मन को सुधारा-सधाया जा सकता है।

August 1984

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जल्लाद अपनी जिन्दगी में कई व्यक्तियों को फांसी के फंदे पर चढ़ाकर मौत के घाट उतार देता है। फाँसी की टिखटी से लटकी काया, पीड़ा से ऐंठता शरीर और लम्बाती गर्दन देखकर भी उसके मन में कोई दुःखदाई प्रतिक्रिया नहीं होती। इसके विपरीत कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनमें किसी का कराहना, दर्द से बिलबिलाना भी नहीं देखा जाता। कसाई अपने व्यवसाय में सैंकड़ों ही नहीं हजारों पशुओं की गर्दन छुरी से रेत देता है। उन जानवरों की छटपटाहट, चीखने चिल्लाने का उन पर कोई असर नहीं होता, पर कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनसे किसी प्राणी के चोट लगने पर उनके शरीर से बहता हुआ खून भी नहीं देखा जा सकता। वे किसी पशु की कराह या आर्तनाद सह नहीं सकते।

इस प्रसंग की यह चर्चा का यही मन्तव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूतियां सभी परिस्थितियों में एक समान नहीं रहती। इसलिए किस व्यक्ति के मन पर, कौन सी घटना का अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ेगा? इसका कोई मोटा सिद्धान्त स्थिर कर पाना कठिन है। मानसिक आघात किन कारणों से पहुँचते हैं? इसका सामान्य विवेचन भी नहीं किया जा सकता। कई व्यक्ति आए दिन अपमान सहते रहते हैं और उसके इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उसका उनके मन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। पर कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो छोटी-सी बात को बहुत ज्यादा महत्व देकर तड़प उठते हैं। बदला लेने की सोचते हैं। द्रौपदी ने दुर्योधन से एक निर्दोष और छोटा-सा मजाक ही किया था कि “अन्धों के अन्धे होते हैं।” दुर्योधन ने उस मजाक को अक्षम्य अपराध मान लिया और मन में ऐसी गाँठ बाँध ली कि प्रतिशोध की चरम सीमा तक जा पहुँचा। एक निर्दोष परिहास ने उसके मन मस्तिष्क पर जो चोट पहुँचाई होगी, इन शब्दों वे उसे जिस बुरी तरह तिलमिला दिया होगा उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। तभी तो उस आघात की गहराई के समतुल्य प्रतिशोध चुकाकर उसने अपने आघात को हलका करने का प्रयास किया। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति घटनाओं और प्रसंगों की अलग-अलग ढंग से व्याख्या करता है और हर घटना को प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि से देखता तथा उसकी प्रतिक्रिया ग्रहण करता है।

इसीलिए कहा गया है, कौन किस घटना प्रसंग को किस दृष्टि से देखेगा, उसकी क्या व्याख्या करेगा और उससे क्या प्रतिक्रिया ग्रहण करेगा? इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हो सकता। कानून और न्याय व्यवस्था में इस तरह के मापदण्ड निर्धारित हैं कि अमुक तरह के आचरण असामाजिक और अपराध है तथा दण्डनीय है, लेकिन इनमें भी अपराधी की नीयत, परिस्थिति, प्रतिक्रिया आदि का ध्यान रखा जाता है। सम्भव है अपराध गलती, गफलत या भ्रांत स्थिति में बन पड़ा हो, इस स्थिति में दण्ड हलका भी किया जाता है, लेकिन मन के लिए ऐसी कोई आचार संहिता या मापदण्ड नहीं है कि वह किस घटना को किस रूप में ग्रहण करेगा?

