आहार निर्धारण में यह कैसी नासमझी?

August 1984

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नमक अकेला नहीं खाया जा सकता। चीनी और चिकनाई के सम्बन्ध में भी यही बात है उनके सहारे पेट नहीं भरा जा सकता और न उन्हें उस रूप में पचाया ही जा सकता है। इससे प्रकट है कि वे अपने आहार में स्वाभाविक स्थान नहीं पा सकते। स्वाभाविक न सही और पोषक आहार की पहचान एक ही है कि वह जिस प्राकृतिक रूप में उत्पन्न होता है उसे उसी रूप में खाया पचाया जा सके। इस दृष्टि से हरे शाक और पके फल ही मनुष्य का वास्तविक आहार हैं। उनका उत्पादन कम और जनसंख्या के विस्तार को देखते हुए अन्न पर आश्रित रहने की बात भी परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने वाली एवं युक्ति संगत समझी जा सकती है।

अन्न को धक-पकी स्थिति में फल शाक की तरह ही खाया पचाया जा सकता है। गेहूँ, जो, बाजरा, मक्का, ज्वार, मटर, चना आदि को पूरी तरह पकने से पूर्व खाया जाय तो वह उससे भी उपयुक्त पोषण मिलेगा। संग्रह करने की बात सामने आने पर सूखे अन्न यदि लेने पड़ते हैं तो उन्हें अंकुरित किया जा सकता है। उबाल कर नरम या सुपाच्य भी बनाया जा सकता पर उसमें बाहरी मिश्रणों की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। हर वस्तु को उसके स्वाभाविक स्वरूप में ही ग्रहण किया जाय।सृष्टि के सभी प्राणी यही करते और निरोग रहते हैं। मनुष्य के लिए भी यही उपयुक्त है।

अखाद्यों में सर्वाधिक प्रचलन नमक का है। उसके बिना किसी का काम ही नहीं चलता। यह बुरी आदत है। यह एक हलका विष है जो शरीर की किसी भी आवश्यकता को पूर्ण नहीं करता। वरन् उलटी अनेकानेक हानियाँ पहुंचाता है। आश्चर्य है कि उसका प्रचलन कैसे बढ़ा और कैसे आज जैसी स्थिति तक आ पहुँचा।

छटी शताब्दी तक नमक का प्रचलन नहीं के बराबर था। वह दूर से ढोकर लाया जाता था फलतः बहुत महंगा भी पड़ता था। अमीरों के लिए ही वह सुलभ था। गरीब तो उसे कभी-कभी थोड़ी मात्रा में ही प्रयोग कर पाते थे। बाद में व्यवसाय के लिए संग्रह किये जाने वाले मूल्यवान पदार्थों में एक गणना नमक की भी होने लगी। रोम में उसे फौजियों के वेतन के साथ-साथ एक सीमित मात्रा में उपहार की तरह भी दिया जाने लगा था। आरम्भ से ही आदत न होने से उसकी तब बहुत आवश्यकता भी नहीं समझी जाती थी। इत्र-फुलेल की तरह ही उसे जब तब स्वागत सत्कार या हर्षोत्सवों में इस्तेमाल किया जाता था।

नमक कई बार इतिहास प्रसिद्ध घटनाओं का सूत्रधार बना है। फ्राँस में बहुत समय तक वह सरकार की सिफारिश या परमिट के आधार पर ही विरलों को उपलब्ध होता था। परन्तु माँग उसकी और भी बढ़ती जा रही थी पर शासन उस पर भी प्रतिबन्ध ढीले करने और उत्पादन बढ़ाने की दृष्टि से कुछ कर नहीं रहा था। इस पर प्रजा का असन्तोष भड़का और कुछ समय तक चिनगारी सुलगने की तरह बाद में फ्रांसीसी क्रान्ति बनकर भड़का।

गान्धी जी ने सन् 1930 में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध मोर्चे बन्दी नमक सत्याग्रह के रूप में आरम्भ की थी। जो बढ़ते-बढ़ते ‘करो या मरो’ के रूप में विकसित हुई। देश की स्वतन्त्रता दिलाने का आधारभूत कारण बनी।

आक्सफोर्ड डिक्शनरी में बड़े साइज के 4 पन्ने, नमक के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं के सम्बन्ध में छपे हैं। इससे विदित है कभी वह कितना अधिक लोक चर्चा का विषय बनकर रहा होगा।

