गुरुदेव का परिजनों से सूक्ष्म संपर्क

August 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जब मनुष्य चारों ओर से अपने को असहाय पाता है, उसका स्वयं का पुरुषार्थ साथ नहीं देता तो एक ही अवलम्बन उसे शेष रहता है- परम सत्ता का। देवी अनुदान सुपात्रों को संकटों से बचाते व प्रगति का पथ प्रशस्त करते हैं। मनुष्य का सहज स्वभाव है कि वह प्रतिकूलताओं के बीच अपनी मनःस्थिति को सन्तुलित नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में उसे जिस ढाढ़स- सहारे की आवश्यकता रहती है, उस दायित्व को सत्पुरुष सदा से निभाते आए हैं। सन्त एवं ऋषि परम्परा का यह एक अपरिहार्य अंग है। भगवत् सता के अग्रदूतों ने सदा-सदा से यह दायित्व निभाया है कि जो दुःखी है उसके आँसू पोंछे जायें, हिम्मत दिलायी जाय, जो अभावग्रस्त है उसे पुरुषार्थ हेतु सामर्थ्य प्रदान की जाये।

प्रज्ञा परिवार पूज्य गुरुदेव के बहुमुखी जीवन क्रम की तपश्चर्याजन्य परिणतियों से जो अनुदान पा सकने में समर्थ हुआ है, उनकी चर्चा परस्पर तो चलती रही है, कभी उनका उद्घाटन नहीं किया गया। इसका कारण था- वह अनुबन्ध जो उनके द्वारा लगाया गया था। इस वर्ष अनायास ही एक मोड़ उनकी जीवनचर्या में आया एवं वे सूक्ष्मीकरण साधना में निरत हो गए। बहुसंख्य व्यक्ति तो सूक्ष्मीकरण का शब्दार्थ एवं भावार्थ भी नहीं समझ पाते। उनकी दृष्टि में तो पूज्यवर का प्रत्यक्ष मिलने-जुलने, अनुदान स्नेह-अनुग्रह बरसाने, हर व्यक्ति से घुलकर आत्मसात् हो जाने का क्रम बन्द हो गया। पहले गायत्री जयन्ती, फिर गुरु पूर्णिमा पर उनके प्रत्यक्ष चर्म चक्षुओं से दर्शनों की आशा भी धूमिल हो गयी। औरों को लगा- अब इस अभिनव निर्धारण से पूज्य गुरुदेव की झलक झाँकी वे देख नहीं पायेंगे।

लेकिन क्या ऐसा सचमुच हुआ कि गुरुदेव हम से दूर चले गए। शांति-कुँज की ऊपर की मंजिल पर अपनी कोठरी में एकान्त साधनारत गुरुदेव बसन्त पर दिए गए अपने आश्वासनानुसार वस्तुतः और भी विराट् हो गए एवं अगणित परिजनों को इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति न केवल युग तीर्थ आकर अपितु अपने-अपने स्थानों पर गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाते समय एवं यदा-कदा भी इस तरह होती रही, मानो वे सशरीर सामने खड़े हो- कष्ट कठिनाइयाँ सुन रहे हों, उनसे उबरने का साहस प्रदत्त कर लोक मंगल हेतु जुटने की प्रेरणा दे रहे हों।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ऐसी अनेकों अनुभूतियाँ परिजनों ने प्रत्यक्ष सुनाई अथवा पत्रों द्वारा भेजी जिससे विदित होता है कि सूक्ष्मीकृत जीवन क्रम में प्रचण्ड साधनारत गुरुदेव अपने विराट् रूप में अब विश्वव्यापी हो गए हैं एवं पूर्व की ही तरह परिजनों के उतना ही निकट है जितना कि वे उपासना स्थली पर ध्यान की स्थिति में उन्हें पाते थे। उनका कार्यक्षेत्र अब सारा विश्व है एवं अन्यान्य धर्म सम्प्रदायों के अनुयायियों के लक्ष्य, राष्ट्राध्यक्षों- मनीषियों के मध्य सूक्ष्म रूप में विचरण कर उन्हें सतत् सत्प्रेरणाएँ दे रहे हैं ताकि युग विभीषिकाएँ- देवी विपत्तियाँ टाली जा सकें एवं प्रज्ञायुग का स्वप्न साकार हो सके।

