दस दिवसीय साधना सत्र तीर्थ-निवास

March 1978

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यह सही है कि मनस्वी व्यक्ति वातावरण बनाते हैं, पर यह भी एक सत्य है कि वातावरण मनुष्यों को बनाता है। मनस्वी हर कोई नहीं होता। आत्म−निर्माण की क्षमता भगवान ने सबको दी है, पर उसका उपयोग कितने कर पाते हैं? अधिकांश को पानी के बहाव में−हवा के प्रवाह में बहते ही देखा जाता है। छुट−पुट घटनाएँ मनस्वी व्यक्तियों द्वारा प्रखरता प्रकट करने और प्रतिभा का परिचय देने की भी आती हैं। ऐसे लोग महामानव कहे जाते हैं। संसार उनसे प्रकाश ग्रहण करता है−प्रेरणा लेता है और नमन करता है। इतने पर भी जन−साधारण के लिए वैसा सम्भव नहीं होता कि मान्य आदर्शों के अनुरूप अपने आप को ढाले। प्रतिकूल वातावरण को चीरते हुए ऊँचा उठे। ऐसा तो अपनी प्रचण्ड शक्ति से पृथ्वी के वायु मण्डल को चीरते हुए अन्तरिक्षीय यात्रा पर निकलने वाले तेजस्वी राकेट ही कर पाते हैं। सर्वसाधारण को तो वातावरण ही कठपुतली की तरह नचाता और साँचे की तरह ढालता चला जाता है। वातावरण और व्यक्ति में किस की वरिष्ठता है और किसकी कनिष्ठता इसका सीधा उत्तर दे सकना कठिन है। मुर्गी में से अण्डा हुआ या अण्डे में से मुर्गी, इसका निर्णय कैसे हो? बीज से वृक्ष उपजा या वृक्ष से बीज उत्पन्न हुआ इसका क्या उत्तर दिया जाय? नर से नारी को उत्पन्न किया या नारी से पुरुष जन्मा। इसका सही निष्कर्ष निकालना शोधकर्त्ताओं तक के लिए कठिन है। दोनों ही पक्ष समान रूप से तर्क संगत है। व्यक्तियों से वातावरण और वातावरण से व्यक्तियों के बनने की बात भी समतुल्य और समकक्ष मानी जा सकती है। युग परिवर्तन के लिए परिष्कृत व्यक्तियों की नितान्त आवश्यकता है। इसके लिए उपयुक्त प्रशिक्षण की आवश्यकता सहज ही समझी जा सकती हैं। किन्तु यह भुला नहीं देना चाहिए कि उसी ढलाई के लिए उपयुक्त वातावरण की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

ऐसा प्रभावशाली वातावरण जो व्यक्ति को ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में समर्थ हो सकें, प्राणवान् व्यक्तित्वों की प्रचण्ड ऊर्जा से ही विनिर्मित होता है। प्राचीन काल में ऐसे सान्निध्य के लिए प्रत्येक विचारशील प्रयत्नशील रहता था और उसे लाभ को प्राप्त करने के लिए समय निकालने, खर्च करने एवं कष्ट सहने में भी संकोच नहीं करता था। प्राणवान व्यक्तियों के सम्पर्क में सुअवसर की अवधि तीर्थ निवास कही जाती थी। शान्ति कुञ्ज के साथ संलग्न दोनों अन्य आश्रम ब्रह्म वर्चस् और गायत्री नगर मिलकर गंगा, यमुना और सरस्वती का त्रिवेणी संगम बनते हैं। इस समन्वय को तात्विक दृष्टि से तीर्थ राज की ही समता दी जायगी।

सामान्य व्यक्तियों को परिष्कृत वातावरण में कुछ−कुछ समय तक रहने को प्राचीन काल में एक परम्परा प्रचलित थी, जिसे तीर्थ निवास कहते थे। कुछ समय तक लोग अपने परिवार सहित या अकेले-दुकेले जाकर रहा करते थे यह अवधि लम्बी नहीं होती थी तो भी उस स्वल्प काल में नये ढंग से सोचने नये ढंग का रहन−सहन अपनाने नई परिस्थितियों में रहकर नव जीवन के उपयुक्त उलट फेर करने की बात उतने ही समय में बहुत कुछ बन जाती थी।