यही कारण है कि एक ही परिस्थिति में कोई व्यक्ति सुखी, सन्तुष्ट और प्रसन्न दिखाई पड़ता है तो दूसरा उसी परिस्थिति के सामने आने पर नाटकीय यन्त्रणा भोगता दीख पड़ता है। वस्तुतः किसी भी घटना का आघात या प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर है कि सहने वाले व्यक्ति की भावुकता एवं विचार शक्ति का समन्वय किस रूप में हुआ? सम्पन्न और समृद्ध व्यक्तियों को जिनका व्यापार व्यवसाय करोड़ों रुपयों का चलता है, कुछ लाख का घाटा हो जाता है तो उनकी स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आता। वे उसी तरह वैभव सम्पन्न जीवन जीते हैं और सुख सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से तनिक से घाटे के कारण उनके मन में जो-जो व्यथा अनुभव होती है, जो पीड़ा होती है, उसे मनोशारीरिक रोगों के रूप में देखा जा सकता है। इसके विपरीत एक साधारण स्थिति का व्यक्ति, जो निर्वाह भर कमा पाता है कभी कुछ भी न कमा पाने के बाद भी उतना खिन्न नहीं होता है। क्या कारण है? एक ही उत्तर है- मनः स्थिति की बनावट।

आमतौर पर समझा जाता है कि इच्छित परिस्थितियां प्राप्त होने पर ही मनुष्य सुखी होता है। पर वस्तुस्थिति सर्वथा इसके विपरीत होती है। मनःस्थिति को, दृष्टिकोण को यदि परिष्कृत कर लिया जाय तो सोचने समझने का तरीका इतना सरल और सुखद बन जाता है कि व्यक्ति किन्हीं भी परिस्थितियों में सुखी सन्तुष्ट रह सकता है। अन्धकार में रखी हुई सभी वस्तुएँ काली जान पड़ती हैं परन्तु जब उन पर प्रकाश की किरणें पड़ती हैं और उनका पूरा स्वरूप सामने आता है तो अलग-अलग चमकने लगती हैं। उसी प्रकार सोचने समझने की प्रकाशवान प्रक्रिया को एक ऐसा दिव्य आलोक कहा जा सकता है, जिसके प्रकाश में सारा समीपवर्ती क्षेत्र अन्धकार की कालिमा से मुक्त हुआ आभायुक्त देखा जा सकता है।

प्रसिद्ध जर्मन चिकित्सा पत्रिका “मेडिजिनेस क्लीनिक” में छपे एक विस्तृत लेख में कई शरीर विज्ञानियों के अनुभव का सारांश छापा है। इसमें अनेक प्रसिद्ध चिकित्सकों ने अपने अनुभव लिखे और बताया कि पीड़ा का जितना अंश शारीरिक कारणों से जन्मता है उससे कहीं अधिक मानसिक कारणों से रोग और पीड़ा अनुभव होते हैं।

एक डॉक्टर ने अपना अनुभव लिखते हुए बताया है कि कुछ प्रयोगों में उन्होंने विशुद्ध पानी की सुई लगाकर रोगी को बताया कि यह गहरी नींद की दवा है। उसी से दर्द के कारण बेहाल हुए जा रहे व्यक्तियों की पीड़ा खत्म हो गई और वे चैन की नींद सोने लगे। इसके विपरीत मार्फिया के इन्जेक्शन देकर यह कहा गया कि इस दवा से शायद दर्द थोड़ा बहुत हल्का पड़े और सम्भव है थोड़ी नींद आए। दवा हलकी ही है। यह कहकर सन्देह पैदा कर दिए जाने से उनकी प्रतिक्रिया वैसी नहीं हुई, जैसी कि होनी चाहिए। इसी तरह के प्रयोगों में विपरीत व्याख्या करते हुए भिन्न दवा बताकर जब एक ही दवा रोगियों को दी गई तो सब पर अलग-अलग प्रतिक्रिया का कारण शरीर और मन की अलग-अलग संरचना होना भी समझा गया। इस स्थिति में एक ही रोगी पर एक ही बीमारी में एक ही दवा का अलग-अलग प्रभाव बताकर प्रयोग किया गया तो उसके भी भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़े।इन सब प्रयोगों से इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि रोग की अपेक्षा मनःस्थिति रोगी को अधिक पीड़ा पहुँचाती और कष्ट देती है।