जून एवं जुलाई के अखण्ड-ज्योति अंकों ने चर्म चक्षुओं से दर्शनों के आग्रह पर अड़े परिजनों के ज्ञान चक्षु खोले। कभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था- “दिव्यं ददामिते चक्षु” और अपना विराट् रूप दिखाया था। वे ही दिव्य चक्षु इन अंकों में वर्णित सारगर्भित गुरु वाणी सुनकर खुले और अनेकों को उस विराट् रूप के दर्शन हुए। प्रेरणा मिली, दिशा दिखाई दी एवं कदम उठते चले गए।

भुवाली (नैनीताल) के एग्रो साइन्टिस्ट डा. पी. सी. जोशी ने अपनी नियमित साधना क्रम में पूज्य गुरुदेव स्वयं साकार रूप में सामने खड़े हो उन्हें दिशा दे रहे हैं। उनकी पंचकोशी साधना में प्रगति की सूक्ष्म अनुभूति उन्हें होने लगी। प्रेरणा मिली कि अब शेष जीवन लोक-मंगल हेतु ही नियोजित करना है। उपासना, साधना के चरण पूरे हुए, अब आराधना का- समाज सेवा का समय आ गया। उन्होंने जल्दी ही अनिवार्य सेवा निवृत्ति ले युग देवता के चरणों में अपनी श्रद्धाँजलि चढ़ाने का संकल्प लिया है।

चिकित्सा व्यवसाय में पीड़ितों की, दुखियों की प्रत्यक्ष सेवा की जाती है। लेकिन हटा (दमोह) के डा. छुट्टनलाल नेमा मात्र चिकित्सा ही नहीं करते, अपने चारों ओर के क्षेत्र में प्रज्ञा आलोक का विस्तार भी करते हैं। पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्मीकरण उपक्रम के साथ उन्हें प्रेरणा मिली कि अब कार्यक्षेत्र बड़ा है अतः युग तीर्थ चलकर अपने समय सुमन अर्पित करना चाहिए। मात्र तीस वर्ष की उम्र में स्थायी रूप से समाज सेवा हेतु समर्पित होने के इस संकल्प का मूल वे उस प्रेरणा को मानते हैं जो उन्हें परोक्ष रूप में सतत् आन्दोलित करती रही।

इब्राहिमपुर (म.प्र.) के श्री नारायण त्रिवेदी इसी अभिलाषा को लेकर गुरु पूर्णिमा पर आए थे कि सम्भवतः पूज्यश्री के दर्शन होंगे एवं वे अपनी उस असाध्य व्याधि से मुक्ति पा जाएँगे जो उन्हें गत एक वर्ष से ग्रास में लिए थी। शांति-कुज जाने का निर्णय लेते, उसके पूर्व ही अखण्ड-ज्योति से ज्ञात हुआ- अब उनके दर्शन नहीं हो पाएंगे। सुनी बातों के आधार पर बड़ी आशा लेकर गुरुपूर्णिमा पर आए तो प्रणाम के समय पाया “मानो वेद माताजी के पास छाया रूप में पूज्य गुरुदेव बैठे आशीष दे रहे, मुस्करा रहे हैं। प्रणाम के लिए झुकते ही लगा जैसे किसी ने पीठ को स्पर्श किया हो। व्याधि का सारा कष्ट उस दिन से चला गया।” प्रसन्न मन अपनी अनुभूति प्रकट करते वे चले गए।

