नियमित जीवन की प्रकृति प्रेरणा

August 1984

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दृश्य जगत की समस्त गतिविधियां क्रियाकलाप और हलचलें एक नियम व्यवस्था के अंतर्गत चल रही हैं। नियमितता उसमें सर्वोपरि है। कहा जाये कि नियमितता संसार का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होती। प्रकृति की इच्छा है कि हर प्राणी अपना कार्य नियत समय पर किया करे। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी ग्रह उपग्रह नियत निर्धारित गति से नियमपूर्वक अपना काम करते हैं और निर्धारित कक्षा पर घूमते हैं। वृक्ष अपने समय पर फलते-फूलते हैं। कहा भी गया है। ‘समय पाए तरुवर फले केतिक सींचों नीर।’ ऋतुएँ अपने क्रम में बदलती हैं। प्रत्येक नियत कार्य नियत समय पर करने के लिए प्रकृति ने इस नासमझ कहे जाने वाले वृक्ष वनस्पतियों तथा जीव-जन्तुओं को जाने कौन-सी ऐसी घड़ी दी है कि वे अपना हर काम नियत निर्धारित समय पर कर ही लेते हैं। अपने चारों ओर जिधर भी दृष्टी पसार कर देखा जाए उधर ही समय की पाबन्दी और नियमितता का बोलबाला दीखेगा।

सृष्टि का हर प्राणी अपना जीवनयापन नियमित क्रम पद्धति के आधार पर ही व्यतीत करता दिखाई देता है। उदाहरण के लिए चींटियाँ अपना विवाह रचने के लिए वर्ष में एक निश्चित दिन ही अपने बिलों से निकलती हैं और दिन उसका यह एक ही धंधा रहता है। वर-वधू की तलाश करने से लेकर सुहागरात मनाने तक के सारे रस्म रिवाज इस एक ही दिन में निपट जाते हैं और चींटियां अण्डे देने, उन्हें सेने के आगामी क्रिया कलापों में दत्त-चित्त हो जाती हैं। चींटियों का यदि कोई पंचाँग रहता होगा तो निश्चित ही उसमें विवाह की एक नियत तिथि रहती होगी और वे उसी के अनुसार विवाह के लिए उद्विग्न होती हुई खाने-पीने के सामान्य ढर्रे को बदल कर ब्याह शादी के गोरख धन्धे में उलझ जाती होंगी।

मधुमक्खी, तिलचट्टे, केकड़े, चूहे, चींटी, मक्खी आदि की दिनचर्या उनके निर्धारित समय क्रम से ही आरम्भ होती है। उनके क्रिया कलापों में व्यवधान उत्पन्न करने के लिए चाहे जितने प्रयास किए जाएँ वे इस भूल भुलैया में नहीं उलझते। कृत्रिम प्रकाश या कृत्रिम अन्धकार उत्पन्न करके उनकी अन्तःचेतना को भुलावे में डालने के वैज्ञानिकों ने कितने ही प्रयोग किये पर उनमें से एक भी सफल नहीं हुआ। इन कीड़ों ने अपने कार्यक्रम अपनी अभ्यस्त चेतना के आधार पर ही आरम्भ किया और चतुरता के साथ रचे गये उस भुलावे में फँसने से इन्कार कर दिया।

फ्राँस के वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में एक प्रयोग किया कि कुछ मधुमक्खियों को सवा आठ बजे शरबत का घोल चाटने के लिए दिया जाने लगा। कुछ दिनों तक यह क्रम चलने से मधुमक्खियाँ इसकी अभ्यस्त हो गई। अब उस छत्ते को, जिसकी मधुमक्खियों को सवा आठ बजे शरबत का घोल दिया जाता था, हवाई जहाज से पेरिस भेज दिया गया। पेरिस में जब सवा आठ बजते हैं तो अमेरिका में रात के सवा तीन बजते हैं। साधारणतया मक्खियां उस समय विश्राम किया करती हैं पर देखा गया कि रात के सवा तीन बजे उन मक्खियों के छत्तों में भिन-भिनाहट शुरू हुई और वे पास में रखे शरबत के घोल पर टूट पड़ी। तीन हजार मील की दूरी मक्खियों के समय ज्ञान सम्बन्धी चेतना को भुलावे में नहीं डाल सकी।

मधुमक्खियों को दिशा भुलाने का एक प्रयोग जर्मनी में किया गया। आरम्भ में उन्हें नियत स्थान पर भोजन दिया जाता रहा। वे नित्य वही आहार पाने की अभ्यस्त हो गईं। अब उनका भोजन कुछ ही दूर पर विपरीत दिशा में रखा गया। मक्खियां नियत स्थान पर ही भूखी मंडराती रही और अन्य दिशा तलाश करने की जल्दी उन्होंने नहीं दिखाई।

