खो बैठता है।

उपरोक्त तीन उपचार ही ऐसे हैं जिन्हें समग्र साधना कहा जा सकता है। इनके अन्तराल में समस्त सिद्धियाँ भरी पड़ी हैं। उपासना से दैवी अनुग्रह बरसता है और अदृश्य जगत की अतीन्द्रिय क्षमताओं का लाभ मिलता है।

जीवन साधना से व्यक्तित्व निखरता है। ऐसे व्यक्ति पवित्र, प्रखर और प्रामाणित होते हैं। इस कारण उन्हें सर्वत्र भरपूर सम्मान और सहयोग मिलता है। विभिन्न प्रयोजनों में जो भी ऊँचे उठे और आगे बढ़े हैं उन्हें प्रमुख सहायता जन सम्मान से मिली है। यह मात्र प्रामाणिक व्यक्तियों के लिए ही सुरक्षित है। आतंकवादी अपनी धूर्तता से आरम्भ में जो कमा लेते हैं उससे अनेक गुना घाटा वस्तुस्थिति प्रकट होते ही उठाने लगते हैं।

आराधना तो बीज बोकर सौगुना काटने के समान है। यह समाज भगवान का खेत है इसमें सत्प्रयोजनों के लिए भी अपना समय, श्रम, ज्ञान, वैभव, प्रभाव बोना है वह असंख्य गुना होकर वापस लौटता है। महामानवों के जीवन वृत्तांत इस लक्ष्य की परिपुष्ट में पग-पग पर असंख्यों प्रमाण उपस्थित करते हैं। दूसरों की सहायता कर वे वस्तुतः अपनी ही सहायता करते हैं। बादल बरसते हैं पर खाली नहीं होते। पेड़ फलता है, टूटते हैं, पर हर बार नये सिरे से आते हैं। ऊन कटती है नई उगती है। शरीर के अवयव कमाते पेट को देते और वहाँ से नये रक्त के रूप में नई जीवनी शक्ति प्राप्त करते हैं।

यह बात स्पष्ट समझ ली जानी चाहिए कि भगवान यदि बड़ा है तो भक्त उससे भी बड़ा है। भगवान निरन्तर अन्तरात्मा में बैठकर जीवन अनुदान का चरम अनुदान प्राप्त करने के लिए पुकारता रहता है पर भक्त बहरे कानों से भी नहीं सुनता। दूसरी ओर भगवान है जो सच्चे मन से सच्चे उद्देश्य के लिए पुकारने पर तत्काल दौड़ा आता है। गज-ग्राह, द्रौपदी-दुशासन, प्रहलाद-हिरण्यकश्यपु की कथाएँ जिनने सुनी हैं, उन्हें भक्त वत्सलता पर विश्वास होना चाहिए। सुदामा के पैर धोये और भृगु की उनने लात खाई थी। गोपियों की छाछ और शबरी की झूठन खानें पहुँचे थे। पर भक्त होने, भक्त चाहिए, ठग नहीं। भक्ति की पहचान जीवनचर्या से आदर्शों के समावेश से होती है पूजा-पाठ से नहीं। उपासना, साधना और आराधना की कसौटी पर कस कर यह जाना जा सकता है कि किसकी भक्ति सच्ची है किसकी झूठी?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118