ऐसी धरती की कल्पना तो कीजिये!

March 1978

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जिसमें पृथ्वी में स्त्रियाँ तो होंगी किन्तु पुरुष नाम की कोई सत्ता नहीं होगी। तब फिर बेचारी नारी अकेली सृष्टि संचालन का कार्य किस तरह चला पायेगी? अधिक से अधिक एक शताब्दी अपनी जीवन ज्योति जलाये रख सके। वह बुझ गई तो आज की धरती की भी वही स्थिति होगी जो निर्जन और बीहड़ चन्द्रमा, मंगल या मानव विहीन किसी भी अन्य ग्रह नक्षत्र की।

बात न तो हँसी की है न पागल प्रलाप। आधुनिक सभ्यता, प्रगति और मनुष्य के हाथ मिट्टी न लगे− उसे कम से कम शारीरिक श्रम करना पड़े−यह धारणा ही उक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करने जा रही हैं। औद्योगीकरण के नाम खड़े किये जा रहे बड़े−बड़े कल कारखाने, तीव्र गति के निरंतर बढ़ते वाहन तथा अणु आयुधों सहित निरंतर बढ़ रहीं युद्ध की विभीषिकाएं−यह सब निरंतर वातावरण को विषैली गैसों से धरती जा रही हैं। पर्यावरण दूषण की समस्या न केवल वायु मंडल में छाती चली जा रही हैं अपितु जीवन के लिये अत्यावश्यक जल को भी विषाक्त बनाती चली जा रही हैं। जैसे−जैसे यह विष बढ़ता जा रहा है घुटन, स्वास्थ्य में गिरावट और अनेक तरह की नई तथा असाध्य बीमारियों के आगे अब वह अनुवांशिकी को भी नष्ट करने पर तुल गई है। वैज्ञानिक और विचारक इन तथ्यों को लेकर बुरी तरह चिन्तित हैं। बचाव के उपायों का अनुसंधान भी चल रहा है पर मूल कारण नष्ट करने की अपेक्षा उन्हें और बढ़ावा मिलता रहेगा तो अकेले चिन्ता करने मात्र से क्या कुछ बन पड़ेगा।

मिलान (इटली) के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो0 कार्लो सिर तोरी ने अपनी वैज्ञानिक शोधों के आधार पर बताया है कि जल्दी ही वह युग आ रहा है; जब धरती पर से पुरुष सत्ता का नामों निशान मिट जायेगा। यह इस लिये संभावित है कि पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि उससे भ्रूण में नर लिंग निर्धारित करने वाले गुण सूत्र (क्रोमोसोम) नष्ट हो जाते हैं। ऐसा इसलिये होता है कि समूचे भ्रूण में यह गुण सूत्र उतने अधिक कोमल तथा संवेदन शील होते हैं कि वे वायु प्रदूषण की निर्धारित सीमा से अधिक सहन करने में असमर्थ होते हैं। जिन देशों और क्षेत्रों में दूषण का घनत्व बढ़ा है वहाँ यह संकट अभी से दिखने लगा है और वहाँ अभी से आने वाली नई संतति यह विकार लेकर जन्म ले रही है। अभी तो स्थिति उनकी शरीर रचना में अनियमितता, जन्म जात अपंगता के ही दृश्य उपस्थित कर रही है पर एक समय वह भी आयेगा जब वे धरती पर जीवित उपस्थित होने से ही मना कर देंगे।

एक ही उपाय है मनुष्य शहरी करण की प्रवृत्ति का शिकार होने से बचे, औद्योगीकरण का बायकाट करे तथा प्राकृतिक जीवन की ओर लौटे। दूषण का सामना करने वाले साधन−यज्ञ वृक्ष रोपण, पुष्पोद्यान के प्रचलन में रुचि ली जाये और उन्हें मानवता की रक्षा के पुण्य के रूप में महत्ता प्रदान की जाये। यदि वह नहीं कर सकते तब भी तो उसी नृशंस कांड के लिये तैयार रहना होगा जिसकी आशंका डॉ0 सिरतोरी ने व्यक्त की है।

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