समुद्र तट पर पाया जाने वाला एक विशेष प्रकार का केकड़ा दिन के उतार-चढ़ाव के साथ अपने रंग बदलता है। इन्हें पकड़कर घोर अन्धेरे में रखा गया ताकि उन पर सूर्य का प्रभाव न पड़े तो भी उनका रंग समय के हिसाब से बदलने का क्रम जारी रहा। इसके साथ-साथ उस केकड़े का रंग गहरा होने में कृष्णपक्ष और शुक्ल-पक्ष के हिसाब से 50 मिनट का अन्तर आता रहता है। उस केकड़े को समुद्र में एक हजार मील दूर पहुँचाया गया और वायुयानों में अधिक ऊंचाई पर रखा गया ताकि समुद्री ज्वार-भाटे का उस पर असर न पड़े। तब भी उसकी प्रकृति नहीं बदली और अँधेरी उजेली रातों में 50 मिनट के अन्तर से जो रंग में गहरा हलकापन आया करता था वह यथावत् जारी रहा केकड़े के भीतर जैसे कोई घड़ी लगी हुई हो जो बिना बाहरी परिवर्तन किये अपने ढंग और क्रम से चलती ही रही।

कई पक्षी प्रतिवर्ष लम्बी यात्राओं पर निकलते हैं। उन्हें यह मालूम रहता है कि कब कहाँ आहार-विहार की सुविधा रहती है तथा कहाँ असुविधा रहती है? उसी के अनुसार वे अपनी परिव्रज्या का कार्यक्रम बनाते हैं। उनके पर्यटन पर निकलने और वापस आने का समय इतना सुनिश्चित रहता है जैसे पंचांग कैलेण्डर देखने और मुहूर्त निकालने में उन्होंने ज्योतिषियों से बाजी लगा रखी हो।

कई पक्षी तैरने और उड़ने में समान रूप से पारगत होते हैं। कुछ के लिए रात भी दिन की तरह सुविधाजनक होती है। इंग्लैण्ड के पक्षियों में एक जाति ऐसी भी है जो लम्बे पर्यटन पर चली जाती है किन्तु उसके बच्चे घोंसले में ही रह जाते हैं। वे जब बड़े होते हैं तो अपने अभिभावकों के रास्ते पर ही उड़ते हैं और वहीं जा पहुँचते हैं जहाँ उनके जन्मदाता निवास कर रहे होते हैं। पर्यटक पक्षी जो झुण्ड बनाकर उड़ते और उनकी यात्रा वर्ष में नियत समय पर आरम्भ होती है। इसी प्रकार उनके वापस लौटने का समय भी होता है।

घरों में रहने वाली गौरैया चिड़िया खेतों में अनाज की फसल पकते ही गाँवों की ओर उड़ जाती है और जब तक वहाँ दाने मिलते हैं। तब तक उधर ही गुजारा करती है और वह पुनः अपने घर बसेरों में वापस लौट आती है।

जो पक्षी निश्चित समय पर सुदूर प्रदेशों की यात्रा पर निकलते हैं और निश्चित समय पर वापस आते हैं उनके संबंध में कई तरह के प्रयोग परीक्षण किये गये। डा. सेवरा न इन परिव्राजक पक्षियों के पैरों में ऐसे छल्ले पहना कर छोड़ा जिन पर उनके समय निवास आदि का वर्णन अंकित था। अन्य देशों के लिए चले जाने पर जब वे पकड़े गए तो पता चला कि वे दो हजार से लेकर 25 हजार मील तक की यात्रा कर चुके हैं। वे अपना उड़न पथ ऐसा बनाते हैं, जिससे दुर्गम पर्वत से टकराना भी न पड़े और रास्ता भी सीधा बैठे। उनकी उड़ान 24 घंटे में 240 मील अर्थात् 10 मील प्रति घंटा आंकी गई है। इसमें उन की यात्रा के बीच का विश्राम काल भी शामिल है।

प्रसिद्ध जन्तु विज्ञानी डा. केनाफिग्न ने पक्षियों और छोटे जीव जन्तुओं के क्रिया कलापों का लम्बे समय तक अध्ययन करने के बाद जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह निश्चित ही आश्चर्यजनक है, उनका कहना है कि मनुष्य घड़ी के सहारे समय का और कम्पास के सहारे दिशा का ज्ञान प्राप्त करता है। आकाश के सूर्य, चंद्र तारे आदि भी दिशा का ज्ञान कराने में सहायक होते हैं परन्तु छोटे जंतुओं के पास इस प्रकार के कोई उपकरण नहीं होते फिर भी वे अपनी आवश्यकता के अनुरूप दिशा और समय संबंधी ज्ञान अपनी अतींद्रिय चेतना के आधार पर प्राप्त करते हैं। इसे उन्होंने बायोलोजिकल क्लोक कहा है जो कि “सरकेडियन रिदम” के आधार पर चलती है।