अभी भी प्रयोग में त्रिवेणी तट पर लोग एक महीने या अधिक समय का ‘कल्पवास’ करते हैं। अपनी निजी झोंपड़ी बनाकर रहते हैं। कुम्भपर्व के अवसर पर भी इसी प्रकार की निवास व्यवस्थाएँ बनाकर लोग पहुँचते हैं। नासिक, उज्जैन, हरिद्वार, कुम्भ के पर्व प्रायः दो−दो महीने के होते हैं। उनमें साधु, सज्जन अपने−अपने परिकर के व्यक्तियों को बुलाकर एक जगह रखते हैं। उन्हें साधना कराते तथा सत्संग का लाभ पहुँचाते हैं।

तीर्थ यात्रा तो धर्म प्रचारक मण्डली द्वारा परिभ्रमण करते हुए जन−सम्पर्क के लिए सम्पन्न की जाती है। तीर्थ निवास इसके भिन्न है। उसमें सामयिक अवकाश निकाल कर थोड़े−थोड़े समय के लिए लोग वहाँ रहते हैं। प्राचीन काल के ऐसे अनेक उदाहरण कथा, पुराणों में भरे पड़े हैं, राजा दिलीप अपनी पत्नी समेत महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में जाते हैं और वहाँ रहकर बहुत समय तक गुरु की गौएं चराते हैं।

स्वास्थ्य लाभ के लिए उपयुक्त जलवायु के स्थानों में जाने और होने की चेष्टाएँ होती रहती हैं। बीमार पड़ने पर अस्पताल में भर्ती होने−इलाज कराने की आवश्यकता पड़ती है। तीर्थों का वातावरण किसी समय विशुद्ध रूप से मानसिक अस्पतालों जैसा−मनोवैज्ञानिक विद्यालयों जैसा था। वहाँ रहने वाले उस विशिष्टता सम्पन्न वातावरण में साँस लेते थे और सहज ही मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन का लाभ उठाते थे। मनीषियों के आश्रमों की नैतिक, बौद्धिक एवं भावना स्तर पर छाई हुई विकृतियों के निराकरण के लिए उपयुक्त उपचार करने वाले अस्पतालों से ही तुलना की जाती है। प्रशिक्षण से परामर्श और उपदेश से भ्रान्तियों के निराकरण और उपयुक्त मार्गदर्शन का प्रकाश मिलता था। अन्तर्मन में जमी हुई दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन के लिए साधनाएँ कराई जाती थीं। उन दिनों तीर्थ निवासी आज की तरह निरुद्देश्य इधर−उधर भटकते नहीं फिरते थे। वहाँ जाने के ठहरने के पीछे एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्य रहता था। साधारणतया मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन, मानसिक रुग्णता के निवारण से उसकी तुलना की जाती थी। निश्चय ही यह लाभ शारीरिक आरोग्य की तुलना में भी कहीं अधिक उच्चस्तरीय है फिर उस अवधि में सात्विक आहार−विहार व्रत उपवास एवं अन्य चिकित्सा उपचारों से स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान भी साथ−साथ ही मिल जाता है। तीर्थ निवास को काया कल्प का नाम दिया जाता था। अभी भी प्रयोग में एक महीने के लिए त्रिवेणी तट पर रहने वाले कल्पवासी कहे जाते हैं। उस निवास का नाम ‘कल्प वास’ है। कल्पवास को काया−कल्प का प्रयोग उपचार कह सकते हैं। आज वह सब चिह्न पूजा मात्र ही रह गया है, पर प्राचीन काल में उसमें वास्तविकता थी। उन दिनों निवास मात्र ही सब कुछ नहीं था वरन् वहाँ स्वा−ध्यान, सत्संग, मनन चिन्तन एवं साधना अभ्यास का अवसर मिलता था। उसमें स्थिति के परिवर्तन का समुचित अवसर मिलता था। लोग जिस स्थिति में जाते थे उसकी तुलना में अपना बाहरी और भीतरी स्वरूप बहुत कुछ बदल कर ही आते थे।

आत्मिक परिष्कार तथा आत्मोत्कर्ष के लिए अध्यात्म क्षेत्र में अनेक विशिष्ट साधनात्मक प्रयोगों का प्रचलन रहा है। जप, तप, ध्यान तथा अन्य योग साधनाओं के विधि−विधान इसीलिए है। अध्ययन, सत्संग, मनन, चिन्ता भी इसी के अंग रहे हैं। तीर्थों के संस्कारित वातावरण में इन सभी का प्रभाव और लाभ बढ़ जाना स्वाभाविक हैं। प्रखर साधन और समुचित वातावरण का संयोग सोने में सुहाग की उक्ति चरितार्थ करता रहा है।

