जीवन संग्राम विशुद्ध धर्म युद्ध है!

March 1978

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जीवन एक संग्राम है। उसमें प्रतिपक्ष के अनेकों व्यक्ति, अस्त्र और व्यवधान सामने आते हैं। इनसे निपटने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। युद्ध मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों की−खेल मैदान में कौशल दिखाने वाले खिलाड़ियों की−मनःस्थिति से कम में जीवन संग्राम में लड़ना और विजय पाना कठिन है। समस्याएँ स्वाभाविक हैं उनका हल निकालने से ही हमारे पौरुष, साहस और कौशल का संवर्धन होता है। आवश्यकताएँ, उनकी पूर्ति साधन जुटाने में कठिनाई, अवरोधों का समाधान इसी चक्र पथ पर सामान्य जीवन की धुरी घूमती है। हर रोज पेट में भूख लगती है−यह एक दैनिक समस्या है। इसलिए हर दिन पुरुषार्थ करना पड़ता है। वह सरल नहीं कठिन उलझन भरा होता है। शरीर के सभी छोटे बड़े छेद मल उत्पन्न करते हैं। उन्हें स्थानान्तरित करने की समस्या का समाधान किया जाय तो नारकीय दुर्गन्ध और सड़न से घिर जाना पड़ेगा। ऐसी−ऐसी अनेकों गुत्थियाँ सामने आती हैं और वे सूझ−बूझ एवं पौरुष को चुनौती देकर अपना समाधान चाहती हैं।

कठिनाइयों से सुरक्षित−असफलताओं से रहित−सरल एवं सुविधा सम्पन्न जीवन कदाचित ही किसी अभागे को उपलब्ध हुआ हो। जिसे वैसा अवसर मिला होगा समझना चाहिए उसे अदक्ष बने रहने का अभिशाप मिला है। गुजारा भले ही चैन से कर लिया जाय पर आराम की जिन्दगी प्रतिभा से वंचित ही रहती है। इतना महंगा चैन जिसे खरीदना पड़ा, समझना चाहिए कि वह हर दृष्टि से घाटे ही घाटे में रहा। ईश्वर को अपने ज्येष्ठ पुत्र पर ऐसी लानत बरसना पसन्द नहीं, इसलिए उसने उसे समस्याओं युक्त किन्तु साथ ही उन्हें सुलझाने में समर्थ जीवन प्रदान करके संसार क्षेत्र में पग−पग पर संघर्ष करने के लिए भेजा है।

जो उलझनों से डर कर भागते हैं। उनके लिए मुँह छिपाने के लिए कहीं जगह है नहीं। घर छोड़कर जंगल में चले जाने पर वहाँ की समस्याएँ घर से भी अधिक हैं। वहाँ मात्र शरीर निर्वाह के साधन जुटाने और सुरक्षा का प्रबन्ध करने में इतना श्रम और मनोयोग खर्च करना पड़ता है जितने में पूरे परिवार का गुजारा भली प्रकार हो सकता है। भीड़ में रहने की अपनी कठिनाई है, उसमें बेचैनी होती है किन्तु एकाकी रह कर देखा जाय तो उसे काटना और भी कठिन पड़ता है। एकान्त जीवन में चैन की कल्पना तभी तक रहती है जब तक कि उस प्रकार रहने का अवसर नहीं मिला है जिसे भी नितान्त एकाकी रहना पड़ा है उसी को वहाँ से भाग कर फिर भीड़ में आना पड़ा है। वस्तुतः भारी भीड़ और नितान्त एकाकीपन दोनों ही ‘अति’ वादी है। नितान्त चैन और निरन्तर संघर्ष भी अप्रिय लगते हैं किन्तु मध्यवर्ती जीवन में समस्याएँ रहनी ही चाहिए और उनके समाधान में बुद्धि कौशल एवं श्रम पराक्रम को संलग्न रहना ही चाहिए। इसे कम में उन सद्गुणों का विकास हो ही नहीं सकता जो पर्वतोमुखी प्रगति के आधार भूत साधन हैं। तथ्यों को समझा जाना चाहिए और विश्व के क्रीड़ा प्रांगण में अपनी कुशलता का परिचय देने के लिए उमंग भरे खिलाड़ी की भूमिका निभाने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। संसार एक रंग मंच है उस पर नाटक के आकर्षक पात्र की तरह हमें अपना प्रभावोत्पादक खेल खेलना चाहिए।