रोगी को ही क्यों, स्वस्थ व्यक्ति के सम्बन्ध में भी यही नियम लागू होता है। इस सम्बन्ध में पर्याप्त परीक्षण करने के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि एक ही तरह के दर्द को भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के व्यक्ति अलग-अलग तरह से अनुभव करते हैं। डरपोक रोगी एक ही तरह के दर्द से बेतरह चीखते चिल्लाते हैं। साधारण मनःस्थिति वाले हलके-हलके कराहते रहते हैं और साहसी लोग इसी कष्ट को बहुत हलका मानते हैं। युद्ध के मोर्चे पर घायल होने वाले सैनिक अपनी वीरता के आवेश में रहने के कारण बहुत कम कष्ट अनुभव करते हैं, जबकि उतने ही कष्ट में सामान्य व्यक्ति कई गुना बढ़-चढ़कर चीखते चिल्लाते हैं।

शरीर पर ही जब मनःस्थिति का इतना प्रभाव पड़ता है तो सुख-दुःख, हर्ष शोक जो मानसिक धरातल पर ही अनुभव किए जाते हैं, मनःस्थिति की बनावट के अनुसार उनका बढ़ा या घटा हुआ स्वरूप अनुभव होना स्वाभाविक ही है अस्तु हर स्थिति में अपनी मनोभूमि को शान्त और संतुलित रखा जाय। घटनाओं को घटने से रोक पाना मुश्किल है, दूसरे व्यक्ति कैसा व्यवहार करें कि वह अपने को प्रिय लगे, इस पर भी किसी का कोई वश नहीं। क्यों नहीं, अपने आप को ही इस प्रकार सामंजस्य बिठाना सिखाया जाए कि हर परिस्थिति में सुखी और सन्तुष्ट रहा जा सके। यदि अपने कष्टों, समस्याओं, कठिनाइयों और परेशानियों को सन्तुलित और परिष्कृत दृष्टिकोण के प्रकाश में रख कर उनका विश्लेषण किया जाए तो आधी से अधिक कठिनाईयाँ आधारहीन, मिथ्या और निर्मूल सिद्ध होंगी। इस सन्तुलित और परिष्कृत दृष्टिकोण को अपनाकर कोई भी व्यक्ति प्रत्येक परिस्थितियों में प्रसन्न रह सकता है।

मन एक शक्तिशाली किन्तु अनगढ़ तन्त्र है, उसे जिस प्रकार सिखाया जाय उसमें आरम्भिक आना-कानी के उपरान्त आरोपित ढाँचे में ढलने के लिए सहमत हो जाता है। सरकस में काम करने वाले जानवर इसके उदाहरण हैं, वे अपनी अभ्यस्त आदतें छोड़कर ऐसे करतब करने लगते हैं मानो उनने अपनी बिरादरी से अथवा परम्परा से रिश्ता तोड़कर नये स्तर का स्वभाव एवं अभ्यास अपना लिया हो। ऐसे ही आश्चर्यजनक परिवर्तन मनुष्यों के स्वभावों में भी होते रहते हैं। कितने ही भली परम्परा छोड़कर बुराई और बुरी आदतें छोड़कर भलाई की नीति अपनाते देखे गये हैं। इसका आधारभूत कारण एक ही है कि मनुष्य फौलाद पत्थर का नहीं, मोम जैसी मुलायम वस्तु का बना हुआ है, जिसे आत्म-चिन्तन संगति प्रभाव एवं परिस्थितियों के दबाव से सरलतापूर्वक बदला जा सकता है।

देखना यह होगा कि मन को किस प्रकृति में ढालना है, दूरदर्शी विवेकशीलता से अपनाकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि किस स्तर की मनःस्थिति उपयोगी सिद्ध होगी। उसी स्तर का अध्ययन, सान्निध्य, मनन, चिन्तन आरम्भ कर दिया जाय तो क्रमश मनोभूमि निर्धारित ढाँचे में ढलने लगेगी और अभ्यस्त ढर्रा बदलने लगेगा। परायों को अनगढ़ों को जब प्रयत्न पूर्वक सुधारा, सिखाया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि अपना मन और स्वभाव अवांछनीय प्रवाह में बहने से रोककर उपयोगी दिशाधारा अपनाने के लिए सहमत न किया जा सकेगा। आत्म निर्माण ही, भविष्य निर्माण है। उसी को भाग्य निर्माण भी कहते हैं। यह लगता तो अपने बस से बाहर है किन्तु वास्तविक यह है कि प्रयास पूर्वक यह कठिन काम भी सरल बनाया जा सकता है।


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