शान्ति कुञ्ज में चलने वाले दस−दस दिवसीय जीवन साधना सत्रों की तुलना प्राचीन काल की तीर्थ यात्रा एवं तीर्थ निवास प्रक्रिया के साथ करनी चाहिए। उन सत्रों में सभी शिक्षार्थियों को नौ दिन का एक गायत्री अनुष्ठान करना होता है। साथ में ब्रह्म वर्चस् साधना से सम्बन्धित विशिष्ठ ध्यान धारणा का अभ्यास कराया जाता है। सोऽहम् का हंस योग−खेचरी मुद्रा का सोम पान, त्राटक द्वारा तृतीय नेत्र उन्मीलन की तीन साधनाएँ जप और ध्यान के अतिरिक्त हैं। इस प्रकार इन छोटे साधना सत्रों में भी ब्रह्म वर्चस् की उच्चस्तरीय साधना का उतना अंश मिला दिया गया है जो आरम्भिक साधकों को ठीक प्रकार हजम हो सके।

यह साधनाएँ सामान्य रूप से गूढ़ मानी जाती हैं। सामान्य साधकों की गति उनमें होना कठिन माना जाता है। सामान्य दृष्टि से यह मान्यता गलत भी नहीं हैं। गायत्री का जप अनुष्ठान ही लोग असाधारण मानते हैं, फिर विशिष्ट योग साधनाओं का उसमें समावेश किया जाना अनोखा−सा लगता ही है। लोग समझते हैं कि इनकी मात्र जानकारी भर प्राप्त की जा सकती है, कुछ उल्लेखनीय लाभ पाना सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन है। किन्तु अभ्यास तथा वातावरण के संयोग से अन्तःकरण को प्रभावित करने के विज्ञान की जानकारी जिन्हें हैं उनकी मान्यता भिन्न होती हैं।

साधना एवं तीर्थ वास के द्वारा अन्तःकरण को विशेष संस्कारों में रंगने की विशेष उद्देश्य ही सामने रहता था। जानकारियों का महत्व उस दृष्टि से उतना अधिक नहीं है। सिद्धान्तों की जानकारी तो सभी को जाती है, किन्तु अभ्यास तथा वातावरण के प्रभाव से बने हुए संस्कार अपना अलग ही महत्व रखते हैं। कुछ उदाहरणों से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ सकती है।

पशु वध के सम्बन्ध में विवेक स्पष्ट रूप से निषेधात्मक निर्णय देता है। हिंसा पाप है, जीव हत्या मानवी सम्वेदनाओं का हनन करती है, मांसाहार मनुष्य का स्वभाविक आहार नहीं है। आदि के सन्दर्भ में अनेक तथ्य एवं तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं। सहृदय व्यक्ति उसकी कल्पना भर से सिहर उठता है; किन्तु जिनमें पशुबलि के संस्कार होते हैं, वे उस जघन्य कृत्य को करते हुए इतने प्रसन्न होते हैं मानो देवताओं को तुष्ट करने के लिए इससे अधिक अच्छा ढंग और कोई नहीं है।

नर−नारी के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में भारत वासी बहुत सम्वेदनशील होते हैं। किसी की आबरू पर हाथ डालना, उसको तिलमिला देने, मारने मारने पर उतारू कर देने के लिए पर्याप्त है, किन्तु विदेशों में अभिभावक स्वतः अपनी युवा बेटियों को युवकों से सम्पर्क बनाने के लिए प्रोत्साहन देते हैं एवं सुविधाएँ प्रदान करते हैं। नशेबाजी नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से त्याज्य है, किन्तु जहाँ उसे देव पूजन का अंग माना जाता है वहाँ उसे प्रसाद मानकर ग्रहण करके लोग अपने को धन्य मानते हैं। सभा सोसाइटियों में विशिष्ट शिष्टाचार (एटीकेट) के रूप में प्रचलित सुरापान को लोग उत्साह पूर्वक अपनाते हैं।