कठिनाइयों से डरना और उलझनों से घबराना बेकार है। घबराहट में इतना ही हो सकता है कि प्रस्तुत उत्तरदायित्व को छोड़ कर चैन की तलाश में, कहीं बच निकलने की जगह तलाश करें और मोर्चा छोड़कर भाग खड़े हों। ऐसा किया तो जा सकता है पर जिस प्रयोजन के लिए यह सस्ती तरकीब अपनाई गई थी वह पूरी हो नहीं सकेगी। एक उलझन को सुलझाने के लिए दस नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा जो अपरिचित होने के कारण और भी अधिक भारी पड़ेंगी।

प्रगतिशील जीवन के लिए संघर्ष आवश्यक है। दूसरों को सताने के लिए आत्म रक्षा और उपार्जन के लिए जूझना पड़ता है। किसान को जमीन से, विद्यार्थी को पुस्तकों से, श्रमिक को मशीनों से और विचारक को समस्याओं से जूझना पड़ता है। सृजन के लिए पति−पत्नी को मिलकर मनोयोगपूर्वक संयुक्त प्रयत्न करना पड़ता है। सन्तानोत्पादन से लेकर गृहस्थ की सुव्यवस्था तक इसी सृजनात्मक संघर्ष का प्रतिफल उनके सामने आता है। नवजात शिशु को भ्रूण लोक से उतर कर भूलोक में अवतरित होने के लिए चक्रव्यूह वेधन की तरह प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। इस संघर्ष की प्रखरता का परिचय प्रसव वेदना के रूप में जननी अपने अनुभव से बता सकती है। हृदय, आमाशय, आँतें, जिगर, गुर्दे, मस्तिष्क आदि भीतरी अवयव बिना क्षण भर विश्राम लिए जीवित रहने के लिए मृत्यु को दूर भगाने के लिए कितना परिश्रम करते हैं इसे कोई भी शरीर विज्ञानी उन अवयवों की गतिविधियों का वर्णन करते हुए बता सकता है। रक्त से श्वेत जीवाणुओं को विजातीय द्रव्य और विषाणुओं से जूझने के लिए हर घड़ी कमर कस कर मोर्चे पर खड़ा रहना पड़ता है। इसमें तनिक भी शिथिलता आने पर दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु के भयानक आक्रमण आरम्भ हो जाते हैं और जीवन की स्थिरता में सन्देह उत्पन्न होने लगता है। मस्तिष्क को तो भीतर और बाहर की अगणित समस्याओं के इतने अधिक समाधान एक साथ करने पड़ते हैं कि शतविधानियों जैसी उसकी तत्परता देखकर चकित रह जाना पड़ता है।

अर्जुन लड़ाई से बचना चाहता है। कृष्ण उसे समझाते हैं। ऐसा करके भी वह चैन से नहीं बैठ सकेगा। पाप को हम न मारे तो निर्विरोध स्थिति पाकर प्रबल हुआ पाप हमें मार डालेगा। इसलिए जीवित रहने पर सुख और मरने पर स्वर्ग का लाभ मिलने का उभय−पक्षीय लाभ समझाते हुए उसे कमर बाँधकर उठ खड़े होने का उद्बोधन करते हैं। जब आना−कानी की स्थिति देखते हैं तो अनुशासनात्मक निर्देश करते हैं कि “युद्धाय कृत निश्चय” निश्चित रूप से युद्ध ही करना चाहिए।

समझाने और सज्जनता की नीति सदा ही सफल नहीं होती। प्रेम से सुधार का उद्यान उत्पादन उर्वरा भूमि में ही सम्भव होता है। दुष्टता को भय की भाषा ही समझ में आती हैं। उसे और किसी उपाय से सही राह पर चलने के लिए सहमत नहीं किया जा सकता। नीति शास्त्र में साम की तरह दंड को भी औचित्य की ही संज्ञा दी गई है।

भगवान परशुराम का अवतार कहे जाने वाले गुरु गोविन्दसिंह ने अपने समय की दुर्दशा का कारण जन समाज की आन्तरिक भीरुता को देखा। उनका निष्कर्ष कि जब तक जन आक्रोश न जागेगा। शौर्य और साहस की पुनः प्राण प्रतिष्ठा न होगी। तब तक पददलित स्थिति से उबरने का अवसर न मिलेगा। उन्होंने संघर्ष के लिए जनमानस को ललकारा। भगवान को ‘असिध्वज’ और महा लौह नाम दिये। असिध्वज वे भगवान हैं जिनके झण्डे पर तलवार का निशान है। महा लौह वे भगवान हैं जिनकी प्रतिभा तलवार या भाले के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है, सबसे पहले भगवान ने तलवार बनाई इसके बाद और कुछ सृजा। प्रार्थना करते हुए वे इन दो नामों वाले भगवान का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं−

जो हो सदा हमारे पच्छा। श्री ‘असिधुज’ जी करिहहु रच्छा। महाकाल रख वार हमारे। ‘महा लौह’ में किंकर धारे॥

