जीवन रूपी चलती तस्वीर की चौखट का नाम मृत्यु

August 1984

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एक सुन्दर युवती पड़ोसी युवक के प्रेम पाश में बंध गई। दोनों ने लोक भय से कहीं अन्यत्र जा बसने का निश्चय किया और रात्रि में घर छोड़ दिया। युवक अपरिचित जगह में निर्वाह साधन कठिनाई से ही जुटा पाता, फिर भी दांपत्य जीवन चला और तीन वर्ष में ही दो बच्चों का बाप बन गया।

दोनों ने सोचा घर वापस लोट चलें। परिवार का क्रोध शान्ति हो गया होगा। वहीं गुजारा करेंगे। लम्बा रास्ता पार करना था। दो बच्चों को गोद में लेकर दोनों बीहड़ के रास्ते घर लौट रहे थे। रास्ते में एक विषधर ने युवक को काट लिया और वह वहीं ढेर हो गया।

युवती पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। पर करती क्या? उसने लाश को नदी में बहाया और किनारे पर पड़े लट्ठे के सहारे पार उतरने का प्रयास करने लगी। एक हाथ में लट्ठा रहने के कारण एक ही बच्चे को साथ ले जा सकती थी। सो उसने छोटे को पत्तों के ढेर में छिपा दिया ओर बड़े को कंधे पर बिठाकर लट्ठे के सहारे पार उतरी। दूसरे फेर में दूसरे को ले जाने की उसकी योजना थी।

पर होने पर बड़े बच्चे को खेलने के लिए बिठाया और वापस लौटकर छोटे को लेने चली। पर दुर्भाग्य का क्या कहना। देखा तो छोटे को शृंगाल खा चुका था। शिर धुनती लौटी तो देखा कि माँ से मिलने की आतुरता में बड़ा नदी तट पर पहुँचा ओर प्रवाह में बह गया। अब उसका पूरा परिवार पूरा संसार लुट चुका था। रोती कलपती एकाकी पितृ गृह की ओर चलती रही।

घर पहुँचने पर नजारे दूसरे ही दीखे। माता पिता मर चुके थे। सास श्वसुर बीमार पड़े थे। एक भाई था सो भी ठीक उसी दिन मरा जिस दिन घर पहुँच गया।

इतनी विपत्तियाँ इतनी जल्दी एक साथ उस अल्हड़ लड़की पर टूटीं तो वह सन्तुलन गँवा बैठी और पागल हो गई।

उस पगली की उदात्त गतिविधियों से क्रुद्ध होकर पड़ोसियों ने उसे भगवान बुद्ध के आश्रम में पहुँचा दिया। उस वातावरण में देर तक रहने के बाद शोक घटा और उसकी समझ फिर से लौटने लगी।

अवसर देखकर भगवान ने उसे बुलाया, पास बिठाया और स्नेह पूर्वक उसे नया नाम दिया-पट्टाचारा। गंभीर मुद्रा में बोले भद्रे! यह संसार जलती आग की तरह है। हम सब इसमें ईंधन की तरह जलते रहते हैं। जन्मने वाले के लिए मरण एक ध्रुव सत्य है। रोने से भी वह नहीं रुकता है। कर्म चक्र में बंधे हम सभी मर्माहत की तरह रह रहे हैं।

तथागत के अमृत वचन पट्टाचारा के अन्तराल को छू गये। उसने शोक के परिधान उतार फेंके और महासत्य के शरण में जाने वाली चीवरधारी तपस्विनियों की पंक्ति में जा बैठी।

** ** **

रास्ते में ईसा के शिष्य मैथ्यू का गाँव था। तलाश किया तो पता चला, उसके पिता मर गये हैं और लाश को ठिकाने लगाने में वह जुटा है।

महा प्रभु को आया देखकर मैथ्यू विलाप करने लगा और बोला- अब मैं क्या करूं?

ईसा ने कहा- जो मर गया वह भूत का साथी हुआ। तू वर्तमान को समझ और भविष्य का ध्यान दे। मेरे साथ चल। समय ने असंख्यों का ठिकाने लगाया है। इस लाश को भी लगा देगा।

मैथ्यू चल पड़ा। अगले पड़ाव पर ईसा ने मैथ्यू को वापस लौटा दिया और क्रिया कर्म करने के बाद आने को कहा। शिष्यों के असमंजस पर ईसा ने समझाया उस दिन उसे मोह छोड़ने के लिए कहा गया था। आज कर्त्तव्य पालने के लिए। क्रिया दो थीं पर परिस्थिति के अनुसार लक्ष्य एक होते हुए भी उन्हें अलग-अलग समय में सम्पन्न करना पड़ा। यही जीवन-योग है।


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