दिवमारूहत तपसा तपस्वी

March 1978

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व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक बन्धन और सामाजिक संवेदन−तीनों अध्याय एक−एक कर दृश्यपटल पर घूमते जाते हैं। महाश्रमण महावीर के धर्मोपदेश उस प्रकाश की तरह हैं जिसमें इन तीनों के उज्ज्वल पृष्ठ ही नहीं कषाय−कल्मषों के कथानक भी एक के ऊपर एक उभरते चले आते हैं। मेघ अनुभव करते हैं कि तृष्णाओं, वासनाओं और अहंताओं के जाल में जकड़ा जीवन नष्ट होता चला जा रहा है, पर लिप्साएँ शान्त नहीं हो पा रही वरन् और अधिक बढ़ती हैं उनकी पूर्ति के लिये और अधिक अनैतिक कृत्य पापों की गठरी बढ़ रही है काल दौड़ा आ रहा है जहाँ से उपभोग का अन्त हो जायेगा शरीर को नाश कर देने वाला क्षण अब आया कि तब आया तब फिर पश्चाताप के अतिरिक्त हाथ कुछ लगने वाला नहीं। विषय वासनाओं के कीचड़ में फँसे जीवन को विवेक−ज्योति से देखने पर निज का जीवन ही अत्यधिक घृणास्पद लगा। मेघ ने उधर से दृष्टि फेर ली।

काम, क्रोध, मद, मोह, द्वेष, द्वंद्व, घृणा तिरष्कार अनैतिकता अवांछनीयतायें यदि यही संसार है तो इसमें और नरक में अन्तर ही क्या। कुविचारों की कुत्सा में झुलसते मायावी जीवन में भी भला किसी को शान्ति मिल सकती है। हमारे महापुरुष महावीर यही तो कहते हैं कि मनुष्य को आध्यात्मवादी होना चाहिये, उसके बिना लोक−जप सम्भव नहीं। मुझे तप का जीवन जीना चाहिये।

निश्चय अटल हो गया। श्रेणिक पुत्र मेघ ने भगवान् महावीर से मन्त्र दीक्षा ली और महाश्रमण के साथ ही रहकर तपस्या में लग गये?

विरक्त मन को उपासना से असीम शान्ति मिलती है। कूड़े से जीवन में मणि−मुक्ता की−सी ज्योति झलझलाने लगती है, मन वाणी चित्त अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं, साधक को रस मिलने लगता है सो मेघ भी अधिकांश समय उसी में लगाते। किन्तु आर्य श्रेष्ठ महावीर की दृष्टि अत्यन्त तीखी थी वह जानते थे रस−रस सब एक हैं−चाहे वह भौतिक हों या आध्यात्मिक। रस की आशा चिर नवीनता से बँधी है इसीलिये जब तक नयापन है तब तक उपासना में रस स्वाभाविक है किन्तु यदि आत्मोत्कर्ष की निष्ठा न रही तो मेघ का मन उचट जायेगा, अतएव उसकी निष्ठा को सुदृढ़ कराने वाले तप की आवश्यकता है। सो वे मेघ को बार−बार उधर धकेलने लगे।

मेघ ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था अब उन्हें रूखा भोजन दिया जाने लगा, कोमल शैया के स्थान पर भूमि शयन, आकर्षक वेषभूषा के स्थान पर मोटे वत्कल वस्त्र और सुखद सामाजिक सम्पर्क के स्थान राजगृह आश्रम की स्वच्छता, सेवा व्यवस्था एक एक कर इन सब में जितना अधिक मेघ को लगाया जाता उनका मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्वाकांक्षाएं सिर पीटतीं और अहंकार बार−बार आकर खड़ा होकर कहता−ओ रे मूर्ख मेघ! कहाँ गया वह रस जीवन के सुखोपभोग छोड़कर कहाँ आ फँसा। मन और आत्मा का द्वन्द्व निरंतर चलते−चलते एक दिन वह स्थिति आ गई जब मेघ ने अपनी विरक्ति का अस्त्र उतार फेंका और कहने लगे तात! मुझे तो साधना कराइये, तप कराइये जिससे मेरा अन्तःकरण पवित्र बने।

तथागत मुस्कराये और बोले−तात! यही तो तप है। विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक स्थिरता−यह गुण जिसमें आ गया वही सच्चा तपस्वी−वही स्वर्ग विजेता−उपासना तो उसका एक अंग मात्र है।

मेघ की आंखें खुल गई और वे एक सच्चे योद्धा की भाँति मन से लड़ने को चल पड़े।

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