उत्तरी ध्रुव में असह्य सर्दी की ऋतु आने से पूर्व उसे क्षेत्र के हंस तथा मुर्गाबियाँ उड़कर उष्ण कटिबन्ध के देशों में चल देती हैं। साइबेरिया के पक्षी भारत में उड़ आते हैं और ऋतु प्रतिकूलता दूर होते ही अपने-अपने देशों को लौट जाते हैं। प्रशाँत-सागर की सालमन मछली बसंत ऋतु आते ही अपने उपयुक्त नदियों में उलटी चल देती है और प्रजनन कार्य में निरत होती है। अंडे वह समुद्र में नहीं नदियों में ही देती है।

कैलीफोर्निया और औरेगोन के निकट समुद्र तट पर पाई जाने वाली मछली बसंत ऋतु के शुक्ल पक्ष में ही अंडे देती हैं। सामोन द्वीप में पलोले नाम का कीड़ा अक्टूबर नवम्बर की खास तारीखों को ही अंडे देता है। किसान खेती संबंधी सब काम छोड़ कर उन अंडों को साफ करने में लग जाते हैं और अपनी खेती की रक्षा करते हैं।

समुद्र में नियत तिथियों पर ज्वार भाटे आते हैं और कुछ समय के अन्तर से जल हमेशा ऊंचा नीचा होता रहता है। लगता है समुद्र को भी घड़ी घंटों और तिथियों की जानकारी किसी ने सिखा दी हो। कलियों और पुष्पों का रात में सिकुड़ना तथा दिन में फैलना रात में कम और दिन में अधिक बढ़ना इस बात का प्रतीक है कि उन्हें समय का ज्ञान रहता है। पक्षियों का शाम होते ही घोंसले में लौटना और प्रभात होते ही उड़ जाना प्रातः सायंकाल का चहचहाना बताता है कि मानों उन्होंने कलाई में घड़ी बाध रखी हो। उड़ते हुए अमुक दिशा में जाना और लम्बी उड़ान के बाद बिना भटके अपने घर घोंसले पर आ जाना इस बात का प्रमाण है कि उनका दिशा ज्ञान असंदिग्ध होता है, जिसके आधार पर वे आकाश में भी अपना मार्ग निश्चित करते हैं। मनुष्य को समय ज्ञान के लिए घड़ी चाहिए और दिशा ज्ञान के लिए कम्पास, पर इन पक्षियों की चेतना में ही मानों प्रकृति ने घड़ी और कंपास जैसी क्षमता सहज ही जोड़ दी हो।

इस संदर्भ में पक्षितीर्थ का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा महावलिपुरम् से मद्रास जाते समय कोई सात मील आगे एक छोटा सा नगर है पक्षितीर्थम्। यहाँ पहाड़ी पर एक मंदिर स्थित है जिसमें अनेक देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। मंदिर के पिछवाड़े लगभग 150 फीट लम्बी और पंद्रह फीट चौड़ी ढलवाँ चट्टान है। इस पर 11-12 बजे के बीच दो सफेद गिद्ध पक्षियों का जोड़ा नित्य ही मन्दिर का प्रसाद ग्रहण करने आता है। प्रतिमाओं के दर्शन से कहीं अधिक उत्सुकता दर्शकों को इन पक्षियों को देखने की होती है इसलिए वे बड़ी संख्या में दस बजे तक इकट्ठे हो जाते हैं। दर्शकों की भारी भीड़ के बीच मन्दिर का पुजारी दोनों हाथों में दो प्रसाद की कटोरियां लेकर खड़े हो जाते हैं। सफेद गिद्ध नियत समय पर निश्चित मुद्रा में आते हैं और चोंच में प्रसाद भर कर पुनः आकाश में उड़ जाते हैं।

इस तरह के अनेकों उदाहरण और प्रमाण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि काल और दिशा के संबंध में अन्य प्राणधारी अत्यंत अनुशासन प्रिय हैं वे प्रकृति प्रेरणा की तनिक भी अवज्ञा नहीं करते फलस्वरूप उनकी जीवन प्रक्रिया सहज ढंग से चलती रहती है। यह मनुष्य ही है जिसने नियमित दिनचर्या की उपेक्षा करने की रीति-नीति अपना रखी है। उसका परिणाम अस्वस्थ होने, दुःखी रहने, पीड़ा और व्यथा अनुभव करते रहने के रूप में मिलता है। यह ध्रुव सत्य है कि जो प्रकृति प्रेरणा की अवज्ञा करेगा उसे उसका दंड भोगना ही पड़ेगा।


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