औरंगाबाद के श्री दामोजी ने पहले कोई बार प्रवचनों में सुना था “शांति-कुँज से कोई खाली हाथ नहीं गया। जो भी अपनी कुछ आस लेकर आता है, यदि वह अवाँछनीय नहीं है तो पूरी अवश्य होती है।” श्री दामोजी अपने पुत्र का तो मिशन के आदर्शों के अनुरूप सादगी पूर्ण विवाह कर चुके थे। पुत्र एवं पुत्र वधू दोनों ही उन्हें आदर्श सहयोगी के रूप में मिले थे। किन्तु अपनी युवा पुत्री के विवाह की चिन्ता उन्हें गत एक वर्ष से मानसिक दृष्टि से व्यथित कर रही थी। लगता था, इसके लिए पूज्य श्री से कहना क्या उचित रहेगा? वे बसन्त के बाद अप्रैल मध्य में जब शांति-कुंज आए तो उन्हें लगा उनकी आशाओं पर एक तुषारापात और हो गया। पहले ही सीमित दर्शन देने का क्रम था, अब तो दर्शन देना भी बन्द कर दिया। वन्दनीय माताजी के समक्ष जब समूह में बैठे तो उनका बोलना आरम्भ होते ही, लगा- वे मुझे लक्ष्य कर रही हों- सब कुछ ठीक होगा। पीछे लगे चित्र में गुरुदेव मुस्कुराते दीखे और मन का असमंजस दूर हो गया। शांति-कुँज में ही परिजनों से चर्चा करते हुए उन्हें अपनी समस्या का हल मिल गया। उन्हें मध्यम वर्ग के एक उचित वर के विषय में बताया गया, सब कुछ दो माह में ही ठीक हो गया एवं गुरु पूर्णिमा पर वे पुत्री का विवाह कर निवृत्त हो गए।

प्रज्ञा परिजनों की अनुभूतियों का यह क्रम इतना असीम है कि इसे लिपिबद्ध करना सम्भव नहीं। सूक्ष्मीकरण की प्रतिक्रिया से जन-मन को अवगत कराने हेतु यह उचित समझा गया कि एक झलक मात्र ही दे दी जाय, यद्यपि उस पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। यदि इतने से अन्यों को प्रेरणा मिले तो प्रतिबन्ध के बावजूद उलाहना भरी डाँट भली।

जितने परिजन गुरु पर्व व उससे पूर्व बसन्त के चार-चार दिवसीय सत्रों पर शांति-कुज आए, यही अनुभूति लेकर गए कि उन्हें माताजी के रूप में गुरुदेव के दर्शन हुए हैं। किसी को स्वप्न में गुरुदेव दिखाई दिए व सन्देश दे गए कि आगामी दो-तीन वर्षों में उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में क्या भूमिका निभानी है। जो-जो व्यक्ति जिस समस्या को मन में छुपाए गया था, आया तो स्वयं को उससे मुक्त पाया। श्री रामनिवास पाण्डे (विजय नगर म. प्र.) अपने प्रज्ञा परिवार के अन्तर्विग्रह से बड़े व्यथित थे। शांति-कुज गए तो माताजी के समक्ष मुख से कह तो नहीं सके लेकिन यह आश्वासन सूक्ष्म रूप में मूक स्वर में उन्हें मिल गया कि विग्रह मिटेगा, सहयोग बढ़ेगा। आए तो उन्होंने स्वयं में भी बदलाव पाया व परिजनों में भी। अपने प्रज्ञा परिवार के इस कायाकल्प को वे चमत्कार मानते हैं।

अन्दर पारिवारिक कलह एवं बाहर शत्रुओं से मुकदमें बाजी श्री बृजनारायण श्रीवास्तव (मधुपरुर) के मिशन के कार्य में सतत् बाधा डालती था। ज्ञानरथ था, पर चलाने की उमंग मन में नहीं उठती थी। जून अंक पढ़ते ही शान्ति कुँज आ पहुँचे। रात्रि को स्वप्न देखा। शान्ति-कुँज के जिस भवन में पूज्य श्री रहते हैं, उधर से एक प्रकाश का गोला आकर सामने आता दिखाई पड़ा। लगा- उस प्रकाश पुँज से निकलकर गुरुदेव कह रहे हैं अब तुम्हारी सब मुसीबतें दूर हुईं, निश्चित होकर अपना काम करो। आँखें मलते हुए उठे। देखा सब कुछ गायब हो गया था। घर पहुंचने पर पाया कि उनके शत्रुओं ने कर्ज मुक्ति हेतु समझौते के लिए प्रार्थना दाखिल कर दी थी। घर में भी उन्होंने चमत्कारी परिवर्तन पाया। व अब भी उस स्वप्न को याद कर अपना शाम का ज्ञानरथ चलाने का संकल्प नित्य पूरा करते हैं। वह उस सूक्ष्म सत्ता का कोटि-कोटि धन्यवाद देते हैं, जिसके कारण वे वर्तमान स्थिति को प्राप्त हो सके।