इन सबके पीछे यह तथ्य कम महत्व रखता है कि यह सब कितने अंशों में उचित है अथवा कितना कठिन या आसान है। मुख्य आधार बन जाते हैं−तत्सम्बन्धी अन्तःकरण के लम्बे संस्कार तथा वातावरण में व्याप्त उत्साह उमंग। आध्यात्मिक उत्कर्ष की दिशा में भी यह तथ्य लागू होते हैं। संसार में रहकर आध्यात्मिक प्रगति बड़ी कठिन दुरूह लगती है, पर जागृत तीर्थों के विशिष्ट वातावरण में वही सहज स्वाभाविक लगने लगती है। दस दिवसीय शिविरों में सम्मिलित होने वाले विभिन्न प्रकृति के नये−नये व्यक्तियों को साधना क्षेत्र में तीव्र गति से आगे बढ़ते देखकर इस सिद्धान्त पर बरवश विश्वास करना पड़ता है।

तीर्थ स्थानों की विशिष्टता का एक पक्ष यह भी है कि उन क्षेत्रों में सम्पन्न हुई ऐतिहासिक सत्प्रवृत्तियों का वातावरण बहुत समय पीछे तक बना रहता है और वहाँ पहुँचने वाले उससे प्रभावित होते रहते हैं। हल्दी घाटी, चित्तौड़ का सती स्थल, जलियावाला बाग आदि स्थानों पर जो महान घटनाएँ घटीं उनका प्रभाव वहाँ पहुँचने पर पड़े बिना रह नहीं सकता। अयोध्या, मथुरा का महत्व राम और कृष्ण की लीला भूमि होने के कारण अभी तक बना हुआ है। अन्यान्य महामानवों से सम्बन्धित अनेक प्रेरणाप्रद तीर्थ जगह−जगह बने हुए हैं। वहाँ श्रद्धापूर्वक अनेक लोग पहुँचते हैं। भगवान बुद्ध के कार्यक्षेत्र में बने हुए स्मारकों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने संसार भर के बौद्ध आते हैं। काबा, यरुशलम आदि के सम्बन्ध में भी यही बात है यह सब इतिहास प्रसंग ही नहीं हैं। इसमें उन महामानवों, अवतारों के प्रचण्ड व्यक्तित्व अभी भी एक विशिष्ठ वातावरण के रूप में विद्यमान हैं।

शान्ति कुञ्ज एवं ब्रह्म वर्चस् क्षेत्र को युग परिवर्तन के लिए समुचित शक्ति अवतरण की दृष्टि से विशेष रूप से संस्कारित किया गया है। भूमि चयन से लेकर विशेष तप साधनात्मक प्रयोगों, चेतना के आह्वान आकर्षण की विशिष्ट शैलियों से उसे जागृत तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है। उसका लाभ वहाँ सत् प्रयोजन से साधना करने वाले हर साधक को सहज ही प्राप्त होता रह सकता है।

दस दिवसीय साधना सत्रों में मिलने वाला एक विशेष लाभ और भी है जिसकी महत्ता हर भारतवासी समझता है तथा जिसे पाने के लिए लालायित रहता है। वह है अनुभवी मार्गदर्शन, समर्थ, संरक्षण तथा सान्निध्य।

सत्संग और कुसंग की प्रशंसा निन्दा से शास्त्र भरे पड़े हैं। सत्संग की महिमा का तो इतना भावनापूर्ण उल्लेख है जिसे पढ़ने-सुनने पर अत्युक्ति की गन्ध आती है, पर विचार करने पर उस प्रतिपादन को तथ्यपूर्ण माना जायगा। इतिहास में इस बात के असंख्य प्रमाण हैं कि सामान्य मनःस्थिति और परिस्थिति के व्यक्ति किन्हीं महामानवों के सम्पर्क में आकर तेजी से अपने व्यक्तित्व को समुन्नत और परिष्कृत करते चले गये और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचे। यदि उन्हें वैसा अवसर न मिलता तो सम्भवतः वे उसी स्थिति में पड़े रहते जिसमें कि उनके अन्य साथी कुटुम्बी निर्वाह करते हुए जिन्दगी के दिन पूरे कर गये। इसी प्रकार ऐसी घटनाओं की भी कमी नहीं हैं जिनमें अच्छे, खासे, भले, चंगे मनुष्य कुसंग में फँसे और क्रमशः गिरते−गिरते पतन के भयंकर गर्त में जा गिरे। नई उम्र के किशोर और युवक प्रायः इसी कुचक्र में फँसकर अपना भविष्य अन्धकारमय बनाते देखे गये हैं। आवारागर्दी, गुण्डागर्दी, उच्छृंखलता, चोरी, नशेबाजी जैसी बुरी आदतों में भले घरों के बालकों को फँसते और अपना सर्वनाश करते बहुधा देखा जाता है। ऐसा क्यों हुआ है इसका पता लगाने पर यही बात समाने आती है कि कुसंग के फौलादी पंजों में फँसकर वे बाज द्वारा दबोचे हुए कबूतर की तरह विवश मनःस्थिति में कहीं से कहीं घिसटते चले गये हैं।

