सेठ के पड़ोस में एक मजदूर रहता था। जो कमाता उसे सन्तोषपूर्वक खाकर चैन की जिन्दगी बिताता। सेठानी महल पर से झाँककर मजदूर परिवार की मस्ती देखती रहती और पति को उलाहना देती, तुम कोल्हू के बैल की तरह पिलते रहते हो। कभी न चैन, न फुरसत, न खुशी न मस्ती।
सेठ ने कहा- इस मजदूर को निन्यानवे के फेर में नहीं फँसना पड़ा है। अन्यथा सारी हँसी-खुशी चली जाती। सेठानी ने पूछा- ‘निन्यानवे का फेर क्या होता है?’ सेठ ने उसे दिखा देने का वायदा किया।
रात्रि को सेठ ने एक पोटली रुपयों की बाँधकर चुपके से मजूर के आंगन में फेंक दी। उठकर सवेरे पोटली खोली तो परिवार बहुत प्रसन्न हुआ? विचार होने लगा कि जो एक कम है उसे भी मिलाकर पूरा सौ कर लिए जायं। इसके लिए एक ही उपाय था अधिक श्रम करना और खाने में से बचाना। सो ही किया गया। सौ पूरे हो गये तो इच्छा और भड़की। अनेकों योजनाएँ बनीं और पूँजी बढ़ाने का निश्चय हुआ। फलतः अकेला मजदूर ही नहीं उसकी स्त्री बच्चे तक कमाने बचाने के फेर में व्यस्त रहने लगे। रात्रि को देर में आते और थके-माँदे सो जाते। सवेरा होते-होते उन्हें फिर कमाने के लिए दौड़ना पड़ता।
सेठ जी सेठानी को ऊपर से सारे परिवर्तन दिखाते रहते और कहते देखा निन्यानवे का फेर। अब इन लोगों का घर सुनसान पड़ा रहता है न? कहीं मस्ती दीखती है क्या? सेठानी समझ गई कि पैसा पाकर आदमी और अधिक लालची हो जाता है।