मनुष्य कितना स्वतन्त्र! कितना परतन्त्र!

August 1984

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एकबार एक मनुष्य ने हजरत अली से पूछा कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है या परतन्त्र। उन्होंने उत्तर दिया- दोनों। उसने पूछा कैसे? हजरत अली ने इसके उत्तर में उसे अपना एक पैर उठाने को कहा। उस मनुष्य ने एक पैर ऊपर उठा लिया। ‘हजरत’ ने उससे दूसरा पैर भी उठाने को कहा। इसमें उस व्यक्ति ने असमर्थता व्यक्त की। ‘अली’ ने उसके आरम्भिक प्रश्न का स्पष्टीकरण किया कि मनुष्य की यही स्थिति है।

मानवी स्वतंत्रता की एक सीमा है। प्रत्येक कार्य को कर सकने में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ एवं ज्ञान का विकास संभव नहीं हो पाता मनुष्य जड़ हो जाता। स्वतंत्रता, परतन्त्रता किस प्रकार जीवन में सम्मिश्रित है इसको एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। एक बड़े पुस्तकालय में पहली कक्षा से लेकर अन्तिम कक्षा तक की पाठ्य पुस्तकें हैं। एक लड़के को पुस्तकालय का अध्यक्ष बना दिया जाता है उसे सौंपते हुए कहा जाता है कि उसके ही पढ़ने के लिए सभी पुस्तकें हैं। उस पर नियंत्रण करने वाला कोई नहीं है। यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह पहले किस पुस्तक को पढ़े। यदि वह आरंभ पहली कक्षा की पुस्तकों के अध्ययन से करता है तथा इस क्रम में आगे बढ़ता जाता है तो पुस्तकों का सही उपयोग कर सकने में तथा समझ पाने में समर्थ होता है। इस क्रम की अवहेलना करके वह यदि ऊँची कक्षा की पुस्तकों को अध्ययन के लिए उठाता है तो समझ पाना तो दूर रहा, उल्टे दिग्भ्रान्त हो जाता है। जबकि निर्धारित क्रम से अध्ययन करने वाला अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करता जाता है। ज्ञान की वृद्धि के साथ उसकी स्वतंत्रता भी बढ़ती जाती है। अपने श्रम एवं विवेक का प्रयोग करके वह ज्ञानी बन जाता है।

सृष्टि से प्राप्त साधन पुस्तकालय के तुल्य हैं। इसमें विभिन्न प्रकार की पुस्तकें नहीं हैं। विराट् प्रकृति एक खुली पुस्तक के समान है। जिसमें विभिन्न श्रेणियों के जीव अपने स्तर के अनुरूप उस पुस्तक का अध्ययन करते एवं समझाने का प्रयास करते हैं। जीवों की योग्यताओं में भिन्नता होने के कारण प्रत्येक को भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतीत होती है। सबके अध्ययन के लिए सृष्टि रूपी पुस्तक खुली पड़ी है। एक क्षुद्र जीव अपनी क्षमता के अनुसार उससे उपयोगी ज्ञान एवं सामर्थ्य प्राप्त करता है। उच्चतर जीव अधिक ज्ञान संचित करता है। एक जंगली मनुष्य अपने स्तर से समझने का प्रयास करता है तथा विकसित सभ्य मनुष्य अपने स्तर से। पाठ्य-सामग्री एक होते हुए भी दोनों के अध्ययन एवं उससे मिलने वाले अनुभवों में महान अंतर है। अपने ज्ञान में वृद्धि करते हुए मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता बढ़ाता जाता है। प्रकृति के जड़ परमाणु अन्य प्राणियों के लिए व्यर्थ हैं जबकि मनुष्य उन्हीं को सुगठित, व्यवस्थित करके अनेकानेक रचनायें कर डालता है। अपनी विकसित बुद्धि के कारण नगण्य समझे जाने वाले धूल के कणों में भी असीम शक्ति सामर्थ्य ढूँढ़ निकालता है। उनका सदुपयोग करते हुए स्वतंत्र जीवन यापन करता है। स्वतन्त्रता निम्न जीवों में सीमित है जबकि मनुष्य में उसका क्षेत्र बढ़ जाता है। यह स्वतंत्रता प्रयत्न करने पर बढ़ जाती है। वस्तुओं संसार के आकर्षण के स्वतन्त्र उपभोग से हटकर जब दुष्प्रवृत्तियों से स्वतंत्र होने का जीव प्रयास करता है तो इसे ही मुक्ति कहा गया है। स्वतन्त्रता की यही पराकाष्ठा है।

