आनन्द की प्राप्ति आदिकाल से मानव का लक्ष्य रहा है। परमेश्वर की अन्तःकरण में अनुभूति जिन अनेकानेक रूपों में हो सकती है आनन्द उनमें सर्वोपरि है। सुख भौतिक है तो आनन्द आध्यात्मिक। भौतिक उपादानों का ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुभव प्रायः सभी को एक-सा ही होता है। फूल की गन्ध, वस्तुओं का सौंदर्य, फलों के स्वाद से जो अनुभूति हमें होती है, लगभग स्वस्थ इन्द्रियों वाले सभी व्यक्तियों को एक समान ही होती है। लेकिन आनन्द इससे नितान्त भिन्न है। इसका रसास्वादन हर व्यक्ति को अलग-अलग रूपों में होता है। मीरा ने जिस आनन्द रस का पान किया, जिसके लिए सामाजिक मर्यादाएं तोड़ी एवं विष का प्याला पिया उसे कौन अपने अन्तः में उसी प्रकार अनुभव कर सकता है। मीरा की तरह प्रेम बेलि बोना और आनन्द फल पाना सबके लिए सहज नहीं। किसी के लिए मिलन में आनन्द है तो किसी के लिए विरह में। कबीर इसी विरह सुख की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं।
“विरह कमण्डल कर लिए बैरागी दो नैन। माँगे दरस मधूकरी छके रहें दिन रैन॥”
वस्तुतः यह आनन्द अध्यात्म वेत्ताओं की दृष्टि में उस पूर्णता का पर्याय है। जिसकी प्राप्ति की पुरुषार्थ साधना हेतु ऋषि मनीषियों ने गहन मन्थन किया है एवं उसे योग की चरम उपलब्धि घोषित किया है। उपनिषद्कारों के अनुसार ज्ञान, भक्ति एवं कर्मयोग की सभी धाराएँ अन्ततः इसी आनन्द रूपी अमृत समुद्र में समा जाता है। हमारे अध्यात्म दर्शन की सभी धाराएं चाहे वे किसी वाद का समर्थन करती हों, हैं अन्ततः आनन्दवाद ही। इसी कारण मुण्डकोपनिषद् में विद्वान ऋषि कहते हैं- तद्विज्ञाने न परिपश्यन्ति धीरा आनन्द रूपमर्भृतम् यद्विभाति।” अर्थात् ज्ञानी लोग विज्ञान से अपने अन्तर में स्थित उस आनन्द रूपी ब्रह्म का दर्शन कर लेते हैं एवं ज्ञानियों में भी परम ज्ञानी हो जाते हैं।” आनन्द हर साधक की साधना की चरम उपलब्धि है, चाहे उसकी अनुभूति के रूप भिन्न-भिन्न हों।