दर्शन मात्र से वरदान मिलने की ललक

August 1984

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किसी के घर में प्रवेश करने के लिए उसका द्वार खोलने और देहरी लाँघने की आवश्यकता पड़ती है। इसके पूर्व अपरिचित होने के कारण खटखटा कर अपना परिचय भी देना पड़ता है। इसी प्रकार किसी नये व्यक्ति से संपर्क साधने का सिलसिला दर्शन से आरम्भ होता है। अभीष्ट उद्देश्य के लिए सत्संग, सान्निध्य, परामर्श, मार्गदर्शन के लिए यह प्रारंभिक सूत्र है। किसी को देखे बिना उससे आदान प्रदान का सिलसिला कैसे चले? बाजार से कुछ खरीदना हो तो सर्व प्रथम उसे भली भाँति देख-परख लिया जाता है। हर प्रकार की नियुक्ति में साक्षात्कार अनिवार्य होता है। लिखित उत्तर भर ही काफी नहीं होता। विवाह संबंध निश्चित करने के लिए सर्व प्रथम वर कन्या एक दूसरे को देखते हैं। छवि देखने भर से किसी का पूर्ण परिचय तो नहीं मिलता तो भी छवि, परिधान, आच्छादन, वातावरण स्वभाव की इतनी जानकारी तो मिल ही जाती है कि अगले कदम उठने-न उठने की आवश्यकता का अनुमान लग सके।

दर्शन इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। पूर्व परिचय या संबंध की धुँधली स्मृति दर्शन मात्र से हरी हो जाती है। जिनके संबंध में सुना भर था उन्हें देख लेने से कल्पना निर्धारण में वास्तविकता का समावेश होता है। ऐसे-ऐसे अनेकों कारण हैं, जिनके आधार पर सन्त सज्जनों के दर्शनों की भी आवश्यकता समझी जाती है। अपनी अभिलाषा पूरी करने लोग दूर-दूर से दौड़ते भी हैं। नेताओं, अभिनेताओं, विशिष्टता सम्पन्न जिन अन्य लोगों के नाम सुने जाते रहे हैं, उन्हें देखने का मन होता है। कौतूहल समाधान हेतु अनेकों जगह जाया जाता है। चेतन ही नहीं, जड़ वस्तुओं में छिपे सौंदर्य को देखने- मन की आस पूरी करने हेतु लोग ताज महल कुतुबमीनार, गुलमर्ग, मसूरी, समुद्र तट की ओर दौड़ पड़ते हैं। हिमालय का प्राकृतिक सौंदर्य मन को ललचाता है भव्य देवालयों, किलों, राज महलों को देखने को इच्छा भी इसी कारण होती है। पौराणिक आख्यानों से जुड़े तीर्थों की यात्रा व पुण्य कमाने की आस भी दर्शन हेतु खींच ले जाती है। पर्यटन उद्योग की पृष्ठभूमि में इस ‘दर्शन’ पक्ष की बड़ी महत्ता है।

इतने पर भी विचारणीय है कि दर्शन से पुण्य या अनुग्रह मिलने की लोक मान्यता में कोई दम है या नहीं? आमतौर से लोग अलौकिक विशेषता, सम्पन्न व्यक्तियों को देखने इस लिए दौड़ पड़ते हैं कि छवि देखने भर से पुण्य मिलेगा पाप कटेगा। भले ही चरण स्पर्श न करना संभव हो सके दूर से देखभर लेने से आँखें तृप्त हो जाएँगी अन्तःकरण कृत-कृत्य हो उठेगा। ऐसे सिद्ध पुरुषों (तथा-कथित” से जुड़े कई स्थान ऐसे भी हैं जिनके दर्शन की मनौती मानी जाती है। इसी प्रकार कई व्यक्ति बाजार के सौदे की तरह सशर्त दर्शन करते हैं। पुत्र उत्पन्न होगा तो नौचंदी देवी का दर्शन करेंगे। मंशा पूरी होगी तो अमुक देवी को प्रसाद चढ़ाएंगे। यदि मुकदमा जीतेंगे तो बालाजी हनुमान पर प्रसाद चढ़ाएँगे। आकस्मिक विपत्ति को टालने के लिए सशरीर दण्डाय मान लेटकर प्रणाम हेतु जाने की सनक भरी मनौती भी मानी जाती है।