शरीर को जिन क्षारों की प्राकृतिक आवश्यकता है, वे सभी प्रचलित खाद्य पदार्थों में विद्यमान हैं। अनुपात भी सन्तुलित है। इसके बाद ऐसी कोई आवश्यकता शेष नहीं रह जाती कि ऊपर से नमक और मिलाया जाय। यही बात चीनी के सम्बन्ध में भी है। वह सामान्य खाद्यपदार्थों में इतनी घुली रहती है कि शरीर की आवश्यकता भली प्रकार पूरी होती रहे। न अलग से नमक आवश्यक है और न स्वास्थ्य सन्तुलन की दृष्टि से अतिरिक्त चीनी की ही आवश्यकता है।

रासायनिक विश्लेषण के अनुसार नमक सोडियम क्लोराइड का सम्मिश्रण है। यह एक प्रकार का हलका विष है। धीमे विष तत्काल तो किसी को नहीं मार डालते पर ऐसा प्रभाव उत्पन्न अवश्य करते हैं जिससे स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता चले और मनुष्य रोगग्रस्त होकर अकाल मृत्यु के मुँह में जा घुसे। पर्यवेक्षकों के अनुसार इन दिनों बढ़ते हुए रक्त चाप और मानसिक तनाव में नमक की मात्रा अधिक लिया जाना एक बड़ा कारण है। ऐसे रोगियों तथा हृदय रोगों से पीड़ितों को विशेष रूप से परामर्श दिया जाता है कि वे नमक या तो बिलकुल छोड़ दें या उसकी मात्रा घटा दें। जिनने यह परामर्श माना उनमें से आधे लोग बिना इलाज के रोगों छुटकारा पा गये।

चटोरापन बढ़ने के साथ-साथ नमक का प्रयोग इतनी मात्रा में होने लगा है, जिसे स्वास्थ्य संकट की पूर्ण भूमिका कहा जा सके। अब औसत दो ढाई चम्मच रोज तक का जा पहुँचा है। मनुष्य का पाचन तन्त्र जितनी मात्रा किसी प्रकार इस आफत को सहन कर सकता है उसकी तुलना में वर्तमान प्रचलन बीस गुना अधिक है।

चीन और जापान में अन्यत्र की तुलना में नमक का उपयोग अधिक होता है फलतः उन देशों में रक्तचाप की शिकायत दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है। इसके विपरीत न्यूगिनी, आमेजन मलेशिया, युगाण्डा जैसे देशों में जहां नमक की मात्रा बहुत थोड़ी ली जाती है यह संकट अपेक्षाकृत कहीं कम है।

तमाखू के विरुद्ध पिछले दिनों विचारशीलों ने आन्दोलन किया और उसे जन स्वास्थ्य के लिए निश्चित रूप से हानिकारक बताया है। तदनुसार कितने ही देशों में हर सिगरेट पर यह छापने का कानून बनाया है कि ‘सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’। अगले दिनों जब तथ्यों की ओर ध्यान दिया जायगा और प्रचलनों में उचित अनुचित की विवेचना करने का अवसर मिलेगा तो नमक विक्रेताओं की दुकानों पर तथा पैकिंग की थैलियों पर यह उल्लेख करना पड़ सकता है कि “नमक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।” आवश्यकता इस बात की है कि इस हानि से जन-जन को अवगत कराया जाय और प्रतिबन्ध लगाने के लिए आवश्यक वातावरण बनाया जाय।

बाव कमिग्स अपने रोगियों को ही नहीं मित्रों को भी एक परामर्श दिया करते थे। “खाने में जल्दी मत करो। उसमें समय लगाओ, मजा लूटो। भोजन का महत्व समझो, उसकी आवश्यकता और क्षमता पर ध्यान दो। खाते समय इस तथ्य को विस्मृत न होने दो कि अवयवों में जीवनी शक्ति भर पाना इसी वरदान से सम्भव है जो मुंह के द्वार पेट तक पहुँचाया जाता है।”

अखाद्यों से जितना बचा जा सके उतना ही उत्तम है। स्वाभाविक भोजन अपनाने की आदत बदल कर ही हम खोये स्वास्थ्य का वापस लौटा सकने में समर्थ हो सकते हैं। दैनन्दिन जीवन में ही नहीं, साधना के क्षेत्र में आत्मिक प्रगति का जब भी प्रसंग चलता है खाद्य-अखाद्य का प्रश्न पहले आता है। इसका निर्धारण जहाँ तक सम्भव हो, रुचि के आधार पर नहीं, खाद्य की सौम्य प्रकृति के अनुरूप ही किया जाना चाहिए।


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