ईश्वर दर्शन इस प्रकार होता है।

March 1978

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आँख से, इन्द्रियों से प्रत्यक्ष ईश्वर का दर्शन करना हो तो उसे व्यक्ति के अन्तरंग में छिपी हुई आत्म−ज्योति के रूप में अथवा इस जगत की जड़ चेतन सत्ता में आलोकित देखा जा सकता है। यही विराट् ब्रह्म है जिसका दर्शन गीता के अर्जुन ने किया था। यशोदा को बालकृष्ण ने इसी ब्रह्म स्वरूप की झाँकी कराई थी। कौशल्या ने पालने में झूलते हुए राम में उसे देखा था। काकभुसुण्डि की ईश्वर दर्शन आकांक्षा भी इसी प्रकार पूरी हुई थी। व्यक्ति पर शरीर और मन पर छाये कषाय−कल्मषों के अन्तर को चीर कर यदि उसकी भूल सत्ता में ओत−प्रोत सत्य, शिव और सुन्दर को देखा जा सके तो नर के भीतर नारायण को क्रीड़ा कल्लोल करते हुए देखा जा सकता है। इसी प्रकार विश्व सत्ता की अन्तरात्मा−ब्रह्म चेतना की अनुभूति हो ही सके तो आँखों के सामने फैले हुए इस विराट् में परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। रामायणकार ने “सियाराम मय सब जग जानी” के रूप में इसी विराट् के दर्शन किये थे और ‘करों प्रणाम जोरि जुग पानी’ की भाव−भरी श्रद्धांजलि प्रस्तुत की थी। यही मार्ग दूसरों के लिए भी है। यदि ईश्वर को प्रत्यक्ष ही देखना है, व्यक्ति की अन्तरात्मा में और विराट् की विश्व चेतना में उसकी झाँकी हो सकती है। इसके लिए दिव्य चक्षु चाहिए। दिव्य चक्षु अर्थात् वह दार्शनिक दृष्टिकोण जो कलेवर के भीतर प्रवेश करके अन्तःस्थिति की सूक्ष्मता को समझ सकने में समर्थ हो। ईश्वर दर्शन के लिए यह आधार आवश्यक है। कारण कि उसकी स्थूलता तो पंच तत्वों के रूप में ही दीख पड़ेगी। सत् चित् आनन्द तो सूक्ष्म ही है उसे आँखों से नहीं आत्मानुभूति से ही अनुभव किया जा सकता है। दिव्य चक्षु इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।

शास्त्र ने इस विराट् ब्रह्म का वर्णन कितने ही अलंकारिक रूप में किया है। ऋग्वेद 10। 90। 12 “ब्रह्मणोस्य मुख मासीत् वाहु राजन्य कृत मन्त्र में चारों वर्णों को ब्रह्म शरीर कहा है। ऋग्वेद 10। 90। 1 में उसका उल्लेख “सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् “ के रूप में मिलता है। उसे सहस्र अनन्त सिर, आँख, हाथ, पैर वाला बताया गया है। उसने न केवल मनुष्य को वरन् समस्त पृथ्वी को−समूचे ब्रह्माण्ड को घेर रखा है−”सः भूमिं विश्वतः कृत्वा” जिस प्रकार शरीर के भीतर अगणित कोशाओं और तन्तुओं का अस्तित्व और बाहर बाल रोम, कूप आदि का विस्तार है उसी प्रकार उस विराट् ब्रह्म के अवयवों की तरह अनेकानेक प्राणी एवं पदार्थ देखे जा सकते हैं।

यह तो हुआ उसका स्वरूप निर्धारण अब उसकी अनुभूति कैसे हो? यह प्रश्न सामने आता है। खाद्य पदार्थों को देखने भर से तो काम नहीं चलता। उनके चखने, चबाने और उदरस्थ करने से ही बात बनती है। खाद्य जब पेट में जाकर पचता और रक्त मांस आदि के रूप में शरीर का अंग बनता है तभी उससे बल एवं जीवन की प्राप्ति होती है। ईश्वर को दिव्य चक्षुओं से देख लेने भर से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। ईश्वर दर्शन का उद्देश्य उस परम सत्ता का जीवन सत्ता में समन्वय होने पर ही पूरा होता है। देखने के लिए तो विराट् ब्रह्म की वे तस्वीरें बाजार से खरीदी जा सकती हैं, जिसमें कृष्ण द्वारा गीता में वर्णित विराट् का अलंकारिक चित्रांकन किया गया है, पर उसे देख लेने भर से किस का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा।