ऐसी मनोभूमि वाले व्यक्तियों की वस्तुतः कमी नहीं। वे सन्त-महात्माओं-योगी जनों से यह अपेक्षा रखते हैं कि दर्शन करने वालों को इतने भर से अपना भक्त मानेंगे और अपनी मनोकामना की पूर्ति का आशीर्वाद देंगे। संभवतः दर्शन देने वालों की भीड़ से उन्हें कुछ लाभ होता होगा, अतः इस विडम्बना से जान बूझकर ये मुक्ति पाने का प्रयास नहीं करते एवं अपने चारों ओर जमघट बनाये रख सिद्धि चमत्कार का आश्वासन देते रहते हैं। सट्टे का नंबर बताने और पूछने वाले फकीर-मुरीदों के यहाँ इसी कारण भीड़ जमी देखी जा सकती है जो यह सोचने को विवश कर देती है कि क्या ‘दर्शन’ इतना सस्ता है? और आगे की सोचें तो देवालयों में अमुक पर्व या स्नान आदि जैसे अवसरों पर होने वाली भीड़ में सच्ची भक्ति भावना वाले नहीं के बराबर और वरदान पाने के इच्छुक अधिकाँश होते हैं। वह पौराणिक कथा तो सुविख्यात है जिसमें शंकर-पार्वती धरती वासियों का पर्यवेक्षण करने हेतु मानवी काया धारण कर एक तीर्थ स्थान पर पहुँचते हैं एवं कोढ़ी बने शंकर जी पार्वती जी के उस असमंजस का समाधान करते हैं कि मन्दिरों-भक्ति स्थानों के आसपास लगी भीड़ किस मनःस्थिति में वहाँ आती है? पार्वतीजी के सौंदर्य पर अभिभूत दर्शन हेतु जाते, कटाक्ष करते व्यक्तियों को देखकर उनके मन का भ्रम मिट जाता है कि भक्ति भावना का आंकलन लोगों के दर्शन हेतु जमघट से किया जाना कितना औचित्य पूर्ण है? यहाँ तक कि मन्दिरों में पैसा, प्रसाद चढ़ाने की रिश्वत के पीछे भी काम करा लेने की शर्त जुड़ी रहती है। पूरी न होने पर अमुक मन्दिर या देवता के प्रति अनास्था बढ़ती है किन्तु औरों के पीछे भागने का क्रम नहीं टूटता।

देखना यह चाहिए एवं बुद्धिमत्ता पूर्वक सोचा जाना चाहिए कि इस लोक मान्यता में कुछ दम भी है या ऐसे ही अन्धविश्वास ग्रसित लोग एक का अनुकरण करते हुए, दूसरे भेड़ चाल की तरह नकल करते और भीड़ के पीछे भीड़ के चलने का उदाहरण बनाते हैं। दर्शन पक्ष की वैज्ञानिकता को परखा जाना चाहिए ताकि अन्ध श्रद्धा मिटे, अनास्था दूर हो एवं समय, धन, मनःशक्ति अपव्यय भी न हो।

तर्क, तथ्य और विवेक का प्रतिपादन यह है कि दर्शन से परिचय का उद्देश्य भर पूरा होता है। लाभ मिलना होगा तो इसके उपरान्त हुई घनिष्ठता, उत्कृष्टता के साथ तद्रूपता एवं आदान-प्रदान की क्रिया द्वारा ही सम्भव होगा। व्यक्ति या प्रतिमा की आकृति भर देख लेने पर भी किसी जादू-चमत्कार की आशा नहीं ही की जानी चाहिए, चाहे इसके सम्बन्ध में कितनी ही अटकल बाजियाँ सम्बन्धित व्यक्तियों द्वारा अनुभूति, घटना क्रम के रूप में बखानी जाती रही हों।

