भौतिकी का सूक्ष्मीकरण- चेतन सत्ता से एकीकरण

August 1984

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शरीर एक जड़ पिण्ड मात्र नहीं चेतन सत्ता का समुच्चय है जिसे काया को कलेवर रूप में ओढ़कर चलना पड़ता है। वैज्ञानिकों की स्थूल दृष्टि अभी तक प्रत्यक्ष को प्रमाण मानकर चलती रही है, इसी कारण चेतना के अस्तित्व को जान-बूझकर नकारा जाता रहा। लेकिन जैसे-जैसे भौतिकी भी सूक्ष्मीकरण की गहराइयों में प्रवेश करने लगी, चेतना के आयाम सम्बन्धी कई नये क्षेत्र ऐसे प्रकाश में आने लगे, जिन्हें स्वीकार करने पर उन्हें अब विवश होना पड़ रहा है।

आइन्स्टीन कहा करते थे “अनिश्चितता के सिद्धान्त पर टिकी “पार्टीकल फिजीक्स” के आधार लूले-लंगड़े हैं। ईश्वर कभी पासे नहीं फेंका करता। दुनिया एवं इसमें रहने वाले जीवधारियों का समुदाय भले ही ऊपर से कितना ही अव्यवस्थित क्यों न लगे, उसके पीछे एक सुलझी हुई चेतना है जो लीलामयी तो है, झक्की नहीं है।” अन्यान्य वैज्ञानिकों से विपरीत उन्होंने विचार तरंगों के आधार (प्योर थॉट) “यथार्थता” को पकड़ने एवं तद्नुसार सृष्टि की परिकल्पना करने को कहा था। वास्तव में सारे बलों के एकीकरण के सिद्धान्त के माध्यम से विभिन्न प्रतिपादनों को प्रस्तुत कर अब वैज्ञानिकों के कदम सत्य की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं।

भौतिकी का यह सूक्ष्मीकरण आखिर है क्या? जो मानवी बुद्धि के लिए अगम्य है? सम्भवतः इसे बहुत पहले आद्यशंकराचार्य ने विवेक चूड़ामणि में उद्धृत करके रख दिया था-

ऐक्यं तयोर्लक्षितयो र्न वाच्यय। निगद्यतेन्योन्य विरुद्ध धर्मिणोः। खद्योत भान्योरिव राजभृत्ययौः। कूपाम्बुराश्योः परमाणुमेवोः ॥ -244। वि. चू.

अर्थात्- उन दोनों, जीव एवं ब्रह्म की एकता को लक्ष्यार्थ में ही समझना चाहिए, वाच्यार्थ में नहीं, क्योंकि उनके आचार-व्यवहार एक न होकर अलग-अलग हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। उनकी इस एकता को वैसा ही समझना चाहिए “जैसे जुगनू और सूर्य की एकता को, राजा और भृत्य की, कुएँ और समुद्र की तथा परमाणु और पर्वत की एकता को।”

इस एकीकरण की दिशा में बढ़ता हर कदम क्रमशः भौतिकी के अविज्ञात आयामों को खोलने में तथा उसे आत्मिकी के समीप ला पाने में समर्थ हुआ है। आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व अलवर्ट आइन्स्टीन ने देश (स्पेस) की परिकल्पना दो बलों के एकीकरण के रूप में की थी- एक गुरुत्वीय (ग्रेविटेशनल) एवं दूसरा विद्युत्चुम्बकीय (इलेक्ट्रो मैग्नेटीक)। दोनों ही चार मूल बलों में से दो प्रमुख बल हैं। अन्य दो बल हैं ‘वीक फोर्स’ एवं “स्ट्रांग फोर्स” जिनकी खोज बाद में हो पाई। आज वैज्ञानिक इन चार बलों के एकीकरण के माध्यम से एक “यूनिफाइड फील्ड” की परिकल्पना भर करते हैं लेकिन उस समय, जब कि इनकी अत्यल्प जानकारी भर उपलब्ध थी, “फोर डाइमेंशनल कर्व्ड स्पेस टाइम” को प्रयोगों के माध्यम से आइन्स्टाइन जैसे दृष्टा वैज्ञानिक ने प्रामाणित कर दिखाया था। यह उनकी सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है कि गुरुत्व रूपी ज्यामितीय विचार एवं विद्युत्चुम्बकत्व रूपी देशकाल संरचना का एकीकरण उन्होंने उसी समय सोच लिया था। उनका तबका एकीकरण सिद्धान्त सूक्ष्म भौतिकी अर्थात् ब्रह्मांड की चेतन सत्ता के मूल प्रेरक बल की गहराइयों में जाने हेतु आने वाली वैज्ञानिक पीढ़ी को ऐसी दिशाएँ दे गया जो कि शाश्वत सनातन हैं। यही कारण है कि आज आइन्स्टीन को विज्ञान जगत में वही स्थान प्राप्त है जो आर्ष साहित्य में व्यास एवं साधना के क्षेत्र में पतंजलि एवं विश्वामित्र को।