मुक्ति को परमपद- जीवन का लक्ष्य माना गया है। इससे अभिप्राय यह है कि मुक्ति एक भौतिक अवस्था नहीं जीवात्मा की एक स्थिति है जिसमें वह अपने को कर्म, भोग एवं ज्ञान के बंधनों से मुक्त अनुभव करता है। मानसिक दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाना ही मुक्ति है तब साँसारिक बंधनों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। सामान्यतया लोगों के मन में यह भ्रान्ति बनी हुई है कि मुक्ति किसी स्थान विशेष का नाम है जहाँ जीवात्मा को भेज दिया जाता है। ऐसा जानकर उस स्थान विशेष को ढूँढ़ने तथा वहाँ पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। फलस्वरूप आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों के परिष्कार तथा आत्म-विकास का प्रयत्न किया नहीं जाता। मान्यता की यह भ्रान्ति तथा मुक्ति का प्रयास उसी प्रकार है, जैसे कोई विद्यार्थी मात्र सर्टीफिकेट प्राप्त करने के लिए भटकता रहे तथा मानसिक विकास के लिए श्रम करना छोड़ दे। वस्तुतः सर्टीफिकेट एक विशिष्ट प्रकार के कागज के मिलने का नाम नहीं वरन् आन्तरिक शक्तियों की विकसित अवस्था का नाम है। विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए उचित श्रम करता है न कि सर्टीफिकेट प्राप्त करने की चिन्ता में अनावश्यक भटकता रहता है। सफलता के साथ सर्टीफिकेट का मिलना तो सुनिश्चित है। मुक्ति की उपलब्धियाँ स्वर्गीय परिस्थितियों के रूप में परिलक्षित होती हैं। यह मिलना तो सुनिश्चित है किन्तु अपने विकास के श्रम-साध्य कार्य को छोड़ कर यदि मुक्ति की परिस्थितियों को ढूँढ़ने का प्रयास किया जाये तो असफलता ही हाथ लगेगी।

मुक्ति का मार्ग बाहर नहीं अन्दर है। यह मार्ग बच्चों के साँप-सीढ़ी के खेल के समान है। सतर्कता एवं विवेक के अभाव में खिलाड़ी को असफलता ही हाथ लगती है। सीढ़ी कभी तो ऊपर ले जाती है। सतर्कता के अभाव में साँप को अवसर मिल जाता है तथा सारे प्रयत्न को नष्ट कर देता है। साँप आलस्य, प्रमाद, लोभ, मोह का परिचायक है, जो मनुष्य की प्रगति को, स्वतन्त्रता की ओर बढ़ने में बाधक है। थोड़ी भी असावधानी बरती गई तो ये बंधन मनुष्य को जकड़ लेते तथा आबद्ध कर लेते हैं। फलस्वरूप मनुष्य इनका गुलाम बनकर किसी प्रकार जीवन के दिन पूरे कर लेता है। भौतिक आकर्षणों में आबद्ध जीवात्मा मुक्ति का आनंद लेने से वंचित रह जाती है।

इस मार्ग में अनेक योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। कीट से लेकर मनुष्य तक की मध्यवर्ती दशाएं मुक्ति रूपी चोटी पर पहुँचने के लिए विभिन्न मार्ग हैं। भिन्न-भिन्न प्राणी विभिन्न स्टेशनों पर हैं। कुछ प्रयत्नों से आगे बढ़ते तो कुछ नीचे गिरते हैं। संसार चक्र का यही राजमार्ग है। प्राणियों की विभिन्न प्रवृत्तियाँ इस मार्ग में आगे बढ़ने अथवा पीछे हटाने में सहायक होती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मुक्ति मार्ग के अवरोध हैं जो प्राणियों को आगे बढ़ने से रोकते तथा उस श्रेष्ठ आनंद से सदा वंचित रखते हैं। जबकि परोपकार, दया, करुणा, सेवा की प्रवृत्तियाँ सहायक मानी जाती है। इनका अवलम्बन लेकर जीव क्रमशः अपना विकास करता जाता है।

स्वतन्त्रता की पराकाष्ठा ही मुक्ति है। मानव योनि उस परमपद तक पहुँचने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। अन्य जीव तो प्रकृति प्रेरणाओं के अनुरूप जीवन यापन करते तथा मरते-खपते देखे जाते हैं जबकि परमात्मा ने मनुष्य की अतिरिक्त क्षमताओं के साथ विवेक भी दिया है। इसका एकमात्र उद्देश्य है कि वह पशु-प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करते हुए अपने मुक्त स्वरूप को अनुभव कर सके। आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियाँ ही भव-बंधन हैं। यही अंतरात्मा के स्वरूप के दशन से मनुष्य को वंचित रखती हैं। जब मन की दुष्प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं तो जीवात्मा अपने को मुक्त अनुभव करती है तथा अपने शाश्वत दिव्य आलोक के साथ प्रकट होती है। यहाँ है स्वतंत्रता परतंत्रता का वास्तविक स्वरूप, जीवात्मा के विकास पराभव का तत्वदर्शन।


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