इन दिनों शान्ति कुँज में स्थायी रूप से आ बसने वालों की होड़ मची है। जबलपुर के सिविल सर्जन डा. अमलकुमार दत्ता, झांसी के श्री बालकृष्ण अग्रवाल, अमृतसर से श्री सन्तप्रसाद त्रिपाठी, प्रेमनारायण गुप्ता, मुन्नालाल, कटारे, रामाधार शर्मा, हेतराम पटेल एवं नरेंद्र देव जैसे अनेकों पूर्ण समय के लिए आने वाले जानते व अन्यों को जताते हैं। कि कैसे उनकी अंतःप्रेरणा ने, गुरुदेव की सतत् सूक्ष्म उपस्थिति ने उन्हें चैन से नहीं बैठने दिया एवं शान्ति कुँज आकर लोकमंगल हेतु समर्पित करने को बाध्य कर दिया। ऐसे अनेकों पत्र नित्य आ रहे हैं। सामान्य से लेकर सुशिक्षित उच्च पदस्थ व्यक्ति लिखते हैं कि गुरुदेव उन्हें सूक्ष्म रूप में सतत् अपने समक्ष दिखाई देते व निर्देश देते हैं। कि “झंझटों से लोक जंजाल से मुक्ति पाकर समाज सेवा में- युग धर्म में जुट जाओ। तुम ऋषि आत्मा हो इसीलिए तुम्हें बुलाने मैं स्वयं आया हूँ।”

दूर रहने वालों- देशवासियों व प्रवासी भारतीयों को तो ये अनुभूतियाँ हो ही रही हैं, जो गुरु-पूर्णिमा पर आए, वे अनेकों से कहते सुने गए कि गुरुपूजन के समय, प्रसाद पाते समय उन्हें सतत् यही लगता रहा कि प्रत्यक्ष गुरुदेव उनके साथ हैं। उनके कक्ष की ओर टकटकी लगा कर खड़े अनेकों श्रद्धालुओं ने स्थूल रूप में तो नहीं, अपने सूक्ष्म रूप में अंतश्चक्षुओं से गुरुदेव को देखा और प्रेरणा से अभिपूरित करते पाया। जो भी यहाँ से गया, वह इसी सन्तोष के साथ गया कि सूक्ष्म रूप में तपश्चर्या रत गुरुदेव अब उसके और भी समीप हैं- उसके लिए प्रेरणा स्रोत बनकर अन्दर विराजमान है। अब उसे किसी कमी का कभी आभास न होगा।

छाया पुरुष सिद्धि का लोगों ने नाम सूना था जिनमें आत्म सत्ता कई गुना हो जाती है पर इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति सारे प्रज्ञा परिवार को सतत् उनकी अपने समक्ष उपस्थिति के रूप में, समस्या निवारण से लेकर दिशा निर्धारण तक में हो रही है। ऐसी ही अनुभूतियां यह आश्वासन प्रबल बना देती हैं कि गुरुदेव का अभिनव निर्धारण कितना महत्वपूर्ण सामर्थ्यों से भरा-पूरा है। युग सन्धि की इस विषम बेला में उनकी प्रचण्ड तप साधना के इस पुरुषार्थ की हर परिजन ने अपने ही अन्तः में अनुभूति की है। उन्हें लग रहा है कि वे भी सूक्ष्मीकरण साधना के सहयोगी बन गये हैं ताकि वे अपने लिए निर्धारित भूमिका भली-भांति निभा सकें।

-ब्रह्मवर्चस्


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118