चर्चा सूक्ष्मीकरण के सन्दर्भ में चल रही थी एवं यह समझाने का प्रयास किया जा रहा था कि अन्ततः यह सूक्ष्म जगत है क्या? कणों-प्रतिकणों की दुनिया की इतनी चर्चा होती है। कहीं शास्त्र वर्णित लोकोत्तर जीवन इन प्रतिकणों की दुनिया में तो छुपा नहीं है, जिसे भौतिकी और आत्मिकी के तालमेल के अभाव में जाना जा सका हो।

सत्य के प्रति प्रेम एवं निर्भीकता से उसकी खोज उपनिषदों की एक विशेषता रही है। राबर्ट अर्नेस्ट ह्यूम अपने ग्रंथ “द थर्टीन प्रिंसीपल उपनिषद्स” में लिखते हैं- “सत्य की खोज करने की उत्सुकता, उपनिषदों की एक आनन्ददायी और प्रशंसनीय विशिष्टताओं में से एक है।” मैक्समूलर जैसे प्रख्यात पूर्वार्त्त दर्शन के अध्येता का मत रहा है कि “उपनिषदों के रचयिताओं ने किसी भी ऐहिक या पारलौकिक सुख को सत्य की खोज के मार्ग में बाधक नहीं बनने दिया। इस अन्वेषण में वे सदैव पूर्वाग्रहों से मुक्त रहे हैं। यही कारण है कि पूर्वार्त्त अध्यात्म के माध्यम से ऋषियों ने कुछ ऐसे रहस्यों का उद्घाटन किया है जो आज के वैज्ञानिकों के लिये दिशा निर्देशक सूत्र की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं।” (“लेक्चर्स आन द वेदान्त फिलासफी”- मैक्समूलर द्वारा लिखित पुस्तक से उद्धृत)।

ईशोपनिषद् के प्रारम्भ में कही जाने वाली ऋचा “पूर्णमदः पूर्णमिदं” वह पूर्ण है- यह भी पूर्ण है के माध्यम से ब्रह्मांडव्यापी व्यक्त एवं अव्यक्त सत्ता के उसी स्वरूप को प्रकाशित करती है जिसे आइन्स्टीन ने अपने सूत्रों में इस सदी के प्रारम्भ में कहा था। वेदान्त में भी तकनीकी भाषा का प्रयोग हुआ है एवं उपनिषद्कार जब ‘वह’ तथा ‘यह’ उनकी पूर्णता का उद्घोष करता है तो ‘वह’ परोक्ष सत्ता- परब्रह्म के तात्पर्य में तथा ‘यह’ एक ऐसी वस्तु की ओर संकेत करता है जो इन्द्रिय गम्य है। यह मंत्र देश, काल और परिणाम की अभिव्यक्ति के प्रतीक इस व्यक्त जगत का बोधक है।

इस प्रकार जहाँ तक परोक्ष जगत की सूक्ष्मीकृत संरचना एवं उसके विभिन्न आयामों के प्रकटीकरण का प्रश्न है, भारतीय चिन्तन और आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन दोनों एक मत हैं। दोनों इस प्रत्यक्ष जगत की विविधता के पीछे परोक्ष में निहित मूल एकता को मानते हैं। लेकिन न ही उपनिषद् एवं न ही प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक बहिरंग से सन्तुष्ट होकर रह जाते हैं। दोनों ही वस्तुओं के अन्तस् को, सत्य के चैतन्य पहलू को जानना चाहते हैं। भौतिकी को दार्शनिक ढंग से समझने- समझाने वालों ने यह प्रयास पूर्वार्त्त दर्शन के सहयोग से भली प्रकार किया है।

1674 में आइन्स्टीन की एकीकरण की मान्यता को मूर्त रूप देने का प्रयास योगेशपति एवं नोबुल पुरस्कार विजेता अ-दुस्सलाम (दोनों ही एशियन किन्तु अमेरिका के नागरिक) ने एक ओर तथा होबर्ड जार्जी एवं शेल्डन ग्लाशोब ने दूसरी ओर आरम्भ किया। इसे उन्होंने ग्राण्ड यूनिफिकेशन नाम दिया। क्वार्क्स एवं लेप्टान कणों की गहराई में हम प्रवेश न करें तो भी भारत की पुणे के समीप कोलाई स्वर्ण खान में पकड़े गये दीर्घजीवी प्रोटानों एवं न्यूट्रिनों कणों के आधार पर द्रव्य (पदार्थ) की वर्तमान अवस्था प्रतिद्रव्य का उसके ऊपर हावी होना तथा इसके माध्यम से एक पाँच आयामीय जगत की कल्पना करना अब आसान हो गया है। अब प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो गया है कि इलेक्ट्रान- न्यूट्रिनों का भार शून्य से अधिक है। प्रो. ग्लाशोव इस आधार पर कहते हैं कि चार मूल बलों का एकीकरण अब सिद्ध किया जा सकता है एवं यह भी कि आइन्स्टीन अपने इस कथन में असत्य नहीं कह रहे थे कि इस विराट् जगत के मूल में चेतन सत्ता कार्यरत है। आइन्स्टीन ने भौतिकी से अधिक महत्व ज्यामिती को दिया जो कि किन्हीं निश्चित सिद्धान्तों पर तो आधारित है। वे कहते “क्वाण्टम फिजीक्स” में अनिश्चयता को महत्व दिया गया है जबकि “पार्टीकल फिजीक्स” (कण भौतिकी) में सम्भाव्यता के सिद्धान्त को। उन्हें ये दोनों बातें पसन्द नहीं थीं। उन्होंने ‘सपोज’ के आधार पर नहीं बल्कि “प्योर थॉट” के आधार पर परोक्ष के रहस्यों को जानने हेतु प्रयास करने पर बल दिया।