जिनके पास कुछ देने योग्य होता है, उनमें विवेक बुद्धि भी होना चाहिए कि पात्र-कुपात्र का विचार करें। आँखें मूँदकर किसी भी दर्शन करने वाले पर वे अर्जित आत्मबल सम्पदा को लुटाते नहीं फिरते। संसार में कोई भी विचारशील ऐसा नहीं है जो हर माँगने वाले को निहाल कर सके। उसकी इच्छा के पीछे औचित्य अनौचित्य की जाँच-पड़ताल न करे। यदि ऐसी अन्धेरगर्दी चली होती तो बैंकों में धन माँगने वालों की भीड़ लग जाती और रिजर्व बैंक का दिवाला निकल गया होता। अफसर का पद पाने के लिए “थ्रू प्रापर चैनेल” जाने के बजाय, लोग नियुक्त कर्त्ताओं की मनुहार करते-फिरते और हल्की-फुल्की भेंट पूजा करके उच्चतम पद पाने का अपना मनोरथ पूरा कर लेते। कोई भी कुपात्र किसी की सुयोग्य कन्या को पत्नी रूप में पाने के लिए जा पहुँचता और दर्शन करते ही निहाल होकर- सब कुछ पाकर लौटता। पर ऐसा कहीं होता नहीं है, हो भी नहीं सकता।

देवताओं या सन्तों की दर्शन-झाँकी करने वालों में से कितने सफल मनोरथ हुए, कितनों की मनोकामना पूरी हुई, इसका लेखा-जोखा यदि लिया जा सके तो उत्तर पूरी तरह निराशाजनक, असमंजस भरा निकलेगा। कारण स्पष्ट है। देवताओं, सन्तों की भी नियन्ता की तरह कुछ विधि-व्यवस्था-मर्यादाएँ होंगी। देने से पूर्व वे भी तो याचक के व्यक्तित्व और उद्देश्य को देखना चाहेंगे। अन्यथा मुफ्तखोर कुछ भी माँगने और बदले में पान लगेंगे तो पात्रता और पुरुषार्थ का कहीं कोई प्रतिबंध ही न रहेगा। लूट खसोट की इस रेलमपेल में अवाँछनीय व्यक्ति सबसे आगे होंगे और अनुचित से अनुचित मनोकामना पूरी करने के उपरान्त ऐसी अंधेरगर्दी खड़ी करेंगे जिसमें भ्रष्टाचार के अतिरिक्त और कुछ शेष ही न रहेगा। सज्जन तो औचित्य की बात सोचकर सन्तोष भी कर सकते हैं, पर ढीठ-मनचलों-बेशर्मों को इसमें लज्जा आने जैसी कोई कठिनाई नहीं पड़नी चाहिए।

यह स्पष्टतः समझ लेना चाहिए कि वरदान देने के साथ सन्तों को अपना अर्जित तप या पुण्य भी देना पड़ता है। इसके बिना मात्र शब्दोच्चारण भर से किसी का कोई भला नहीं हो सकता। तप और पुण्य का उपार्जित धन कमाने से भी अधिक कष्टसाध्य है। इस बहुमूल्य सम्पदा को कोई चापलूसी भरी मनुहार द्वारा या पत्र-पुष्प जैसे रास्ते उपहार लेकर ऐसे ही मुफ्त में लुटा देना और लुटेरों को स्वेच्छाचार बरतने का अवसर देगा यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। मुफ्तखोरी को प्रश्रय देकर- कुपात्रों के हाथ मजबूत करके उन्हें भ्रष्टाचार की छूट देने के लिए किन्हीं सन्त तपस्वी का पुण्य खर्च हो चले तो इसे अध्यात्म जगत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

