शरीर, इन्द्रियाँ एवं मस्तिष्क के रूप में मनुष्य को परमात्मा से जो अनुदान मिले हैं, वे अद्भुत हैं। उनके सदुपयोग तथा सुनियोजन की फलश्रुतियाँ भी उतनी ही विलक्षण हो सकती हैं। पर उतना ही सच यह भी है कि इंद्रियां एवं ज्ञानेन्द्रियाँ उच्छृँखल हो जायें- मनमाना बरतने लगें तो पतन-पराभव का मार्ग प्रशस्त होने लगता है। वे वरदान या अभिशाप दोनों ही सिद्ध हो सकती हैं। चयन की स्वतन्त्रता मनुष्य को पूरी तरह मिली हुई है कि वह इन्हें किस दिशा में नियोजित करे। विषयों की आसक्ति से विरत रहकर उनका स्वाभाविक उपयोग मनुष्य के विकास में सहायक हो सकता है। आत्मिक विकास में भी शरीर एवं इन्द्रियों का उपयोग है। साधना के उपादान शरीर की इन्द्रियाँ तथा मन ही है। वे सहचर बन जायें तो कठिन से भी कठिन मंजिल पर पहुँचना सुगम हो सकता है।
मन के नियम अद्भुत हैं। जिससे मनुष्य भयभीत होता है, उससे गहरे में प्रभावित भी होता है। सौंदर्य को देखकर आंखें बंद कर लेने वाला उससे अधिक प्रभावित होता है जो नेत्रों को खोले हुए है वस्तुतः आँखें बंद करने वाला सौंदर्य की वासना से इतना भयभीत है कि कहीं वह आकर्षण उसे जकड़ न ले। पर आँखें बंद कर लेने से विचारों पर लगाम तो लगती नहीं। मन के भीतर और भी तीव्र वेग से सौंदर्य का चिन्तन शुरू हो जाता है।
बहुत से लोग संसार से भयभीत होकर स्वप्न के संसार में प्रविष्ट हो जाते हैं। जिस बाह्य रस से मुख मोड़ा था, वह मन के भीतर ही भीतर और भी प्रगाढ़ होने लगता है। स्वप्न में तो मन और भी उन्मुक्त होकर अपना संसार स्वयं निर्मित कर लेता है। मन की अतृप्त वासनायें और भी प्रबल रूप में सामने आती हैं। बहिरंग जगत जो संकोचवश अवरोधक बना हुआ था, वह भी दूर हो जाता है।
रस परित्याग का अर्थ- इन्द्रियों को नष्ट कर देना नहीं- उनके प्रति मन की आसक्ति का परित्याग है। इन्द्रियाँ अत्यंत उपयोगी हैं। उनसे प्राप्य जानकारियाँ अद्भुत हैं। सूचनायें सम्वेदनाएँ बाह्य जगत से लेकर वे ही आती तथा अनुभूति का माध्यम बनती हैं पर यदि मन उन अनुभूतियों में लीन नहीं होता, सजग बना रहता है तो किसी प्रकार का खतरा नहीं है। मन जब रसों में डूबा रहता है, तो इन्द्रियाँ चेतना की मालिक हो जाती हैं। यहीं इन्द्रियाँ जब चेतनसत्ता के मार्गदर्शन पर चलती हैं तो त्याग की प्रवृत्ति चल पड़ती है। इंद्रियाँ जब चेतना की सहयोगी बन जाती हैं तो आसक्ति का डर नहीं रहता।
हमारी इन्द्रियों से हमारा जो संबंध हैं, वह मालिक का है या गुलाम का, इस तथ्य पर ही चेतना का विकास या पतन निर्भर करता है। इन्द्रियों के संकेत पर चेतना यदि गतिशील है, तो इसका अर्थ, वासना से हम जकड़े हुए हैं। यदि चेतना उनकी मालिक है तो रसों का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता। इन्द्रियाँ ऐसी स्थिति में शुद्ध हालत में रहती हैं।
जिस योगी की इन्द्रियाँ परिशुद्ध हैं, उसके देखने, सुनने, स्पर्श करने आदि का ढंग अन्य व्यक्तियों से भिन्न स्तर का होगा। वासना से रहित महावीर, बुद्ध, कृष्ण, ईसा की आँखों में जो तेज था वह अन्यों में नहीं होता। ऐसे व्यक्तियों के स्पर्श में भी दिव्यता का समावेश रहता है, जिसका लाभ समय-समय पर उपयुक्त पात्रों को भी मिलता रहता है।
अधिकाँश व्यक्तियों की इन्द्रियाँ अपना मार्ग भूल जाती हैं। मूर्च्छित मालिक के नौकर सम्यक् नहीं रहते। उसकी इन्द्रियों के बीच कोई तालमेल नहीं रहता। भोगी की सभी इन्द्रियाँ उसे विपरीत दिशाओं में खींचती हैं। आँखें कुछ देखना चाहती हैं, कान कुछ सुनना चाहते हैं, हाथ कुछ स्पर्श करना चाहते हैं। इन सबके बीच परस्पर विरोध है। यह विक्षिप्त चेतना के- खण्डित व्यक्तित्व के लक्षण हैं। इससे जीवन में अगणित विसंगतियाँ पैदा होती हैं।