ब्राह्मण धर्म की यज्ञीय परम्परा के पाँच प्रधान उपकरणों में जहाँ घृत होमने के स्रुवा की आवश्यकता है वहाँ सुरक्षा के शस्त्र ‘स्फ्य’ की भी उतने ही आदर और भक्ति भाव के साथ स्थापना की जाती है। ‘स्फ्य’ तलवार का प्रतीक है। दुष्टता से बचाव किये बिना सज्जनता की प्राण रक्षा हो नहीं सकती। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए धनुर्धारी राम लक्ष्मण खड़े थे। संरक्षण की यह परम्परा धर्मानुष्ठानों में अभी भी कार्यान्वित होती है।

मध्यकालीन अतिवादी दयालुता के उत्साह में लोगों को ऐसी अहिंसा का पाठ पढ़ाया जिसके फलस्वरूप अत्याचार सहते रहने की भीरुता को ‘क्षमा’ का आवरण ओढ़ा दिया गया। संसार को माया मिथ्या कह कर प्रस्तुत समस्याओं को उलझी छोड़कर वैराग्य की आड़ में जा छिपने के लिए कहा गया। क्षमा का उद्देश्य और स्वरूप लोगों ने समझा ही नहीं, मात्र आततायी के सामने नत मस्तक हुए खड़े रहने और उसे कुछ भी करने देने की छूट को क्षमा−अहिंसा आदि के रूप धर्म धारणा के अन्तर्गत जन मानस में उतार दिया गया। फलतः धर्मोपदेश के लाभों से समाज लाभान्वित न हो सका।

भगवान के अवतरण में दो प्रयोजन हैं और वे दोनों ही एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण हैं। एक धर्म की स्थापना दूसरा अधर्म का नाश। यहाँ औचित्य के अभिवर्धन और अनाचार के उन्मूलन को समान महत्व दिया गया है। भगवान के सभी अवतारों में इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए अनेकानेक क्रिया कलाप सम्पन्न हुए हैं। अवतारों की लीलाओं में एक प्रकार की नहीं वरन् इन दोनों ही गतिविधियों का समुचित समावेश है। धर्म श्रद्धा के साथ साथ अधर्म के प्रति घृणा का समन्वय रहना चाहिए अन्यथा एक पक्षीय प्रतिपादन लाभ के स्थान पर हानि कारक परिणाम ही प्रस्तुत करता रहेगा। अवतारों की कथा गाथाओं में धर्म प्रेमी जिज्ञासुओं को इस समन्वय धर्म को अपनाने की शिक्षा एवं प्रेरणा दी गई है।

मध्यकालीन एकांगी भक्ति भावना में निराशाजन्य कातरता का बाहुल्य था। परावलम्बन का−याचना अनुग्रह का−भाव ही एक तथाकथित भक्ति में तरह तरह के वेश बना कर मन बहलाने और मन समझाने का प्रयोजन पूरा कर रहा था। उसमें प्रेमयोग जैसी कोमल भावनाओं के समावेश को जितना लाभ था उससे अधिक परावलम्बन का अपने को दीन अकिंचन मानने का भाव भी था। भक्ति के पवित्र नाम का वास्तविक तात्पर्य न तो समझा गया और न समझाया गया वरन् उस जंजाल में उलझ कर दीनता का परावलंबन का−पराभव अनजाने ही गले में बाँध लिया गया। समाज की दीर्घ कालीन दुर्गति का एक बड़ा कारण यह भी रहा है।

नये युग के सन्तों में समर्थ रामदास, गुरु गोविन्दसिंह स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, लोक मान्य तिलक महात्मा गांधी जैसे महा पुरुषों की नई पीढ़ी सामने आई। उसने अपने तीखे विचारों से कर्मयोग के, अनीति विरोधी संघर्ष के स्वर पैने किये और प्रसुप्त जातीय जीवन को उठाकर फिर एक बार तन कर खड़ा होने की स्थिति में ला दिया। अमेरिका से लौटने पर स्वामी विवेकानन्द ने धार्मिक जनता का उद्बोधन करते हुए कहा था−“सोये हुए देवताओं को सोने दो और जगे हुए राष्ट्र देवता की आराधना में लग जाओ यही परमात्मा की सबसे बड़ी आराधना है। ऐसे ही मिलते−जुलते उद्बोधन अन्य प्रगतिशील लोकनायकों ने दिये। उसी का प्रतिफल था कि धर्म क्षेत्र सहित जीवन के समस्त क्षेत्रों में नव जीवन का संचार हुआ और उसका प्रतिफल राष्ट्रीय स्वाधीनता के रूप में सामने आया।

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