हमारा मस्तिष्क भानमती का पिटारा

March 1978

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शरीर के यों सभी अंग महत्वपूर्ण हैं और अपना−अपना काम सम्भालने में उनकी उपयोगिता एवं क्षमता को अद्भुत ही कहा जा सकता है; तो भी सम्पूर्ण अवयवों में मस्तिष्क की गरिमा सर्वोपरि है। लगता है इसीलिए ईश्वर ने उसे शरीर कैलाश के सर्वोच्च शिखर पर शिवजी की तरह प्रतिष्ठापित किया है। उसके निवास के लिए खोपड़ी का ऐसा सुदृढ़ दुर्ग गढ़ा है; जिसमें चोट−फेंट से बचने की ही नहीं ऋतु प्रभाव से लेकर अनेकानेक प्रदूषणों और विकिरणों से भी सुरक्षित रख सकने की पूरी−पूरी क्षमता है। साथ ही इस दुर्ग की दीवारें बाहरी क्षेत्र के साथ ऐसे महत्वपूर्ण सम्पर्क साधे रहती हैं जो मस्तिष्क के लिए ही नहीं सम्पूर्ण शरीर के लिए भी अतीव उपयोगी है।

जन्म−काल में मनुष्य मस्तिष्क मात्र 12 ओंस का होता है, किन्तु पूर्ण यौवन आने पर वह प्रायः तीन पौण्ड भारी हो जाता है। वजन की तुलना में उसकी कार्यक्षमता असंख्य गुनी बढ़ जाती है। माइक्रो फिल्मों के माध्यम से विशालकाय ग्रन्थ छोटी−सी डिबिया में बन्द करके रखे जा सकते हैं। एक स्वस्थ और सुविकसित मस्तिष्क में प्रायः एक करोड़ ग्रन्थों में लिखी जा सकने जितनी सामग्री संग्रह करके रखी जा सकती है। आवश्यकता पड़ने पर इस क्षमता में सहज ही दूनी अभिवृद्धि भी की जा सकती है। किसी कारणवश आधा मस्तिष्क नष्ट हो जाए तो शेष आधे से भी पूरे का काम चल सकता है। एक हाथ, एक पैर, एक आँख वाले अनेकों मनुष्य होते हैं, इसी प्रकार किसी कारण एक नष्ट हो जाने पर दूसरा गुर्दा एवं फेफड़ा ही दोनों का काम अकेला ही करता रहता है। मस्तिष्क दो नहीं है। फिर भी उसका आधा भाग शेष आधे की पूर्ति करता रह सकता है। द्वितीय महायुद्ध में घायल सैनिकों में से 62 का आधा मस्तिष्क गोलियों से छिद जाने के कारण निकालना पड़ा था। प्रयोग से यह आशंका निर्मूल रही कि जितना अंश कट गया है उसके अनुपात से मस्तिष्कीय कार्य क्षमता घटी हुई रहेगी, पर वैसा कुछ हुआ नहीं। जितना टुकड़ा खोपड़ी में बचा रहा उसी ने पूर्ण मस्तिष्क जैसा काम भली प्रकार चला दिया।

शरीर को भारी, मोटा ऊँचा देखकर उसके बलिष्ठ होने का अनुमान लगाना किसी हद तक सही हो सकता है, पर मस्तिष्क के भार या विस्तार के आधार पर किसी प्राणी के बुद्धिमान या मूर्ख होने का अन्दाज नहीं लगता। विकसित मनुष्य का मस्तिष्क 3 पौण्ड भारी होता है और हाथी का दस पौण्ड। फिर भी हाथी मनुष्य की तुलना में बुद्धिमान नहीं होता। बुद्धि का सम्बन्ध कोरटक्स में फैली हुई तंत्रिका कोशिकाओं से हैं। उसमें भी एक और बात है कि उस क्षेत्र की कोशा से कितनी अधिक अपनी सहेलियों के साथ जुड़ी हुई है और उनके बीच आदान−प्रदान का कैसा स्फूर्तिवान सिलसिला चलता है। सहयोग का सिद्धान्त जहाँ प्रगति के हर क्षेत्र में काम करता है वहाँ बुद्धिमत्ता का आधार भी वही है, यह मनुष्य की मस्तिष्कीय कोशिकाओं की संरचना और प्रखरता को देखते हुए सहज ही स्वीकार किया जा सकता है।

शरीर संचालन से लेकर मानसिक हलचलों तक और भावानुभूतियों से लेकर चित्र−विचित्र कल्पनाओं का तानाबाना मस्तिष्क के छोटे से क्षेत्र में ही बुना जाता है। अनुभव उसी में एकत्रित रहते हैं और योजनाएँ इसी में बैठे बुद्धिमान घटक बनाया करते हैं। शरीर की आकुंचन प्रकुंचन, श्वास−प्रश्वास, ग्रहण−विसर्जन जैसी अनेकानेक सरल और जटिल क्रिया−प्रक्रियाएँ उसी क्षेत्र में संचालित होती हैं। दार्शनिक, वैज्ञानिक, व्यावसायिक, व्यापारिक, प्रणय, संगीत, कला, पराक्रम जैसी अगणित प्रवृत्तियों के उद्भव, अभिवर्धन और समापन का केन्द्र यही है। काया की संरचना और कार्यपद्धति कुछ भी क्यों न हो उसके चप्पे का नियन्त्रण और संचालन पूरी तरह मस्तिष्क के हाथ में हैं। कौन किस तरह जीवनयापन करता है और भविष्य में क्या बनने, क्या पाने जा रहा है इसका सही अनुमान लग सकता है, यदि मनःक्षेत्र की गतिविधियों की समुचित जानकारी प्राप्त हो सके।