नारद के सम्पर्क से ध्रुव, प्रह्लाद, पार्वती, सावित्री आदि अनेक नर−नारियों ने ऐसी प्रेरणाएँ पाई जिनके सहारे वे असामान्य बन गये। बाल्मीकि, अंगुलीमाल, अजामिल, अम्बपाली जैसे ओछे जीवन भी किन्हीं प्रतिभाओं के प्रभाव से अपने में पूर्णतया परिवर्तन करके निकृष्ट से उत्कृष्ट बनने में समर्थ हुए। भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आकर असंख्यों को देवमानव बनने का अवसर मिला। गाँधीजी की निकटता और घनिष्ठता ने कितनों को ही युग पुरुष बनाया। वे अपने को धन्य बनाने और अपने समय को बदलने में सफल हुए। अरस्तु के द्वारा सिकन्दर का−चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त का−समर्थ रामदास द्वारा शिवाजी का−रामकृष्ण परमहंस द्वारा विवेकानन्द का−विरजानन्द द्वारा दयानन्द का−निर्माण हुआ था। यों इनमें अपनी मौलिक प्रतिभा भी थी, पर खराद पर चढ़ने से हीरे का मूल्य निखरता है। सत्संगति के अभाव में बहुमूल्य प्रतिभाएँ भी जहाँ की तहाँ पड़ी रहती और समाप्त होती देखी जाती है। मोती उत्पन्न करने का श्रेय सीप को ही मिलता है, पर स्वाति बिन्दु के सम्पर्क का लाभ न मिले तो उसकी सृजन शक्ति निरर्थक ही चली जाती है।

सत्संग की महत्ता इसी कारण है कि उससे न केवल विचार, सुनने परामर्श पाने का अवसर मिलता है, वरन् व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रहने वाली प्राण ऊर्जा की गर्मी पाने का भी लाभ मिलता है। निकटता से महत्वपूर्ण आदान−प्रदान सम्भव होते हैं।

मैस्मरेजम विज्ञान की सारी उपलब्धियाँ प्राण विद्युत के आदान−प्रदान से ही सम्बन्धित है। प्रयोग कर्त्ता अपनी प्राण विद्युत को बढ़ाने और एकाग्रता करने की साधना करता है। कष्ट निवारण−परिपोषण, मार्गदर्शन, परामर्श जैसे उद्देश्यों के लिए इस शक्ति का जिस पर प्रयोग किया जाता है वह लाभान्वित होता है। इसे माता द्वारा बच्चे को दूध पिलाने अथवा सम्पन्नों द्वारा जरूरतमन्दों की सहायता करने से समतुल्य कहा जा सकता है। मनुष्य की संचित सम्पदा से धन, बल, बुद्धि, प्रतिभा आदि की ही तरह एक महत्वपूर्ण सामर्थ्य प्राण शक्ति भी है। इसे अपनी प्रगति और दूसरों की भलाई के लिए अच्छी तरह प्रयुक्त किया जा सकता है।

प्राणशक्ति का उपार्जन तो उपयुक्त वातावरण में की गयी उपयुक्त साधनाओं से बड़ी मात्रा में सम्भव है ही, उसका अनुदान, संचार, हस्तांतरण भी अध्यात्म जगत का एक सर्वमान्य तथ्य है। प्रस्तुत 10 दिवसीय साधना सत्रों में इन दोनों ही प्रक्रियाओं का लाभ साधकों को मिलता रहा है तथा अब और भी अधिक प्रखरता से मिल सकेगा। व्यक्ति अपनी वृत्तियों को मात्र इतना नियन्त्रित कर ले कि प्राप्त अनुदानों को उपयोग ईश्वरीय मर्यादा के अनुकूल ही करे, उन्हें प्रतिकूल दिशा में न जाने दे, तो उसे प्रचुर शक्ति अनुदान मिलते देखा गया है। तीर्थवास, योग साधना, आध्यात्मिक प्रशिक्षण एवं दिव्यानुदान प्राप्त करने का संयुक्त अवसर देने वाले इन दस दिवसीय अल्पावधि शिविरों का लाभ व्यस्त रहने वाले व्यक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं।

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