देवताओं की वरदान परम्परा में पौराणिक आख्यान यही बताते हैं कि उन्हें प्रसन्न करने के लिए तप-तितिक्षा का मार्ग अपनाना पड़ा है। इसके उपरान्त ही उनने पात्रता परखी और आवश्यक सहायता दी है। प्रतिमा दर्शन भर से- सन्तों के चेहरे को चर्म-चक्षुओं से देखने मात्र से वह लम्बी मंजिल ऐसे ही चुटकी बजाते पूरी हो जाया करे तो फिर देवाराधन में से तपस्वी होने- तपश्चर्या करने की शर्त ही समाप्त हो जाएगी। सैलानी लोग राशि के हिसाब से पंक्ति बद्ध हो प्रतिमा को झाँक भर लेने एवं पैसा-अनुदान फेंककर इच्छित मनोरथ प्राप्त कर लिया करें तो समझना चाहिए कि यह लाटरी सट्टे की तरह सस्ते सौदे का नया धन्धा चल पड़ा।

यह चर्चा इस संदर्भ में विशेष ध्यान देने योग्य है, जहाँ श्रद्धालुजन अमुक सन्त- महामानव के अपनी आँखों से दर्शन कर लेने व उससे कृत-कृत्य होने की सोचते हैं। जो विचार वे अपने पीछे छोड़ जाते हैं, जीवन जीने की दिशा साहित्य संजीवनी के रूप में दे जाते हैं उसे इस दर्शन- अभिलाषा के पीछे गौण मानना आज के मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है। दर्शन का अर्थ है- तत्व-ज्ञान। इसका अगला कदम अध्यवसाय भी है। गाँधी का तत्वदर्शन जिनने समझा व अपनाया, वे बिनोवा, राजेन्द्र बाबू, नेहरू, पटेल, राजगोपालचार्य, जयप्रकाश, कालेल कर जैसे हो गए और जिनने रेल से गुजरते या प्रवचन मंच पर बैठे बापू को देखा भर, उनके पल्ले कौतूहल निवारण के अतिरिक्त और कुछ क्या पड़ा होगा?

सन्त देवताओं की छवि देखने में हर्ज नहीं। पर उसका महत्व इतना ही माना जाना चाहिए कि इससे एक महत्वपूर्ण भवन में प्रवेश करने का द्वार खुलेगा। खुलने और प्रवेश पाने के बाद भी कुछ कार्य तो करना ही होगा। वह जाकर ऐसा कुछ किया जाय जिसके बदले में कारगर अनुग्रह या अनुदान उपलब्ध हो सकें। जो दरवाजे की दहलीज पर पैर रखते ही उस भवन में विद्यमान सम्पदा को बटोर लाने का स्वप्न देखते हैं, वे भूल करते हैं। ऐसा बन पड़ना तर्क, विवेक एवं औचित्य की कसौटी पर कहीं भी सही नहीं माना जा सकता।

नियति व्यवस्था ऐसी अन्धेरगर्दी का समर्थन कर नहीं सकती। जिन्हें मुफ्तखोरी ही सब कुछ दीखती है, जिन्हें देवता या सन्त विक्षिप्त स्तर के दीखते हैं, वे ही ऐसी कामनाएँ सँजोते, समय श्रम गँवाने के उपरान्त निराश होते, खीजते, अनास्था व्यक्त करते देखे जाते हैं। अध्यात्म तत्वज्ञान के अनुसार आत्म-परिष्कार एवं लोक-मंगल के लिए की गयी तप साधना ही एकमात्र वह राह है, जिस पर चलते हुए दिव्य अनुदान या विभूतिवान् वरदान किसी को उपलब्ध हो सकें। गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना की स्थिति में उनके दर्शन न हो पाने पर निराश होने वालों को इस तत्वज्ञान को भली भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए।


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