जिस समय मनुष्य को यह अनुभूति होती है कि ‘ईश्वर मेरे अन्दर है; उसी समय वह ईश्वर रूप हो जाता है।’ इस तथ्य के प्रतिपादन में ऋग्वेद 6। 47।78 की साक्षी है−”इन्द्रोमायाभिः पुरुरूप ईयते” ऐसा मनुष्य इस तथ्य को जान लेते भर से सन्तोष नहीं कर सकता उसका आचरण एवं चिन्तन भी वैसा ही परिष्कृत हो जाता है जैसा कि ईश्वर के साथ निरन्तर रहने वाले का होना चाहिए। पारस को छूकर लोहे का सोना हो जाना−चन्दन के समीपवर्ती पादपों में सुगन्ध आना, अग्नि की समीपता से उष्णता बढ़ना−समीपवर्ती को छूत लगना यही सही है तो कोई कारण नहीं कि जिसे अपनी अन्तरात्मा में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव होता है वह उसी स्तर का बनने में क्यों असफल रहेगा। हाँ, अन्तरात्मा में वैसी अनुभूति न होती हो। जीभ, कान और मस्तिष्क तक ही आत्म−ज्ञान की विडम्बना उलझकर रह गई हो तो बात दूसरी है।

उस ईश्वर ने अपनी सत्ता को टुकड़े−टुकड़े करके सर्वत्र बखेर रखा है। यह बिखराव ‘अनेक धा’ और उसका समन्वय ‘एक धा’ कहा गया है। अथर्व 10। 9। 8 में कहा गया है−“एवं यदंगं अकृणोत्सहस्रधा।” अर्थात् परमेश्वर ने अपने एक ही अंग को अनेक टुकड़ों में काटकर बखेर दिया। “एकं अंग सहस्रधा अकृणोत्” में भी इसी तथ्य की पुनरावृत्ति है।

ईश्वरानुभूति की स्थिति का विवेचन करते हुए यजुर्वेद 40। 6 में गीता के एक श्लोक से मिलता−जुलता मन्त्र आता है।

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति। सर्वं भूतेषु चात्मानं, ततो न विचित्सति॥

अर्थात्−जो सब प्राणियों को अपने में और अपने को सब प्राणियों में देखता है। उन्हें अपने ही समान मानता है, उसे अज्ञानान्धकार में नहीं भटकना पड़ता।

यही अद्वैत का प्रतिपादन है। हमें दूसरों से वही व्यवहार करना चाहिए; जो उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। यह नीति वचन इसी आत्मानुभूति की ओर इंगित करता है कि हमारी आत्मीयता शरीर परिवार तक सीमित न रहकर अन्यान्यों तक बढ़ती विकसित होती चली जायं। सब अपने लगने लगें और अपने भीतर अन्यान्यों की उपस्थिति परिलक्षित होने लगे। जिस प्रकार शरीर एवं परिवार को अपना मान कर उनकी सुविधा सुरक्षा एवं उन्नति का ध्यान रखा जाता है, वैसे ही भाव व्यापक होते−होते देश, धर्म, समाज की सीमाओं को पार करते−करते प्राणिमात्र तक फैल पड़े तो समझना चाहिए कि नर ने नारायण की−आत्मा ने परमात्मा की−पुरुष ने पुरुषोत्तम की−जीव ने ब्रह्म की−स्थिति प्राप्त कर ली। इसी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने के उपरान्त आत्मा मोह आवरणों से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा गया है। संकीर्ण स्वार्थपरता ही माया है। वासना, तृष्णा, अहंता और उद्विग्नता के बन्धन ही भव बन्धन कहलाते हैं और इन्हीं नागपाशों में जकड़ा हुआ प्राणी विभिन्न प्रकार के शोक सन्ताप सहता है। यह टूटने लगें तो समझना चाहिए कि जीवन मुक्त होने का परम लक्ष्य प्राप्त हो गया। आत्मा के निर्मल और व्यापक स्वरूप का आभास होने लगे तो समझना चाहिए कि आत्म−साक्षात्कार का−ईश्वर दर्शन का−लक्ष्य पूरा हो रहा है।


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