अधिकाँश व्यक्ति आँख की बात मानकर चलते हैं। जीवन व्यापार में वह बड़ी प्रभावशाली है भी। चुनावों में प्रायः नब्बे प्रतिशत काम आँख करती हैं। दूसरी इन्द्रियों की बिना परवाह किये लोग आँख की बात मान भी लेते हैं। फलतः दूसरे ही दिन से कठिनाई शुरू हो जाती है। आँख कहती हैं, चेहरा सुन्दर है पर उसकी अभिव्यक्ति को नाक और कान भी स्वीकार कर लें, आवश्यक नहीं। आँख का आधिपत्य मानने को वे तैयार नहीं होते।
पाँच इंद्रियों को जोड़ने वाला केन्द्र मन स्वयं मूर्च्छित हालत में पड़ा रहता है। रसों के भोग में सदैव शराबी की तरह डूबा रहता है। चेतना प्रसुप्त पड़ी रहती है, कोई निर्णय नहीं ले पाती है। पाँचों इन्द्रियों के अलग-अलग वक्तव्य इतनी जटिलता पैदा कर देते हैं कि मन द्वंद्वों से भर जाता है। भीतर की चेतना जगी रहने पर वह असंगति नहीं पैदा होने पाती। इन्द्रियों की ढपली अलग-अलग नहीं बजती। इन्द्रियों की गति में एक दिशा एक लय आ जाती है जबकि मूर्च्छित मनुष्य इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न रास्तों पर खींचा जाता है। निरर्थक भाग-दौड़ में ही उसकी सारी सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जीवन निष्फल, निष्प्रयोजन चला जाता है।
आद्य शंकराचार्य ने रसों को इन्द्रियों का आहार माना है। कान जो सुनते हैं, वह कान का भोजन है, मुँह जो ग्रहण करता है वह उसका आहार है, दृश्य आँख का भोजन है पर उन सब में चुनाव का होना आवश्यक है। हर बात सुनी जाय, हर चीज देखी जाय, हर स्वाद ग्रहण किया जाये, यह आवश्यक नहीं। जो सार्थक, उपादेय तथा आत्मविकास में सहायक हैं, उन रसों को भीतर जाने दिया जाय, निरर्थक को बाहर ही छोड़ दिया जाये।
पर उपयोगी अनुपयोगी का चुनाव करे कौन? आँखों में देखने की तो क्षमता है पर चुनने की नहीं। कान सुन सकते हैं पर उचित अनुचित के बीच भेद नहीं कर सकते। स्वादेन्द्रिय सार्थक-निरर्थक के बीच भेद नहीं कर पाती, वह मात्र स्वाद की अनुभूति भर कर पाती है जिसे चुनाव करना चाहिए वह चेतना तो प्रसुप्त-मूर्च्छित पड़ी रहती है। फलतः इन्द्रियाँ सार्थक निरर्थक सभी सम्वेदनाओं को भीतर भरती रहती हैं। मन के भीतर निरर्थक अनुभूतियों एवं विचारों का कबाड़ एकत्रित होता जाता है। मन का यदि किसी प्रकार आपरेशन कर सकना संभव हो सके तो अधिकाँश के भीतर अनर्गल विचारों के कूड़े का अम्बार जमा दिखाई देगा। देखने, सुनने, स्वाद लेने, पढ़ने आदि में चुनाव दृष्टि के न होने से ही ऐसा होता है।
मन में क्या-क्या विचार भरे हुए हैं, कैसी अनुभूतियाँ भरी पड़ी हैं, किस तरह की आकाँक्षायें उठ रही हैं, इसे किसी प्रकार कागज पर नोट किया जा सके तो मालूम होगा कि एक मोटी-सी बुक तैयार हो गयी। उन्हें मन में जमा करने में विभिन्न इन्द्रियों की कितनी शक्ति लगी, इसका लेखा-जोखा लिया जा सके तो मालूम होगा कि अधिकाँश मानसिक ऊर्जा तो सचमुच ही व्यर्थ में नष्ट हो गयी। सही चुनाव करके यदि उसे उपयुक्त दिशा में लगाया गया होता तो उपयोगी- सार्थक परिणाम भी सामने आते। इन्द्रिय- संयम का अर्थ न केवल इन्द्रिय निग्रह से है वरन् यह भी है कि शक्ति को सही दिशा में नियोजित भी किया जाये।
शक्तियों को फेंकते रहने से वार्धक्य एवं फिर मृत्यु भी जल्दी आ धमकती है, कुछ सृजन का कार्य नहीं हो पाता। मृत्यु जो आत्म संतोष का कारण- परम आनंद का सुअवसर बन सकती थी, वह आत्मघात-सी प्रतीत होती तथा उतनी ही पीड़ादायक सिद्ध होती है। असन्तुष्ट जीवात्मा को ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ व्यर्थ चला गया।
इस मूर्च्छना से बाहर निकलने के लिए आवश्यक है कि अब तक जो इन्द्रियों का प्रवाह था- मन की गति थी, उन्हें उलट दिया जाये। इसके लिए आवश्यक है कि इन्द्रियों को साधन माना जाये- उन्हें अपना गुलाम समझा जाये। चंचल मन भी आत्म चेतना पर किसी प्रकार हावी न होने पाये, वह भी अनुचर बना रहे। साथ ही वस्तुओं को कभी भी अतिशय महत्व न दिया जाय, उन्हें कभी भी साध्य न समझा जाये, साधन तक ही सीमित रहा जाये। सदा इसके लिए सचेष्ट रहें कि अपनी मालकियत वस्तुओं अथवा इन्द्रियों के हाथों न सौंप दी जाये।