खोपड़ी के भीतर भरा हुआ यह थोड़ा−सा पदार्थ अपनी संग्रह क्षमता की दृष्टि से अद्भुत है। समय पर भण्डार की वस्तुओं को तुरन्त निकाल लाने की उसकी कुशलता तो और भी अधिक आश्चर्यजनक है। इस दृष्टि से संसार का कोई श्रेष्ठतम पुस्तकालय या मनुष्य कृत कोई भी कम्प्यूटर उसकी तुलना नहीं कर सकता। यन्त्रों की रचना ऐसी है कि वे जिस उद्देश्य के लिए बने हैं और निर्माताओं ने जितने शक्ति सम्पन्न बनाये हैं उतना ही काम कर सकते हैं, पर मस्तिष्क के बारे में ऐसी बात नहीं हैं। वह अपने क्रिया कौशल में ही नहीं स्तर में भी निरन्तर वृद्धि करता रह सकता है। बचपन से लेकर मरण पर्यन्त वह अपना काम करते हुए भी अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए वैसा ही प्रयत्नशील रहता है जैसे कोई अध्यापक स्कूल का काम करने के साथ−साथ अपनी योग्यता वृद्धि के लिए नई−नई परीक्षाएँ भी पास करता चले। मस्तिष्कीय संरचना और क्रिया शक्ति के सम्बन्ध में पिछले दिनों बहुत कुछ जाना जा चुका है, किन्तु जो जानने के लिए शेष है वह उपलब्ध ज्ञान की तुलना में कहीं अधिक है। सुविदित और व्यवहृत क्रिया−शक्ति की दृष्टि से उसकी तुलना किसी भी मानवी कृति से नहीं की जा सकती। फिर भी उसके इतने कोष्टक बन्द पड़े हैं कि यदि उन सबको गतिशील बनाया जा सके तो मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्षमता इतनी अधिक बढ़ सकती है कि वह आज की स्थिति से तुलना करने का देवता या दैत्य जितना बलिष्ठ समर्थ दिखाई पड़ने लगे।

शारीरिक परिपोषण के लिए, विद्युतीय उत्तेजन के लिए व्यायाम, मालिश जैसे प्रयोग काम में लाये जाते हैं और रासायनिक परिपोषण के लिए सुपाच्य एवं पौष्टिक आहार की व्यवस्था की जाती है। मानसिक क्षमताओं को परिष्कृत करने के लिए ऐसे आहार का प्रयत्न करना पड़ता है जो सात्विक तो हो ही साथ ही ऐसी सूक्ष्म शक्ति से सम्पन्न भी हो जो चेतना में उपयोगी प्रखरता उत्पन्न कर सकने की सामर्थ्य से युक्त कहा जा सके। मनःसंस्थान में यों उसके अपने स्वसंचालित शक्ति उत्पादन केन्द्र हैं, पर बाहर से भी उस तन्त्र को सहायता पहुँचाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। इन उपचारों में यों तरह−तरह की वे तपश्चर्याएँ भी आती हैं जो स्नायु संस्थान में उत्तेजना उत्पन्न करके सारे मनःक्षेत्र को अभिनव उत्साह से भर देती हैं, इसके अतिरिक्त ध्यान साधना इस प्रयोजन के लिए सर्वोपरि हैं। एकाग्रता से शक्ति उत्पादन के अगणित प्रमाण आये दिन देखे जाते हैं। आतिशी शीशे पर सूर्य ताप का केन्द्रीकरण−भाप के धक्के से इंजन का चलना, बन्दूक के छेद से बारूद का विस्फोटक हो उठना जैसे उदाहरण हमें एकाग्रता की शक्ति का परिचय देते हैं। मस्तिष्क संस्थान में अगणित विद्युत प्रवाह उठते और बहते रहते हैं। इन्हें केन्द्रित करके मनःक्षेत्र को सुविकसित करने में नियोजित कर लिया जाय तो चिन्तन चेतना का असाधारण परिष्कार हो सकता है और हम सहज ही मनोबल सम्पन्न बन सकते हैं। कहना न होगा कि मनोबल की गरिमा शरीर बल, शिक्षा बल, धन बल, कौशल बल, साधन बल आदि सभी की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। उसके सहारे मनुष्य उन्नति के उस चरम शिखर पर पहुँच सकता है; जिसकी आज तो कल्पना कर सकना भी कठिन है।


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