अब उन्हीं दो मूल बलों से चार बल, उनके एकीकरण एवं तद्नुसार भौतिकी के सूक्ष्म परिसर की परिकल्पना के बाद पिछले 6 वर्षों में परागुरुत्व (सुपर ग्रेविटी) एवं प्रति गुरुत्व (एण्टी ग्रेविटी) का सिद्धान्त एकीकरण की नींव को और भी मजबूत करने को आ खड़ा हुआ है। सम्भव है इसी एण्टी ग्रेविटी में सूक्ष्म जगत का सारा ढाँचा निहित हो, जिसमें कण-प्रतिकण प्रकाश की गति से भी तीव्र परिभ्रमण करते हों- सारा पारलौकिक गतिक्रम यहीं संचालित होता हो। परागुरुत्व भौतिकी का नवीनतम अजूबा है एवं सम्भव है आत्मिकी के समीप आने का एक माध्यम भी। इसके प्रमुख प्रवक्ता प्रो. न्यूवेन ह्यजेन का कथन है कि पूर्वार्त्त दर्शन वर्णित सभी “गप्पबाजियाँ” (जैसा कि वे पूर्व में मानते थे) सम्भवतः परा एवं प्रति गुरुत्व के माध्यम से वैज्ञानिकों को समझ में आने लगे एवं आइन्स्टाइन का वह कथन सत्य लगने लगे कि “ईश्वर समझदार है, वह कभी उल्टे सीधे पासे नहीं फेंकता। काल विवर (ब्लैक होल्स) आदि की कल्पना सत्य हो सकती है पर है वह भी तर्क सम्मत वैज्ञानिकता का ही एक अंग, न कि अनिश्चितता के आधार पर की गयी परिकल्पना।”

1934 से लेकर अब तक भौतिकीविद् दार्शनिकता वैज्ञानिकता के पलड़े में झूलते रहे हैं और यह भूलते रहे हैं कि वह ‘विज्ञान के दर्शन’ का एक ही पलड़ा है। सर जेम्स जीन्स इसीलिए कहते थे कि “भौतिक जगत की समस्त घटनाएं सामंजस्य पूर्ण हैं, यहाँ तक कि वे भी जिन्हें हम संयोग मान बैठते हैं। इन सामंजस्यपूर्ण घटनाओं को गणित की भाषा में सही ढंग से व्यक्त किया जा सकता है। भौतिक जगत में सामंजस्यपूर्ण घटनाओं को रचने वाली अवश्य ही कोई विचार बुद्धि युक्त सत्ता है। वह महान गणितज्ञ प्रतीत होती है अतः उसे परमेश्वर कहना अत्युक्तिपूर्ण नहीं है।”

भौतिक जगत में पग-पग पर हर पहलू में हमें गणितीय प्रति रूप दिखाई पड़ते हैं। अतः इसे किसी भी हालत में यान्त्रिक जगत जड़ जगत नहीं कहा जा सकता। जो भी कुछ दृश्य रूप में घटित होता है, वह विराट् चेतन सता की ही अभिव्यक्ति मात्र है। मस्तिष्क यदि उन्हें स्थूल रूप में देखे तो वे उसी सीमा में उसे दिखाई देंगी लेकिन चेतना के जागरण द्वारा- सूक्ष्मीकृत मानवी चेतन सत्ता के माध्यम से अदृश्य- पराभौतिक घटनाक्रमों को देख सकना उनमें भाग ले सकना भी पूर्ण रूपेण सम्भव है। वस्तुतः मानवीय न जो स्थूल मस्तिष्क का चेतन प्रतिबिम्ब है, अपनी जागृति की पराकाष्ठा की स्थिति में जड़ व चेतन भौतिक सत्ताओं का अन्तर भूलकर सूक्ष्म जगत का ही एक अंग बन जाता है।

भौतिकी के माध्यम से क्लिष्ट शब्दावली को भी सरल करते हुए यहाँ यह समझाने का प्रयास किया गया कि इस काय-कलेवर में निवास करने वाली चेतन सता अन्ततः जीवित अवस्था में कैसे वह भूमिका निभा लेती है जो दृश्यमान नहीं है, मात्र अणु-परमाणुओं, कण-प्रतिकणों पर ही लागू होती है। सूक्ष्म मन सूक्ष्म विराट् सत्ता का ही एक अंग है। दोनों का एकीकरण सम्भव है एवं इसी में परोक्ष का सारा लीला सन्दोह चलता रहता है।


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